शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

निराशा के दौर में उम्मीद के सपने



कौशल किशोर

‘यह आधी जीत है, आधी बाकी है। अनशन अभी स्थगित हुआ है, छूटा नहीं है।’ मतलब साफ है। न अन्ना जीते हैं और न भ्रष्टाचार हारा है। लड़ाई जारी रहेगी। यह पड़ाव है। अभी जन लोकपाल के मात्र तीन बिन्दुओं के प्रस्ताव को संसद ने पारित किया है, वह भी आंदोलन के दबाव से। स्टैण्डिंग कमेटी क्या रुख लेती है, यह आगे की बात होगी। अन्ना की आगे की राह आसान नहीं। पटाखे फोड़ने और जश्न मनाने का आहवाहन है। पर इससे ज्यादा जरूरी है आगे की तैयारी हो। उस झोल पर भी बात होगी जो जन लोकपाल में है तथा इस आंदोलन में भी देखा गया है। जिनने जन लोकपाल में एन जी ओ तथा निजी व कॉरपोरेट जगत को इसकी परिधि में लाने का मुद्दा उठाया है, अब उनके लिए इन मुद्दों पर मुहिम छेड़ने की बारी है।

लोगों ने मान लिया था कि यहाँ कुछ नहीं हो सकता। महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ नहीं किया जा सकता। इसे स्वीकार कर लेने में ही भलाई है। सरकारें बदल कर भी उन्होंने देख लिया। बकौल धूमिल ‘जिसकी पूँछ उठाई, उसको मादा पाया’। सरकार देश की प्रगति और विकास के आँकड़े पेश करने में लगी रही। विकास का मिथक गढ़ा जाता रहा और देश के विश्व की आर्थिक शक्ति बन जाने का खूब ढ़िंढ़ोरा पीटा जाता रहा। पर सच्चाई तो कुछ और ही कहानी कहती रही। आम आदमी के रोजमर्रा की जिन्दगी में कठिनाइयाँ बढ़ती ही गई। गरीब.गुरबा की क्या कहें, मध्यवर्ग तक की परेशानियां बढ गई। उसके खाने में दाल है तो सब्जी गायब हो गई और सब्जी आ गई तो कुछ और चीजें नदारत। भले ही आम आदमी अपना वोट देकर सरकार बनाता और बदलता रहा, पर राजनीति से उसका विलगाव बढ़ता ही गया। सिविल सोसायटी और अन्ना हजारे इसी राजनीतिक शून्यता की उपज हैं।

अन्ना हजारे के आंदोलन की खासियत यह रही कि यह आंदोलन हमारे नागरिक समाज के उस हिस्से को आंदोलित करने में सफल रहा है जो राजनीति से दूरी बनाकर चलता हैं। मौजूदा राजनीति में बढ़ती सड़ांध ने नागरिक समाज में राजनीति के प्रति उदासीनता पैदा की है और आज हालत यह है कि उसका सभी राजनीतिक दलों से करीब करीब मोहभंग हो चुका है। ऐसे में अन्ना हजारे जैसा स्वच्छ व ईमानदार छवि वाला सुधारवादी, गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता जब उन मुद्दांे को लेकर सामने आता है और आमरण अनशन करता है जिनसे नागरिक समाज त्रस्त है तो इसकी अपील समाज में दूर तक जाती है और उसे गहरे रूप में संवेदित करती है। अन्ना हजारे उसे किसी गाँधी या जेपी का नया अवतार जैसे लगते हैं। इस आंदोलन में यही हुआ और नागरिक समाज ने बढ.़चढ कर इसमें भागीदारी की। बल्कि इसकी कमान भी ऐसे लोगों के हाथों में रही जिनकी छवि आमतौर पर अराजनीतिक रही है ।

युवा शक्ति के बारे में यही कहा जाता रहा है कि वह नवउदारवादी चमक दमक का शिकार हो गया है। बाजारवादी व्यवस्था ने इसके अन्दर के प्रतिरोध की ऊर्जा को सोख लिया है। महानगरों से लेकर कस्बों तक फैली यह युवा शक्ति अमेरिका जैसे उन्नत देशों में अपना भविष्य देखती है। ‘राहुल ब्राँड’ इसके आदर्श हैं। इसी युवा शक्ति को हमने अन्ना के आंदोलन में देखा। यह इस आंदोलन की मजबूत ताकत बनकर उभरी। बेशक कई जगह इसमें लम्पटता व अराजकता भी देखने को मिली। इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि आइसा.इनौस जैसे रेडिकल वामपंथी छात्र.युवा संगठनों तथा ‘स्टूडेन्ट एण्ड यूथ अगेंस्ट करप्शन’ रात दिन आंदोलन की तैयारी में लगे रहे। उन्हें दमन भी झेलना पड़ा। इनके द्वारा जो पिछले तीन महीने से भ्रष्टाचार विरोधी संगठित व जुझारू अभियान संचालित किया गया, उसने युवाओं के बीच भ्रष्टाचार विरोध की वैचारिक जमीन तैयार की।

रही बात भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तो शायद ही कोई दिन हो जब लूट और भ्रष्टाचार के खिलाफ वामपंथी व अन्य दलों व जन संगठनों की ओर से धरना, प्रदर्शन न हुआ हो। छोटे.छोटे शहरों से लेकर दिल्ली तक में बड़ी बड़ी रैलियाँ हुई हैं। यहाँ तक कि गाँव.गाँव से, जंगल व आदिवासियों की ओर से विरोध के प्रबल स्वर उठे हैं। चाहे टाटा का कलिंगनगर हो, पोस्को, नियमगिरि इन तमाम जगहों में किसानों का तीखा प्रतिरोध जारी है। इन आंदोलनों की सीमा यह है कि ये बहुत कुछ वैचारिक अभियान बन कर रह जाते हैं और इस विचार पर केन्द्रित हो जाते हैं कि यह व्यवस्था भ्रष्ट है और इसे बदले बिना भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता है। जन लोकपाल से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। इसलिए हमें व्यवस्था बदलाव पर केन्द्रित करना चाहिए। इस संघर्ष में कोई पड़ाव नहीं है। देखने में यही आया कि इस समझ के संगठन और बुद्धिजीवी इस आंदोलन के दौरान इसके मुखर आलोचक थे। इनकी हालत लहरों से जूझते नाविक की न होकर तट पर बैठे तमाशबीन की बनकर रह गई।

पर अन्ना के आंदोलन की विशेषता यह रही कि इन्होंने जन लोकपाल कानून की माँग पर अपने को केन्द्रित किया जिसकी परिधि में सरकार के प्रधानमंत्री से लेकर सांसद व ऊपर से लेकर नीचे के अधिकारी आ सके। भले ही इससे भ्रष्टाचार खत्म हो या न हो लेकिन जनता में इसकी अपील गई। वे अपने रोजमर्रा के जीवन में रोज ही इनसे सताये जाते रहे हैं। जन लोकपाल उन्हें यह विश्वास दिलाता है कि अब उनका काम होगा और नहीं होता है तो कम से कम न्याय के लिए वे लोकपाल के पास जा तो सकते हैं। इस तरह अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की ठोस मांगों को सूत्रबद्ध करने तथा यह प्रचारित करने में सफल रहे कि जन लोकपाल के बन जाने से उन्हें भ्रष्टाचार से राहत मिल जायेगी। एक अपील यह भी थी कि सरकार भ्रष्ट है। वह अन्ना को अनशन तक करने नही देना चाहती। सरकार के दमन ने आंदोलन के लिए आवेजक का काम किया। 16 अगस्त के बाद से लगातार अन्ना पर तरह तरह के दबाव बनाये जाते रहे लेकिन अन्ना ने जिस दृढता का परिचय दिया, वह आंदोलन की दृढता बन गई।

अन्ना का यह आंदोलन भ्रष्टाचार से शुरू हुआ। लेकिन इसने जनता बनाम संसद, सŸाा के विकेन्द्रीकरण, चुनाव सुधार जैसे कई मुद्दों को उठा दिया है। यह पहलु सामने ला दिया है कि हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था रुग्ण हो चुकी है। इसमें सुधार की जरूरत है। अन्ना इसे ‘व्यवस्था परिवर्तन’ कह रहे हैं। अहिंसा के रास्ते सत्याग्रह, अनशन, जन आन्दोलन आदि इनके हथियार हैं। कुछ लोग इसे दबाव की राजनीति या सरकार के साथ ‘ब्लैकमेल’ कहते हुए इसकी आलोचना करते हैं। इस सम्बन्ध में मुझे गाँधी जी की एक बात याद आती है। जब उनसे पूछा गया था कि आपके सपनों का भारत कैसा होगा तो उन्होंने कहा कि स्वराज को प्रत्येक गरीब की कुटिया तक पहुँचाना हम सबका काम होगा और मेरे सपनों का भारत ऐसा होगा जिसमें हर आदमी यह महसूस कर सके कि यह देश उसका है, उसके निर्माण में उसकी आवाज का महत्व है।

पर सच्चाई यह है कि आज आवाज किसी की गूँज रही है तो वह धनपशुओं, दबंगों, राजनीतिक सौदागरों और अपराधियों की है। क्या हमारी संसदीय व्यवस्था इसी आवाज की प्रतिनिधि नहीं होती जा रही है ? ऐसे में क्या संसदीय तानाशाही की जगह लोकशाही को जाग्रत करना जरूरी नहीं ? अन्ना के आंदोलन ने यही किया है, निराशा के दौर में आशा के सपने जगाये हैं। अभी ये सपने हैं, इसे यथार्थ होना बाकी है। इसे कोई ‘दूसरी आजादी’, ‘अरब का वसन्त’ या ‘अगस्त क्रान्ति’ नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। काले अंग्रेजो के राज में उनका काला शरबत पीते.पीते, तिल.तिल कर मरने की जगह कुछ करने का आहवान है जैसा वीरेन डंगवाल अपनी कविता में कहते हैं:

‘हमने यह कैसा समाज रच डाला है
इसमें जो दमक रहा, वह शर्तिया काला है
कालेपन की वे संतानंे
है बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू है हम पर फेर रहीं
बोलो तो कुछ करना है
या काला शरबत पीते.पीते मरना है।’

बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं

कौशल किशोर

बुद्धिजीवी समुदाय से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाज को दिशा देगा। एक बेहतर, मानवीय और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में उसकी कारगर भूमिका होगी। लेकिन इस समुदाय के एक हिस्से द्वारा ऐसे तर्क और विचार दिये जा रहे हैं जिससे यही बात सामने आ रही है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा जनलोकपाल की मांग बेबुनियाद, गलत तथा संविधान विरुद्ध है। अन्ना के आंदोलन का विरोध ऐसे किया जा रहा है जैसे यह कोई अपराधजन्य कार्रवाई है तथा इसके द्वारा संसद, संविधान, कानून के हमारे भव्य व सर्वोच्च ‘लोकतांत्रिक’ मन्दिर को ढ़हा देने की साजिश रची जा रही है।

ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम इस तर्क व विचार को समझे। सवाल है क्या अन्ना के आन्दोलन ने हमारी संसदीय व्यवस्था के लिए वास्तव में संकट पैदा कर दिया है ? यह लोकतांत्रिक ढ़ांचे में पलीता लगा रहा है ? अगर इतिहास को देखें तो हमारा अनुभव यही कहता है कि जनता की पहल, उसका हस्तक्षेप तथा उसके आंदोलनों ने हमेशा संसदीय जनतंत्र को मजबूत करने का काम किया है। यदि इस व्यवस्था के लिए संकट आया है तो शासक वर्ग की तरफ से ही आया है। यह शासक वर्ग ही है जिसने अपने संकीर्ण हितों के लिए संसद, संविधान, कानून आदि का इस्तेमाल किया है तथा जनता के ऊपर लोकतंत्र की जगह अपनी तानाशाही को थोपा है। इस सम्बन्ध में उदाहरणों कमी नहीं हैं।

कहा जा रहा है कि जिस जन लोकपाल को संसद में पारित कराने को लेकर आन्दोलन किया जा रहा है, वह निर्वाचित लोगों द्वारा तैयार नहीं है जबकि संसद एक निर्वाचित संस्था है। क्या संसद सिविल सोसायटी के ‘अनिर्वाचित’ नुमाइन्दों के सामने घुटने टेक दे। तब रघुरमण और निलकेणी की नियुक्ति के बारे में क्या कहा जायेगा ? इनकी नियुक्ति किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत की गई है ? ये निर्वाचित सांसद नहीं है, यहाँ तक कि ये राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। ये तो कारपोरेट कम्पनियों के सीइओ हैं। ये किनके हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं, यह जगजाहिर है।। सरकार द्वारा रणनीतिक महत्व के पदों पर इनकी नियुक्ति क्या संसदीय व्यवस्था को नष्ट करना तथा कारपोरेट हितों का पक्षपोषण करना नहीं है ? ऐसे अनगिनत मामले हैं। वहीं इसके विपरीत नागरिक समाज के कार्यकर्ता सर्वजनिक व्यक्ति हैं। उनके ड्राफ्ट से हमारी सहमति या असहमति हो सकती है। पर उनके ड्राफ्ट के विचार तो सबके सामने खुलकर आये हैं। देश में इस पर व्यापक चर्चा हुई है, लोग आज भी अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना अपने आमरण अनशन तथा आंदोलन द्वारा दबाव की राजनीति कर रहे हैं। यह ‘ब्लैक मेल’ है। इस नजर से देखा जाय तो अनशन, भूख हड़ताल, हड़ताल, धरना, घेराव आदि सब ‘ब्लैक मेल’ ही कहलायेगा जिसका इस्तेमाल मजदूर, किसान और जनता के विभिन्न तबके अपनी माँगों को लेकर करते हैं। लोकतंत्र में आन्दोलन करना, सरकार पर इसके द्वारा दबाव बनाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। जन आन्दोलनों के प्रति यह नजरिया न सिर्फ अलोकतांत्रिक है बल्कि फासिस्ट भी है।

आज इस बात पर बहस तेज है कि संसद और जनता में सर्वोच्च किसे माना जाय ? जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है। उनका दायित्व बनता है कि वह जनहित के लिए काम करे। क्या लोकतंत्र में जनता का अधिकार मात्र पाच साल में एक बार वोट देने तक सीमित रह जाता है ? उसके बाद पाच साल तक वह चुपचाप इन्तजार करे। मैं समझता हूँ ऐसी व्यवस्था संसदीय तानाशाही कहलायेगी, जनतंत्र नहीं। चूँकि यह जनता ही सांसदों व विधायिका को चुनती है। इसलिए उस पर निगरानी रखने, संसद के विविध क्रियाकलाप पर अपना मत जाहिर करने, उस पर आंदोलन और दूसरे तरीके से दबाव बनाने का काम भी जनता का होता है। ऐसे अधिकार उसे संविधान में प्राप्त भी हैं।

इसीलिए जो लोग संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे हैं, वे जनता को संविधान प्रदत अधिकारों से वचित कर देना चाहते हैं। आखिरकार संसद लोकतंत्र में किसके प्रति जिम्मेदार होता है। जनता के प्रति ही तो। लेकिन आज उसकी जिम्मेदारी क्या है ? भले देश की जनता के बड़े हिस्से को बीस रुपये मजदूरी के रूप में बमुश्किल से मिलते हों, पर हमारे प्रतिनिधियों के खर्चे में कोई कमी नहीं आनी चाहिए और अपना वेतन व भŸाा बढ़ाने के सवाल पर वे आमतौर पर एकजुट दिखते हैं। फिर हमारे सांसदों के चरित्र को भी देखा जाना चाहिए। आज इनका चरित्र बहुत कुछ सामंतों या कहिए राजाओं जैसा हो गया है। जनसेवक की जगह ये जनता के मालिक बन गये हैं। हकीकत तो यह है कि आज चार सांसद जेल में है तथा दर्जनों पर आपराधिक मुकदमें है।

हमारे बुद्धिजीवी दोस्त इरोम शर्मिला के पिछले दस साल से जारी भूख हड़ताल से बड़ी सहानुभूति जाहिर करते हैं तथा अन्ना के आन्दोलन पर चर्चा करते हुए इसके बरक्स वे इरोम की भूख हड़ताल की बात करते हुए अन्ना के द्वारा इस मुद्दे पर कुछ न किये जाने की आलोचना करते हैं। लेकिन ये इस सवाल पर चुप्पी साधे दिखते हैं कि यही संसद है जिसने विशेष शस्त्र बल ;अफ्सपाद्ध जैसा कानून बनाया है जिसके विरुद्ध इरोम संघर्षरत है। यही संसद है जिसने तमाम ऐसे कानूनों को संरक्षित कर रखा है जो अंग्रेजों द्वारा बनाये गये। इनके तहत मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह का मुकदमा कायम किया गया। आजतक संसद ने न जाने कितने काले कानून बनाये है। ऐसे ही कानूनों के तहत विनायक सेन को आजीवन कारावस की सजा दी गई तथा आज भी सीमा आजाद, प्रशान्त राही, सुघीर ढ़ावले जैसे अनगिनत लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा जन आन्दोलनों के कार्यकर्ता जेलों में बन्द हैं। क्या झुठलाया जा सकता है कि हमारी संसद कॉरपोरेट हितों तथा नवउदारवादी नीतियों की सबसे बड़ी रक्षक है जिसकी देन भ्रष्टाचार है ?

कभी गाँधी जी ने इंगलैंड की संसद की आलोचना करते हुए कहा था कि यह ‘बाँझ’ और ‘बेसवा’ है जो उसी का काम करती है जो उसे अपने पास रखे। कभी लेनिन ने जारशाही द्वारा गठित रूसी संसद ‘डयूमा’ को ‘सुअरबाड़ा’ कहा था। जो संसद अपने राष्ट्रहित, जनहित के प्रति जिममेदार न हो उसकी स्थिति क्या ऐसी ही नहीं हो जाती। इस रोशनी में हम अपनी संसद को देख सकते हैं। ऐसे में लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन हो तथा भारतीय समाज भ्रष्टाचार मुक्त बने, यही देश की जनता का सपना है। यह लाखों करोड़ों का सपना ही है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा जन लोकपाल के लिए आन्दोलन के रूप में उमड़ पड़ा है। इसे कोई ‘दूसरी आजादी’, ‘अरब का वसन्त’ या ‘अगस्त क्रान्ति’ नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचाना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। संघर्ष और बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं, इसे जिलाये रखना ही आज बौद्धिकों का दायित्व हो सकता है। संसद, संविधान व कानून के नाम पर इस सपने से खेलने को ‘बौद्धिक मक्कारी’ तथा संसदीय बौनापन ही कहा जायेगा।

बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं

कौशल किशोर

बुद्धिजीवी समुदाय से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाज को दिशा देगा। एक बेहतर, मानवीय और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में उसकी कारगर भूमिका होगी। लेकिन इस समुदाय के एक हिस्से द्वारा ऐसे तर्क और विचार दिये जा रहे हैं जिससे यही बात सामने आ रही है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा जनलोकपाल की मांग बेबुनियाद, गलत तथा संविधान विरुद्ध है। अन्ना के आंदोलन का विरोध ऐसे किया जा रहा है जैसे यह कोई अपराधजन्य कार्रवाई है तथा इसके द्वारा संसद, संविधान, कानून के हमारे भव्य व सर्वोच्च ‘लोकतांत्रिक’ मन्दिर को ढ़हा देने की साजिश रची जा रही है।

ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम इस तर्क व विचार को समझे। सवाल है क्या अन्ना के आन्दोलन ने हमारी संसदीय व्यवस्था के लिए वास्तव में संकट पैदा कर दिया है ? यह लोकतांत्रिक ढ़ांचे में पलीता लगा रहा है ? अगर इतिहास को देखें तो हमारा अनुभव यही कहता है कि जनता की पहल, उसका हस्तक्षेप तथा उसके आंदोलनों ने हमेशा संसदीय जनतंत्र को मजबूत करने का काम किया है। यदि इस व्यवस्था के लिए संकट आया है तो शासक वर्ग की तरफ से ही आया है। यह शासक वर्ग ही है जिसने अपने संकीर्ण हितों के लिए संसद, संविधान, कानून आदि का इस्तेमाल किया है तथा जनता के ऊपर लोकतंत्र की जगह अपनी तानाशाही को थोपा है। इस सम्बन्ध में उदाहरणों कमी नहीं हैं।

कहा जा रहा है कि जिस जन लोकपाल को संसद में पारित कराने को लेकर आन्दोलन किया जा रहा है, वह निर्वाचित लोगों द्वारा तैयार नहीं है जबकि संसद एक निर्वाचित संस्था है। क्या संसद सिविल सोसायटी के ‘अनिर्वाचित’ नुमाइन्दों के सामने घुटने टेक दे। तब रघुरमण और निलकेणी की नियुक्ति के बारे में क्या कहा जायेगा ? इनकी नियुक्ति किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत की गई है ? ये निर्वाचित सांसद नहीं है, यहाँ तक कि ये राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। ये तो कारपोरेट कम्पनियों के सीइओ हैं। ये किनके हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं, यह जगजाहिर है।। सरकार द्वारा रणनीतिक महत्व के पदों पर इनकी नियुक्ति क्या संसदीय व्यवस्था को नष्ट करना तथा कारपोरेट हितों का पक्षपोषण करना नहीं है ? ऐसे अनगिनत मामले हैं। वहीं इसके विपरीत नागरिक समाज के कार्यकर्ता सर्वजनिक व्यक्ति हैं। उनके ड्राफ्ट से हमारी सहमति या असहमति हो सकती है। पर उनके ड्राफ्ट के विचार तो सबके सामने खुलकर आये हैं। देश में इस पर व्यापक चर्चा हुई है, लोग आज भी अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना अपने आमरण अनशन तथा आंदोलन द्वारा दबाव की राजनीति कर रहे हैं। यह ‘ब्लैक मेल’ है। इस नजर से देखा जाय तो अनशन, भूख हड़ताल, हड़ताल, धरना, घेराव आदि सब ‘ब्लैक मेल’ ही कहलायेगा जिसका इस्तेमाल मजदूर, किसान और जनता के विभिन्न तबके अपनी माँगों को लेकर करते हैं। लोकतंत्र में आन्दोलन करना, सरकार पर इसके द्वारा दबाव बनाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। जन आन्दोलनों के प्रति यह नजरिया न सिर्फ अलोकतांत्रिक है बल्कि फासिस्ट भी है।

आज इस बात पर बहस तेज है कि संसद और जनता में सर्वोच्च किसे माना जाय ? जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है। उनका दायित्व बनता है कि वह जनहित के लिए काम करे। क्या लोकतंत्र में जनता का अधिकार मात्र पाच साल में एक बार वोट देने तक सीमित रह जाता है ? उसके बाद पाच साल तक वह चुपचाप इन्तजार करे। मैं समझता हूँ ऐसी व्यवस्था संसदीय तानाशाही कहलायेगी, जनतंत्र नहीं। चूँकि यह जनता ही सांसदों व विधायिका को चुनती है। इसलिए उस पर निगरानी रखने, संसद के विविध क्रियाकलाप पर अपना मत जाहिर करने, उस पर आंदोलन और दूसरे तरीके से दबाव बनाने का काम भी जनता का होता है। ऐसे अधिकार उसे संविधान में प्राप्त भी हैं।

इसीलिए जो लोग संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे हैं, वे जनता को संविधान प्रदत अधिकारों से वचित कर देना चाहते हैं। आखिरकार संसद लोकतंत्र में किसके प्रति जिम्मेदार होता है। जनता के प्रति ही तो। लेकिन आज उसकी जिम्मेदारी क्या है ? भले देश की जनता के बड़े हिस्से को बीस रुपये मजदूरी के रूप में बमुश्किल से मिलते हों, पर हमारे प्रतिनिधियों के खर्चे में कोई कमी नहीं आनी चाहिए और अपना वेतन व भŸाा बढ़ाने के सवाल पर वे आमतौर पर एकजुट दिखते हैं। फिर हमारे सांसदों के चरित्र को भी देखा जाना चाहिए। आज इनका चरित्र बहुत कुछ सामंतों या कहिए राजाओं जैसा हो गया है। जनसेवक की जगह ये जनता के मालिक बन गये हैं। हकीकत तो यह है कि आज चार सांसद जेल में है तथा दर्जनों पर आपराधिक मुकदमें है।

हमारे बुद्धिजीवी दोस्त इरोम शर्मिला के पिछले दस साल से जारी भूख हड़ताल से बड़ी सहानुभूति जाहिर करते हैं तथा अन्ना के आन्दोलन पर चर्चा करते हुए इसके बरक्स वे इरोम की भूख हड़ताल की बात करते हुए अन्ना के द्वारा इस मुद्दे पर कुछ न किये जाने की आलोचना करते हैं। लेकिन ये इस सवाल पर चुप्पी साधे दिखते हैं कि यही संसद है जिसने विशेष शस्त्र बल ;अफ्सपाद्ध जैसा कानून बनाया है जिसके विरुद्ध इरोम संघर्षरत है। यही संसद है जिसने तमाम ऐसे कानूनों को संरक्षित कर रखा है जो अंग्रेजों द्वारा बनाये गये। इनके तहत मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह का मुकदमा कायम किया गया। आजतक संसद ने न जाने कितने काले कानून बनाये है। ऐसे ही कानूनों के तहत विनायक सेन को आजीवन कारावस की सजा दी गई तथा आज भी सीमा आजाद, प्रशान्त राही, सुघीर ढ़ावले जैसे अनगिनत लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा जन आन्दोलनों के कार्यकर्ता जेलों में बन्द हैं। क्या झुठलाया जा सकता है कि हमारी संसद कॉरपोरेट हितों तथा नवउदारवादी नीतियों की सबसे बड़ी रक्षक है जिसकी देन भ्रष्टाचार है ?

कभी गाँधी जी ने इंगलैंड की संसद की आलोचना करते हुए कहा था कि यह ‘बाँझ’ और ‘बेसवा’ है जो उसी का काम करती है जो उसे अपने पास रखे। कभी लेनिन ने जारशाही द्वारा गठित रूसी संसद ‘डयूमा’ को ‘सुअरबाड़ा’ कहा था। जो संसद अपने राष्ट्रहित, जनहित के प्रति जिममेदार न हो उसकी स्थिति क्या ऐसी ही नहीं हो जाती। इस रोशनी में हम अपनी संसद को देख सकते हैं। ऐसे में लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन हो तथा भारतीय समाज भ्रष्टाचार मुक्त बने, यही देश की जनता का सपना है। यह लाखों करोड़ों का सपना ही है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा जन लोकपाल के लिए आन्दोलन के रूप में उमड़ पड़ा है। इसे कोई ‘दूसरी आजादी’, ‘अरब का वसन्त’ या ‘अगस्त क्रान्ति’ नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचाना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। संघर्ष और बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं, इसे जिलाये रखना ही आज बौद्धिकों का दायित्व हो सकता है। संसद, संविधान व कानून के नाम पर इस सपने से खेलने को ‘बौद्धिक मक्कारी’ तथा संसदीय बौनापन ही कहा जायेगा।

राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’


कौशल किशोर

प्रेमचंद ने आज से 75 साल पहले अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ की रचना की थी। यह भारतीय किसान की त्रासदी और उसके संघर्ष की कहानी है। उपन्यास का नायक होरी इसका प्रतिनिधि पात्र है। वह कर्ज और सूदखोरी पर आधारित महाजनी सभ्यता का शिकार होता है। इस व्यवस्था द्वारा वह तबाह.बर्बाद कर दिया जाता है। उसका सब कुछ लूट लिया जाता है। उसकी जमीन, माल मवेशी सब छिन जाते हैं। वह दूसरों के खे पर काम करने वाले मजदूर में तब्दील हो जाता है और अन्त में इस क्रूर व्यवस्था के हाथों मार दिया जाता है।

देश आजाद हुआ, लेकिन होरी आजाद नही ंहुआ। आजादी के चौसठ साल बाद भी होरी मर रहा है, एक नहीं, हजारों.लाखों की तादाद में। साम्राज्यवादी.पूँजीवादी व्यवस्था का वह शिकार है। उसकी जमीनें छीनी जा रही हैं। कर्ज में डूबा वह आत्महत्या करने को मजबूर है। अन्न पैदा करने वाला किसान अन्न के लिए मोहताज हो गया है। भूख से मरना आजाद हिन्दुस्तान में उसकी नियति बन गई। यह व्यवस्था हृदयहीन, क्रूर और पाखण्डी हो गई है। राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ हमारी चौसठ साला आजादी के इसी यथार्थ को सामने लाता है। ‘गाँधी ने कहा’, ‘सŸा भाषे रैदास’, ‘अम्बेडकर और गाँधी’, ‘द लास्ट सैल्यूट’ जैसे व्यवस्था विरोधी और यथार्थवादी नाटकों के लिए चर्चित नाटककार राजेश कुमार का यह नया नाटक है जिसका मंचन अभी हाल में लखनऊ के संत गाडगे प्रेक्षागृह, संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाहजहाँपुर की नाट्य संस्था ‘थर्ड बेल’ द्वारा किया गया। इसका निर्देशन चन्द्रमोहन ‘महेन्द्रू’ ने किया। अलग दुनिया के सौजन्य से इस नाटक का मंचन लखनऊ में संभव हुआ।

‘सुखिया मर गया भूख से’ की कहानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले की है। एक गरीब किसान की भूख से मृत्यु हुई। इस घटना के सच को दबाने और उसे पलटने के लिए नौकरशाही द्वारा जो कुचक्र रचा गया, यह नाटक इसी सच्ची घटना पर आधारित है। सरकार द्वारा यह प्रचारित है कि उसके शासन में किसान चाहे जिस भी वजह से मरे लेकिन उसे भूख से नहीं मरना चाहिए। यदि कोई किसान भूख से मरता है तो इसके लिए उस जिले का प्रशासन खासतौर से डी0 एम0 जिम्मेदार माना जायेगा। मुख्यमंत्री कार्यालय से जिले में यह सूचना आती है कि सुखिया नाम का किसान भूख से मर गया है। कार्यालय को चौबीस घंटे के भीतर इसकी रिपोर्ट चाहिए। फिर क्या ? डी एम से लेकर तहसीलदार, एस पी से लेकर दरोगा, बी डी ओ से लेकर डॉक्टर तथा ग्राम प्रधान सब मिलकर ऊपर से लेकर नीचे तक जिले के सारे अधिकारी मामले को दबाने के कार्य में जुट जाते हैं।

सुखीराम उर्फ सुखिया इस नाटक का केन्द्रीय पात्र है। इसकी कहानी एक गरीब किसान के जीवन और संघर्ष की कहानी है। इस अर्थ में वह आज के गरीब किसान का प्रतिनिधित्व करता है। सुखिया ने खेती के लिए कर्ज क्या लिया, उसके जीवन में आफत आ गई। मूल से कई गुना उसका सूद हो जाता है। इसकी अदायगी में उसका खेत बिक जाता है। पत्नी और चार बच्चों का उसका परिवार कैसे चले ? अन्न पैदा करने वाला सुखीराम स्वयं एक एक दाने के लिए मोहताज हो जाता है। वह भूखा प्यासा काम की तलाश में दर दर भटकता है। उसे काम मिलता है लेकिन कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। इस हालत में उसे चक्कर आता है, बोहोश हो गिर पड़ता है और वहीं दम तोड़ देता है। उसकी पत्नी व बच्चे सब अनाथ हो जाते हैं। उनके पास रोने और आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता है।

सुखिया के भूख से मरने की खबर जिला प्रशासन को मुख्यमंत्री कार्यलय से आती है। फिर जिला प्रशासन द्वारा सुखिया की खोजाई शुरू होती है और सारा तंत्र सुखिया की भूख से हुई मौत को गलत साबित करने में जुट जाता है। उसके घर में अनाज भर ही नहीं दिया जाता है, बल्कि उसे चारो तरफ इस तरह फैला दिया जाता है ताकि यह पता चल सके कि उसके घर में अन्न को कोई किल्लत नहीं है। उसके नाम बी पी एल कार्ड जारी किया जाता है। उसमें यह इन्ट्री दिखाई जाती है कि वह नियमित रूप से अपने कार्ड पर अनाज उठाता रहा है। झटपट उसके नाम नरेगा का जॉब कार्ड बनता है तथा बैंक में खाता खोल दिया जाता है। उसके खाते में बारह हजार रुपये भी जमा कर दिये जाते हैं। सुखिया के मृत शरीर में मुँह के रास्ते अनाज भर दिया जाता है तथा हवा पम्प कर पेट इतना फूला दिया जाता है जिससे यह साबित हो जाय कि सुखाई की मौत भूख से नहीं, अत्यधिक खाने से हुई है। डाक्टर द्वारा पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी यही दिखाया जाता है। इस तरह भूख से हुई मौत की कहानी को अधिक खाने से हुई मौत में बदल दिया जाता है और वे सारे प्रमाण जुटा दिये जाते हैं जिससे साबित किया जा सके कि सुखिया एक सम्पन्न किसान था। उसकी मौत भूख से हो ही नहीं सकती थी।

डी एम का मुआयना होता है। वह मीडिया के सामने आता है और यह घोषित करता है कि सुखीराम की मौत भूख से नहीं हुई है और उनके जिले में इस तरह की कोई घटना हुई ही नहीं है। वह मुआवजे की घोषणा करता है। मीडिया भी सुन्दर व चमकदार वस्त्र पहना कर बच्चों की तस्वीरे उतारता है। इस तरह पूरा तंत्र जिसमें मीडिया तक शामिल हैं किसान की भूख से हुई मौत की सच्ची व दर्दनाक घटना को गलत साबित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देता है और सुखिया की पत्नी इमरती देवी और उसके बच्चों को ऐसी हालत में छोड़ जाता है जहाँ उनके पास अपनी आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता।

यह नाटक सुखिया के माध्यम से आज की सŸाा और व्यवस्था से हमें रु ब रु कराता है। यह ‘जनतांत्रिक’ व्यवस्था कितनी फर्जी, आम आदमी और उसकी समस्याओं से कटी, संवेदनहीन औ अमानवीय हो गई है, नाटक इसके जनविरोधी चरित्र को उजागर करता है। नाटक में इसके विरुद्ध प्रतिरोध भी है और यह किसानों के आक्रोश व गुस्से को भी सामने लाता है। इस प्रतिरोध के लिए नाटक में फैंटेसी की रचना की गई है। इस प्रतिरोध का नायक सुखिया का प्रेत है। सुखिया का प्रेत तंत्र द्वारा गढ़े गये एक एक झूठ का पर्दाफाश करता है। वह यमराज से भी संघर्ष करता है जो इस तंत्र का समर्थक है। उस वक्त सुखिया का प्रतिरोध अपने चरम रूप में अभिव्यक्त होता है जब उसके जीवन की सच्चाई को व्यवस्था द्वारा झूठ साबित कर दिया जाता है और झूठ को सच के रूप में स्थापित किया जाता है। वह झूठ के तंत्र पर अपनी पूरी ताकत से टूट पड़ता है। नाटक कबीर की इस कविता के साथ समाप्त होता है ‘हम ना मरिबे मरिहें संसारा/हमको मिलिहाँ लड़ावनहारा..../हम न मरिबे, अब न तरबे/करके सारे जतन भूख से लड़बै/जब दुनिया से भूख मिटावा/तब मरिके हम सुख पावा’।

संसार भले खत्म हो जाय लेकिन हम नहीं मरेंगे, नाटक किसान के जीने की जबरदस्त इच्छा शक्ति को सामने लाता है और यह संदेश देता है कि भूख पैदा करने वाली व्यवस्था को समाप्त करके ही किसान को सच्चा सुख मिल सकता है। राजेश कुमार का यह नाटक भूख से हुई मौत और किसानों की आत्महत्या के विरुद्ध प्रतीत होता है लेकिन अपने मूल रूप में यह मौजूदा व्यवस्था तथा इस तंत्र के खिलाफ है। आज जब महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तथा व्यवस्था की लूट व दमन के विरुद्ध देश में आन्दोलन तेज है, ऐसे दौर में नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ का महत्व बढ़ जाता है। यह प्रतिरोध की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है जो जन चेतना को आगे बढ़ाता है।

नाटक में अशोक अंजुम और अशोक मिश्र के गीतों का इस्तेमाल हुआ है। चुटीले संवाद, व्यंग्य, एक्शन, गीत.संगीत आदि नाटक को गतिमय बनाये रखता है। लेकिन कई जगह संगीत और वाद्ययंत्र की आवाज लाउड हो गई है जिसकी वजह से गीत के बोल दब जाते हैं। इसी तरह कई जगह व्यंग्य पर हास्य हावी हो जाता है। वैसे ‘थर्ड बेल’ द्वारा इसकी यह पहली प्रस्तुति है। कलाकारों और निर्देशक के परिश्रम और प्रतिबद्धता को देखते हुए आशा की जानी चाहिए कि आगे की इसकी प्रस्तुति और बेहतर और सुगठित होगी।

बुधवार, 6 जुलाई 2011

अन्ना हजारे से सहमत हों या असहमत भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जरूरी है


कौशल किशोर

आज अन्ना हजारे और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को लेकर कई सवाल उठाये जा रहे हैं। साहित्यकार मुद्राराक्षस ने (जनसंदेश टाइम्स, 4 जुलाई 2011) आरोप लगाया है कि अन्ना भाजपा व राष्ट्रीय सेवक संघ का मुखौटा हैं और अन्ना के रूप में इन्हें ‘आसान झंडा’ मिल गया है। जन लोकपाल समिति में ऐसे लोग शामिल हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। अन्ना हजारे की यह माँग कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में ले आया जाय, संविधान के विरुद्ध है। मुद्राराक्षस ने यहाँ तक सवाल उठाया है कि अन्ना और उनकी सिविल सोसायटी पर संसद और संविधान की अवमानना का मुकदमा क्यों न दर्ज किया जाय ? ऐसे में अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पड़ताल जरूरी है क्योंकि आज यह आन्दोलन अपने अगले चरण की ओर अग्रसर है और जन आंदोलन की शक्तियाँ वैचारिक और सांगठनिक तैयारी में जुटी हैं।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि तमाम पार्टियाँ सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं। वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे भरने के लिए सिविल सोसाइटी और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे इसी यथार्थ की उपज हैं।

इस आंदोलन में, अन्ना हजारे के व्यक्तित्व और विचार में कमियाँ और कमजोरियाँ मिल सकती हैं। वे गाँधीवादी हैं। खुद गाँधीजी अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद स्वाधीनता आन्दोलन के बड़े नेता रहे हैं। इसी तरह अन्ना हजारे के विचारों और काम करने के तरीकों में अन्तर्विरोध संभव है लेकिन इसकी वजह से उनके आन्दोलन के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। इस आन्दोलन का सबसे बड़ा महत्व यही है कि इनके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद््दा आज केन्दीय मुद्दा बन गया है जिसने समाज के हर तबके को काफी गहरे संवेदित किया है और इसे खत्म करने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं। अन्ना हजारे और उनके आंदोलन की इस उपलब्धि को क्या अनदेखा किया जा सकता है कि 42 सालों से सरकार के ठंढ़े बस्ते में पड़ा लोकपाल विधेयक बाहर आया, उसे मजबूत और प्रभावकारी बनाने की चर्चा हो रही है, और इस पर सर्वदलीय बैठक आयोजित हुई।

हमारे यहाँ ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं जो हर आन्दोलनों से रहते तो दूर हैं, पर सूँघने की इनकी नाक बड़ी लम्बी होती है। हर ओर इन्हें साजिश ही नजर आती है। ये अन्ना द्वारा नरेन्द्र मोदी की तारीफ पर तो खूब शोर मचाते हैं, लेकिन इस सम्बन्ध में अन्ना ने जो सफाई दी, वह इन्हें सुनाई नहीं देता है। किसानों की आत्म हत्या, बहुराष्ट्रीय निगमों का शोषण, चालीस करोड़ से ज्यादा लोगों का गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन के लिए बाध्य किया जाना जैसे मुद्दे तो इन्हें संवेदित करते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जब प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात आती है तो वह उन्हें देश में आजादी के बाद पहली बार अल्पसंख्यक सिख समुदाय के प्रधानमंत्री को अपमानित करने का षडयंत्र नजर आता है। अपनी बौखलाहट में ये अन्ना और सिविल सोसाइटी पर जाँच बैठा कर मुकदमा चलाने की माँग करते हैं। ये इस सच्चाई को भुला बैठते हैं कि प्रधानमंत्री किसी समुदाय विशेष का न होकर वह सरकार का प्रतिनिधि होता है। हमारे इन बौद्धिकों को अन्ना द्वारा किसान आत्महत्याओं पर भूख हड़ताल न करने पर शिकायत है लेकिन किसान आंदोलनों पर सरकार के दमन पर ये चुप्पी साध लेते हैं।

हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार पूँजीवाद की देन है और खासतौर से 1990 के बाद सरकार ने जिन उदारवादी आर्थिक नीतियों पर अमल किया है, उसी का परिणाम है। यह पूँजीवाद लूट और दमन की व्यवस्था है। इसलिए अगर भ्रष्टाचार मिटाना है तो हमें पूँजीवाद और अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के विरुद्ध व्यापक आंदोलन और जागरण का अभियान चलाने की जरूरत है। यही वह जगह है जहाँ भाजपा जैसे दलों के लिए स्पेस नहीं रह जाता है। इस मामले में भाजपा काँग्रेस से बहुत अलग नहीं है। भले ही आज आन्दोलन से तात्कालिक लाभ बटोरने के लिए भाजपा जैसे दल अन्ना को समर्थन दे रहे हों तथा भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलित हों लेकिन जैसे जैसे आंदोलन अपने तीखे रूप में आगे बढ़ेगा, इन्हें हम आंदोलन से बाहर ही देखेंगे।

कहा जा रहा है कि अन्ना हजारे जिस लोकपाल को लाना चाहते हैं, वह संसद और सविधान की अवमानना है। पर सच्चाई क्या है ? हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई मजबूत कानून की व्यवस्था नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो, इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय।

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात को लेकर मतभेद है लेकिन अतीत में प्रधानमंत्री जैसे पद पर जब अंगुली उठती रही है तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है। सर्वदलीय बैठक में कई दलों के प्रवक्ता ने प्रधानमंत्री को इस दायरे में लाने की बात कही है और स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनसे मिलने गये सम्पादकों से कहा कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। फिर समस्या क्या है ? हमारा संविधान भी कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है। अगर भ्रष्टाचार कैसर जैसी असाध्य बीमारी का रूप ले चुका है तो उसका उपाय भी तो उसी स्तर पर करना होगा। ऐसे में सांसदो और राजनीतिक दलों की नैतिकता दांव पर है और सारे देश का ध्यान इस ओर है कि मानसून सत्र में देश का संसद लोकपाल विधेयक पर क्या रुख अपनाता है। इसके पास भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छा शक्ति है या नहीं ?

अन्त में, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लम्बी है। मजबूत और प्रभावकारी लोकपाल का गठन इसका पहला चरण हो सकता है। हम अन्ना हजारे से सहमत हो सकते है, असहमत हो सकते हैं या उनके विरोधी हो सकते है लेकिन यदि हम समझते है कि भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्र, समाज, जीवन, राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहा है तो समय की माँग है कि इस संघर्ष को अन्ना हजारे और उनके चन्द साथियों पर न छोड़कर देश के जगरूक नागरिक, देशभक्त, बुद्धिजीवी, ईमानदार राजनीतिज्ञ, लोकतांत्रिक संस्थाएँं, जन संगठन आगे आयें और इसे व्यापक जन आंदोलन का रूप दें।

एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 09807519227, 08400208031




अन्ना हजारे से सहमत हों या असहमत भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जरूरी है


कौशल किशोर

आज अन्ना हजारे और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को लेकर कई सवाल उठाये जा रहे हैं। साहित्यकार मुद्राराक्षस ने ;जनसंदेश टाइम्स, 4 जुलाई 2011द्ध आरोप लगाया है कि अन्ना भाजपा व राष्ट्रीय सेवक संघ का मुखौटा हैं और अन्ना के रूप में इन्हें ‘आसान झंडा’ मिल गया है। जन लोकपाल समिति में ऐसे लोग शामिल हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। अन्ना हजारे की यह माँग कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में ले आया जाय, संविधान के विरुद्ध है। मुद्राराक्षस ने यहाँ तक सवाल उठाया है कि अन्ना और उनकी सिविल सोसायटी पर संसद और संविधान की अवमानना का मुकदमा क्यों न दर्ज किया जाय ? ऐसे में अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पड़ताल जरूरी है क्योंकि आज यह आन्दोलन अपने अगले चरण की ओर अग्रसर है और जन आंदोलन की शक्तियाँ वैचारिक और सांगठनिक तैयारी में जुटी हैं।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि तमाम पार्टियाँ सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं। वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे भरने के लिए सिविल सोसाइटी और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे इसी यथार्थ की उपज हैं।

इस आंदोलन में, अन्ना हजारे के व्यक्तित्व और विचार में कमियाँ और कमजोरियाँ मिल सकती हैं। वे गाँधीवादी हैं। खुद गाँधीजी अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद स्वाधीनता आन्दोलन के बड़े नेता रहे हैं। इसी तरह अन्ना हजारे के विचारों और काम करने के तरीकों में अन्तर्विरोध संभव है लेकिन इसकी वजह से उनके आन्दोलन के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। इस आन्दोलन का सबसे बड़ा महत्व यही है कि इनके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद््दा आज केन्दीय मुद्दा बन गया है जिसने समाज के हर तबके को काफी गहरे संवेदित किया है और इसे खत्म करने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं। अन्ना हजारे और उनके आंदोलन की इस उपलब्धि को क्या अनदेखा किया जा सकता है कि 42 सालों से सरकार के ठंढ़े बस्ते में पड़ा लोकपाल विधेयक बाहर आया, उसे मजबूत और प्रभावकारी बनाने की चर्चा हो रही है, और इस पर सर्वदलीय बैठक आयोजित हुई।
हमारे यहाँ ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं जो हर आन्दोलनों से रहते तो दूर हैं, पर सूँघने की इनकी नाक बड़ी लम्बी होती है। हर ओर इन्हें साजिश ही नजर आती है। ये अन्ना द्वारा नरेन्द्र मोदी की तारीफ पर तो खूब शोर मचाते हैं, लेकिन इस सम्बन्ध में अन्ना ने जो सफाई दी, वह इन्हें सुनाई नहीं देता है। किसानों की आत्म हत्या, बहुराष्ट्रीय निगमों का शोषण, चालीस करोड़ से ज्यादा लोगों का गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन के लिए बाध्य किया जाना जैसे मुद्दे तो इन्हें संवेदित करते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जब प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात आती है तो वह उन्हें देश में आजादी के बाद पहली बार अल्पसंख्यक सिख समुदाय के प्रधानमंत्री को अपमानित करने का षडयंत्र नजर आता है। अपनी बौखलाहट में ये अन्ना और सिविल सोसाइटी पर जाँच बैठा कर मुकदमा चलाने की माँग करते हैं। ये इस सच्चाई को भुला बैठते हैं कि प्रधानमंत्री किसी समुदाय विशेष का न होकर वह सरकार का प्रतिनिधि होता है। हमारे इन बौद्धिकों को अन्ना द्वारा किसान आत्महत्याओं पर भूख हड़ताल न करने पर शिकायत है लेकिन किसान आंदोलनों पर सरकार के दमन पर ये चुप्पी साध लेते हैं।

हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार पूँजीवाद की देन है और खासतौर से 1990 के बाद सरकार ने जिन उदारवादी आर्थिक नीतियों पर अमल किया है, उसी का परिणाम है। यह पूँजीवाद लूट और दमन की व्यवस्था है। इसलिए अगर भ्रष्टाचार मिटाना है तो हमें पूँजीवाद और अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के विरुद्ध व्यापक आंदोलन और जागरण का अभियान चलाने की जरूरत है। यही वह जगह है जहाँ भाजपा जैसे दलों के लिए स्पेस नहीं रह जाता है। इस मामले में भाजपा काँग्रेस से बहुत अलग नहीं है। भले ही आज आन्दोलन से तात्कालिक लाभ बटोरने के लिए भाजपा जैसे दल अन्ना को समर्थन दे रहे हों तथा भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलित हों लेकिन जैसे जैसे आंदोलन अपने तीखे रूप में आगे बढ़ेगा, इन्हें हम आंदोलन से बाहर ही देखेंगे।

कहा जा रहा है कि अन्ना हजारे जिस लोकपाल को लाना चाहते हैं, वह संसद और सविधान की अवमानना है। पर सच्चाई क्या है ? हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई मजबूत कानून की व्यवस्था नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो, इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय।

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात को लेकर मतभेद है लेकिन अतीत में प्रधानमंत्री जैसे पद पर जब अंगुली उठती रही है तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है। सर्वदलीय बैठक में कई दलों के प्रवक्ता ने प्रधानमंत्री को इस दायरे में लाने की बात कही है और स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनसे मिलने गये सम्पादकों से कहा कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। फिर समस्या क्या है ? हमारा संविधान भी कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है। अगर भ्रष्टाचार कैसर जैसी असाध्य बीमारी का रूप ले चुका है तो उसका उपाय भी तो उसी स्तर पर करना होगा। ऐसे में सांसदो और राजनीतिक दलों की नैतिकता दांव पर है और सारे देश का ध्यान इस ओर है कि मानसून सत्र में देश का संसद लोकपाल विधेयक पर क्या रुख अपनाता है। इसके पास भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छा शक्ति है या नहीं ?

अन्त में, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लम्बी है। मजबूत और प्रभावकारी लोकपाल का गठन इसका पहला चरण हो सकता है। हम अन्ना हजारे से सहमत हो सकते है, असहमत हो सकते हैं या उनके विरोधी हो सकते है लेकिन यदि हम समझते है कि भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्र, समाज, जीवन, राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहा है तो समय की माँग है कि इस संघर्ष को अन्ना हजारे और उनके चन्द साथियों पर न छोड़कर देश के जगरूक नागरिक, देशभक्त, बुद्धिजीवी, ईमानदार राजनीतिज्ञ, लोकतांत्रिक संस्थाएँं, जन संगठन आगे आयें और इसे व्यापक जन आंदोलन का रूप दें।

एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 09807519227, 08400208031




जनतंत्र भ्रम फैलाने का शासन है



कौशल किशोर

बीते रविवार को सर्वदलीय बैठक में एक मजबूत और प्रभावकारी लाकपाल बिल को संसद के मानसून सत्र में लाने के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर की गई है। तेलुगू देशम सहित कई दलों ने इसके दायरे में प्रधानमंत्री को लाने की बात कही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनसे मिलने गये सम्पादकों से कहा कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। यह सब अन्ना हजारे की माँग का ही नैतिक समर्थन है। भले ही यह मनमोहन सिंह के निजी विचार हैं और इसका सरकार के दृष्टिकोण पर ज्यादा असर न पड़े । फिर भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह देश के प्रधानमंत्री के विचार हैं और जिन मुद्दों को लेकर सरकार और अन्ना हजारे के नागरिक समाज के बीच गतिरोध बना हुआ है, उनमें यह प्रमुख है। ऐसे में प्रधानमंत्री के इस कथन को क्या भावुकता में कही बातें समझी जाय या इसका कोई गंभीर निहितार्थ है ? इसे किस रूप में लिया जाय ?

हाल की घटनाओं ने जिन तथ्यों को उजागर किया है, उसे लेकर आम नागरिक काफी संवेदित है। आमतौर पर कहा जा रहा है कि मौजूदा तंत्र व व्यवस्था भ्रष्ट हो चुकी है। यह सरकार स्वयं कई घोटालों में फँसी है। उसके कई मंत्रियो को इन मामलों में जेल के सीखचों के पीछे जाना पड़ा है। भ्रष्टाचार से संघर्ष करने में सरकार द्वारा जो प्रतिबद्धता दिखाई जानी थी, इस सम्बन्ध में वह कमजोर साबित हुई है तथा लोकपाल बिल लाने के लिए भी वह तब तैयार हुई जब नागरिक समाज के आंदोलन का दबाव बना। और अब वह ऐसा लोकपाल लाना चाहती है जो नख दंत विहिन हो। आज ऐसी बातें आम चर्चा में है। इसने सरकार, कांग्रेस पार्टी तथा मंत्रियों की इमेज को धूमिल किया है।

इस सब के बावजूद इस सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व के बारे में अलग राय व्यक्त की जा रही है। इनके बारे में यही कहा जाता है कि वे स्वच्छ व ईमानदार छवि वाले एक अच्छे इन्सान है। वे कमजोर हो सकते हैं। उनका लोगों से संवाद कम हो सकता है। लेकिन उनके ऊपर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता है। अर्थात भले ही सरकार के पाप का घड़ा भर गया हो लेकिन उसका मुखिया पाक साफ है। सरकार, सŸाा प्रतिष्ठान, कांग्रेस पार्टी, मीडिया, राजनेताओं और बौद्धिकों के बड़े हिस्से द्वारा इसे अवधारणा के स्तर पर प्रचारित व स्थापित किया गया है।


आखिरकार राजनीति की इस परिघटना को किस रूप में देखा जाय ? अगर यह मौजूदा राजनीति की विसंगति है, तो इसकी व्याख्या कैसे की जाय ? मनमोहन सिंह एक ईमानदार व्यक्ति हैं और स्वयं इस विचार के हैं कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में आना चाहिए तो क्या यह कुर्सी मोह या मात्र सŸाा का मोह है जो उन्हें कथित ‘भ्रष्टाचार और घोटालों की सरकार’ का मुखिया बने रहने के लिए बाध्य किये हुए है ? उनकी अपनी नैतिकता क्या कठघरे में नहीं खड़ी है ?

बातें तो इससे भी आगे जाकर कही जा रही हैं कि मनमोहन सिंह की सरकार कठपुतली सरकार है और इसका रिमोट कन्ट्रोल दस जनपथ के पास है। इस सरकार में निर्णय लेने की इच्छा शक्ति नहीं है और मनमोहन सिंह कांग्रेस का असली चेहरा नहीं हैं। इस सबके बावजूद मनमोहन सिंह अपने दल और सरकार में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त करते हैं। सŸााधारी दल की इसके पीछे क्या मजबूरी हो सकती है ?

जहाँ तक सŸाा मोह या कुर्सी मोह की बात है, यह कहना इस विसंगति की सरलीकृत व्याख्या होगी। हकीकत तो यह है कि आज हमारी व्यवस्था राजनीतिक संकटों में फँसी है। सरकार ने जिन अमीरपरस्त नीतियों पर अमल किया है, उनसे अमीरी और गरीबी के बीच की खाई चौड़ी हुई है। सŸाा और सम्पति से बेदखल गरीबों का कोई पुरसाहाल नहीं है। वे लोग जिनके श्रम से देश चलता है, अपने हक और अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं। महँगाई और भ्रष्टाचार से हर तबका त्रस्त है। जनता के पास आज इतनी समस्याएँ है कि वह इसके बोझ के नीचे दब सी गई है। जितनी जटिल समस्याएँ हैं, उतने ही तरह के आन्दोलन भी उठ खड़े हुए हैं।

यह सरकार के लिए कठिन स्थिति है जब उसे एक तरफ अपनी नीतियों व एजेण्डे को अमल में लाना है, वहीं उसे इसका भी ख्याल रखना है कि उसकी विश्वसनीयता जनता के बीच कायम रहे। हमारी राजनीतिक प्रणाली संसदीय जनतंात्रिक है। इसकी यही खूबी है कि जिन मतदाताओं के बूते राजनीतिक पार्टी सरकार बनाती है, उसी के ऊपर उसे शासन करना होता है और आगे शासन में बने रहने के लिए उसे उन्हीं मतदाताओं के पास जाना होता है। संकट उस वक्त आता है जब सरकार की घोषित नीतियाँ तो कुछ और होती हैं, पर अघोषित नतियाँ कुछ और हैं जिन पर वह अमल करती है। ऐसे में इस राजनीतिक प्रणाली की वजह से सŸााधारी दलों और उनकी सरकार को दोहरे दबाव में काम करना होता है। यही उनके चरित्र में भी दोहरापन लाता है।

इब्राहिम लिंकन ने जनतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि यह जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है। लेकिन आज के राजनीतिक संकट के युग में यह परिभाषा बहुत प्रासंगिक नहीं रह गई है। बल्कि आज तो जनतंत्र जनता में भ्रम पैदा करने वाला शासन है जो धूर्तता और पाखण्ड के सहारे चलता है। जनता में अपना विश्वास जमाने, भ्रम पैदा करने तथा उसे अपने पक्ष में करने के लिए शासक दल, उनकी सरकारें जनता के हाव.भाव, जीवन शैली, जनता के नारे व मुद्दे अपना लेते हैं। जनतंत्र में शासक वर्ग के लिए यह जरूरी होता है क्योंकि अपनी इन्हीं तरकीबों से वह अपनी सŸाा को स्थिर करता है तथा अपनी वास्तविक नीतियों को बेरोक.टोक लागू करने में सफल हो पाता है। इंदिरा गांधी इस राजनीति की कुशल खिलाड़ी थी। उन्होंने ‘गरीबी हटाओ, समाजवाद लाओ’ के नारे के साथ देश को तानाशाही का ‘तोहफा’ दिया था। बाद के सŸाधारी दलों और उनकी सरकारों ने इसी तरह के भ्रम पर अमल किया है। आज जब मनमोहन सिंह अपने को लोकपाल के दायरे में लाने की बात करते है तो वे उसी भ्रम को फैला रहे होते हैं तथा इसका मकसद भ्रष्टाचार को लेकर जनता में उभर रहे जन असंतोष को अपने में समायोजित कर लेना है।

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शनिवार, 11 जून 2011

यह अघोषित अपातकाल तो नहीं ?


कौशल किशोर

‘वे डरते हैं/किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन दौलत/गोला.बारूद.पुलिस.फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं/कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग/उनसे डरना बंद कर देंगे’

चार जून की मध्यरात्रि में देश की राजधानी दिल्ली में सरकारी दमन का जो कहर बरपाया गया, उसे देखते हुए गोरख पाण्डेय की यह कविता बरबस याद हो आती है। साथ ही यह सवाल उठ रहा है कि क्या 1975 का इतिहास अपने को फिर से दोहराने जा रहा है?

वह भी जून का महीना था। न सिर्फ मौसम का तापमान अपने उच्चतम डिग्री पर था बल्कि जनविक्षोभ की ज्वाला भी अपने चरम रूप में धधक रही थी। ऐसी ही हालत तथा वह भी काली रात थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लागू किया था। उस वक्त इंदिरा गाँधी के हाथ से सत्ता फिसल रही थी और अपनी कुर्सी को बचाने के लिए उनके पास यही विकल्प बचा था कि वे जनता की आजादी छीन लें, उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का अपहरण कर ले।

आज देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी चार जून की रात की घटना पर यही कह रहे हैं कि उनके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था। अर्थात निहत्थी जनता के विरुद्ध रैपीड एक्शन फोर्स। यह जनता अपनी चुनी सरकार से यही तो माँग कर रही थी कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो, भ्रष्टाचारियों को मृत्यंदण्ड मिले, देश से ले जाये गये काले धन की एक.एक पाई देश में वापस आये, उसे राष्ट्रीय सम्पति घोषित किया जाय और इसका इस्तेमाल समाज कल्याण के कार्यों में हो। जनता यही तो जानना चाहती थी कि काली कमाई जमा किये और काला धंधा करने वाले ये देशद्रोही कौन हैं ?

दरअसल जनता के इन सवालों का भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। भ्रष्टाचार, कालेधन आदि के सवाल को लेकर जो जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ है, उससे वह काफी डरी हुई। देखा गया है कि जनता जब जब निडर होकर शासकों के सामने खड़ी हुई हैं, शासकों ने जनता के अधिकारों पर हमले किये हैं और लोकतंत्र को अपना निशाना बनाया है। 1975 में इंदिरा गाँधी द्वारा आपातकाल का लागू किया जाना जन आंदोलनों से डरी सरकार का ही कृत्य था। आज मनमोहन सिंह भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से काफी भयभीत हैं। इसीलिए रामलीला मैदान में रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल लोगों पर दमन को एक डरी हुई सरकार की कायरतापूर्ण कार्रवाई ही कहा जायेगा।

जहाँ तक हाल के भष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात है, इसने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि ये तमाम सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं।

वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे ही भरने के लिए नागरिक समाज और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे से लेकर रामदेव इसी यथार्थ की उपज हैं। इस आंदोलन में कमियाँ और कमजोरियाँ हो सकती हैं। फिर भी इनके द्वारा उठाये गये भ्रष्टाचार व कालेधन की वापसी जैसे मुद्दों ने नागरिक समाज को काफी गहरे संवेदित किया है और यही कारण है कि इनके आहवान पर बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं।

लेकिन बाबा रामदेव का व्यक्तित्व शुरू से ही विवादित रहा है। अन्ना हजारे ने जब अपना आंदोलन जंतर.मंतर पर खतम किया, उसी समय से बाबा रामदेव की राजनीतिक महत्वकाँक्षा सिर चढ़कर बोल रही थी। इसकी अभिव्यक्ति उनके ढ़ुलमुलपन और अवसरवाद में हो रही थी। कभी तो वे सरकार के साथ मोल.तोल करने वाले बनिया जैसे लगते थे तो कभी नागरिक समाज द्वारा प्रस्तावित विधेयक को कमजोर करने वाले सरकारी प्रतिनिधि नजर आते थे। उन्होंने लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री और न्यायाधीशों को जाँच के दायरे में शामिल न किये जाने की बात करके सरकार को खुश करने की कोशिश भी की थी। जहाँ अन्ना हजारे ने अपने आन्दोलन को स्वायत बनाये रखा था तथा स्थापित राजनीतिक दलो से इसकी दूरी थी, वहीं रामदेव ने अपने मुहिम के लिए भाजपा और संघ परिवार के नेटवर्क का इस्तेमाल किया।

इस सबके वावजूद पुलिसिया दमन और आतंक को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर हमले ने एक बात साबित कर दिया है कि यह सरकार कारपोरेट हितों के विरुद्ध किसी भी असली या नकली प्रतिरोध को झेल नहीं सकती। एक और बात, चार जून की कार्रवाई को मात्र रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दमन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। अब तो सरकार ने किसी भी आंदोलन, धरना व प्रदर्शन पर दमन का रास्ता साफ कर दिया है। अपने इस कृत्य के द्वारा वह जन आंदोलनों को संदेश भी देना चाहती है कि उनसे निपटने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।

इसीलिए दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी गयी है और हर तरह के धरना.प्रदर्शन पर रोक लगा दिया गया। अपना विरोध जताने और अपनी मांगों को बुलन्द करने के लिए जनता दिल्ली नहीं पहुँच सकती। यदि किसी तरह पहुँच भी गयी तो वहाँ उसके स्वागत के लिए लाठी, आंसूगैस, पानी की तेज बौछारें और जेल है। बहुत हुआ तो आप राजघाट पर उपवास कर सकते हैं। पर यह भी सरकार की इच्छा पर निर्भर है। देश के कई हिस्सों में चल रहे किसान आंदोलन, आदिवासियों के आंदोलन तथा बड़ी देशी.विदेशी पूँजी के दोहन के खिलाफ चल रहे आंदोलनों पर तो सरकारी दमन पहले से ही जारी है। अब देश की राजधानी दिल्ली इसका अपवाद नहीं बनी रह सकती। उसे देश के अन्दर के भागों में मौजूद ‘लोकतंत्र’ का आईना बनना ही है।

ऐसे में चार जून की रात की घटना के दमनकारी अभिप्राय को कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। क्या यह अघोषित आपातकाल जैसी हालात नहीं है? ऐसा अघोषित आपातकाल जिसमें देश में संविधान, लोकतांत्रिक ढाँचा, संसदीय व्यवस्था, चुनी हुई सरकार हो, पर विरोध और असहमति की जगहें न हो। ऐसा लोकतंत्र जिसका ढ़िढ़ोरा सारी दुनिया में खूब जोर.शोर से पीटा जाय पर जिसकी संस्कृति हो -ं बर्दाश्त करिये और चुप रहिए, अपने को बचाकर चलिए और दुम हिलाइये। जन आंदोलनों से घिरी और दमन पर उतारू सरकार ने क्या यही हालत नहीं पैदा कर दी है ?

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गुरुवार, 12 मई 2011

लोकरंग - 2011 भड़ैती व फूहड़पन के विरुद्ध जन संस्कृति का अभियान





कौशल किशोर

हमारे यहाँ लोक संस्कृति की समृद्ध परम्परा रही है, पर आज इसे शक्तिविहीन कर लोकरुचि को नष्ट. भ्रष्ट करने का माध्यम बनाया जा रहा है। इसे फूहड़पन, अश्लीलता, भड़ैती का पर्याय बनाकर परोसा जा रहा है। उŸार प्रदेश के पूर्वांचल से लेकर इससे सटे बिहार तक फैली पट्टी में इसी से भोजपुरी की पहचान बनाई जा रही है। अश्लील भोजपुरी फिल्मों और गानों की तो जैसे बाढ़ आ गई है। बाजार की शक्तियों ने लोकगीतों को अपने मुनाफे का साधन बना दिया है। सरकार की लोक सांस्कृतिक नीति भी यही है कि इसे बाजार की वस्तु बना दिया जाय, देश व दुनिया के बाजार में माल की तरह या सरकारी आयोजनों में दिखावे व प्रदर्श
न की वस्तु बनाकर पेश किया जाय।

ऐसे में इस अपसंस्कृति का प्रतिरोध व विकल्प के बतौर लोक संस्कृति के जन सांस्कृतिक मूल्यों के संवर्द्धन के लिए ‘लोकरंग’ का आयोजन पूर्वांचल की इस पट्टी में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक घटना है जो गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर से कोई बीस किलोमीटर दूर जोगिया जनूबा पट्टी, फाजिलनगर में पिछले चार सालों से आयोजित हो रहा है। सांस्कृतिक भड़ैती व फूहड़पन के प्रभाव वाले इस क्षेत्र में हिन्दी कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा के संयोजन में लोकरंग सांस्कृतिक समिति के इस अभियान से परिवर्तन की नई लहर को महसूस किया जा सकता है, खासतौर से इसने नौजवानों में नई संस्कृतिक चेतना पैदा की है और देश के संस्कृतिप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित किया है। यही कारण है कि देश के कई प्रान्तों से संस्कृतिकर्मी, लेखक व कलाकार यहाँ जुटते हैं, नाट्य व गायन मंडलियाँ यहाँ आती हैं और इस लोक सांस्कृतिक अभियान में हर साल नया रंग भरती
हैं।

इसी क्रम में बीते 26 व 27 अप्रैल को दो दिवसीय लोकरंग-2011 का आयोजन हुआ जिसमें विविध लोककलाओं, लोकगीतों, नाटकों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रदर्शन किया गया। पूर्वी उŸार प्रदेश के विद्रोही स्वर रामाधार त्रिपाठी ‘जीवन’ (1903-1977) की याद को समर्पित इस बार के ‘लोकरंग’ की खासियत यह थी कि यह आयोजन गाँव में नवनिर्मित परिसर तथा मुक्ताकाशी मंच पर हुआ। यह परिसर कलाकारों के लिए सारी सुविधाओं से सुसज्जित था। यहाँ कलाकारों के ठहरने से लेकर उनके सजने-संवरने की व्यवस्था थी। नये परिसर का निर्माण कोई सामान्य सी घटना नहीं है, यह उस संकल्प व प्रतिबद्धता का प्रतीक है जो अपसंस्कृति के विरुद्ध संघर्ष के जज्बे से पैदा हुआ है। यह इस बात का भी प्रतीक बनकर उभरा है कि कोई चार साल पहले पूर्वांचल में गायन, वादन, नृत्य, नाटक, साहित्य आदि के लोककला रूपों के प्रदर्शन के माध्यम से जो यात्रा शुरू हुई थी, उसने सघनता और स्थाईत्व ग्रहण कर लिया है।

लोकरंग-2011 का उदघाटन हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक व जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ मैनेजर पाण्डेय ने किया। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि लोक संस्कृति में लोक की ताकत, आपस में जोड़ने की श्क्ति, गति और वातावरण को अपने में समेटने की क्षमता होती है। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से लोककलाएँ भाषा व बोलियों की दीवार को तोड़ देती हैं तथा इसकी गूँज दूर.दूर तक सुनी व समझी जाती हैं। विद्यापति मैथिली के कवि हैं, मीरा बाई राजस्थान की हैं लेकिन इन्हें देश के हर हिस्से में सुना व समझा जाता है। लोककलाएँ हमें गतिशील बनाती हैं। जहाँ हम हैं, उससे ऊपर उठाती हैं तथा बेहतर मनुष्य बनाती हैं। अपने इन्हीं मानवीय मूल्यों की वजह से आज भी लोक संस्कृति और लोक कला हमारे लिए प्रेरक व मूल्यवान हैं। लेकिन आज बाजार की शक्तियाँ लोककलाओं को निगल जाना चाहती हैं। ऐसे में ‘लोकरंग’ जैसे कार्यक्रम लोककलाओं को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मैनेजर पाण्डेय ने इस मौके पर प्रकाशित ‘लोकरंग -2’ पुस्तक तथा
लोकरंग-2011 स्मारिका का लोकार्पण भी किया।

मैनेजर पाण्डेय ने लोक संस्कृति की जिन विशेषताओं की चर्चा अपने सम्बोधन में की, उसकी झलक लगातार लोकरंग के कार्यक्रम में मिलती रही। कार्यक्रम की शुरुआत जोगिया जनूबा पट्टी गाँव की महिलाओं के सोहर व कजरी गायन से हुआ। यहाँ परदे में रहने वाली गाँव की महिलाओं के अन्दर कीं दबी.छिपी कला अभिव्यक्त हो रही थी - ‘रिमझिम बरसेला सवनवा, नाहीं अइने मोहनवा ना.....’। मीरा कुशवाहा और उनके साथियों के गीत में जहाँ विरह वेदना थी, वहीं हिरावल, पटना के कलाकार सुमन कुमार और साथियों ने गोरख पाण्डेय के गीत ‘एक दिन राजा मरले आसमान में उड़त मैना...’ और ‘जनता के आवे पलटनिया हिलेला झकझोर दुनिया....’ सुनाकर दुनिया को बदल देने वाली जन की शक्ति से परिचित कराया। जौरा बाजार के चिंतामणि प्रजापति और उनके साथियों द्वारा खजड़ी वादन तथा निर्गुन गायन प्रस्तुत किया गया। अंटू तिवारी ने भोजपुरी गीतों के द्वारा अपनी माटी से श्रोताओं को रु-ब-रु कराया।

जहाँ पिछले साल लोकरंग में छŸाीसगढ़ व बुंदेलखण्ड की लोक संस्कृतियों की छटा बिखरी थी,
वहीं इस बार अवधी लोक समूह, फैजाबाद द्वारा प्रस्तुत फरुवाही नृत्य ने तो सभी को रोमांचित कर दिया। शीतला प्रसाद वर्मा के निर्देशन में तैयार इस नृत्य में कलाकारों की गति व लयबद्धता सभी को मंत्रमुग्ध कर देने वाली थी। गौरतलब है कि यह नृत्य फसल के तैयार होने और कटाई के समय किया जाता है। लोकरंग के इस आयोजन में जहाँ दर्शकों ने महोबा शैली में चन्द्रभान सिंह यादव और उनके साथियों के आल्हा गायन का आस्वादन किया, व
हीं बुन्देली कछवाहा समाज द्वारा अवधूती शब्दों के गायन का आनन्द लिया। देवी दयाल कुशवाहा, रामरती कुशवाहा और उनके साथियों द्वारा पेश किये इस गायन का नेतृत्व डॉ0 रामभजन सिंह ने किया। इस तरह लोकरंग के इस आयोजन में एक साथ न सिर्फ भोजपुरी बल्कि अवघी और बुन्देली लोक गायन व कला का प्रदर्शन हुआ।

लोकरंग के मंच पर लोगों को लोक कलाकर भिखारी ठाकुर का नाटक भी देखने को मिला। अवसर था संजय उपाध्याय के निर्देशन में निर्माण कला मंच पटना की नाट्य प्रस्तुति ‘बिदेसिया’। लोक नाट्य विधा की यही खूबी है कि इसमें सिर्फ कथ्य, संवाद व अभिनय ही नहीं होता, यहाँ गायन, स्वर, नृत्य, एक्शन, भाव आदि का भी समिश्रण होता है। यह सब ‘बिदेसिया’ में था। नाटक खत्म होने के बाद भी लोगों के दिलो-दिमाग
पर बिदेसिया के दृश्य गूँजते रहे। आज भी यह कहानी उन्हें अपनी लग रही थी। भले ही कल युवक अपनी रोजी-रोटी की तलाश में कलकŸाा जैसे शहर जा बिदेसिया बन जाते थे और उसके मायाजाल में फँस जाते थे, पर पलायन की यह प्रवृŸिा आज भी जारी है। युवकों का विदेश की ओर तेजी से पलायन आज भी हो रहा है। ब्रेन माइग्रेशन की यही
कहानी है भिखारी ठाकुर के ‘बदेसिया’ की। कलाकारों के उत्कृष्ट अभिनय, संवाद, नृत्य, गायन ने ऐसा समा बाँधा था कि लोग कह उठे - ‘हमहूँ देखली भिखारी के तमाशा’। लोग जिन्होंने भिखारी ठाकुर का नाम सुन रखा था, पar उनकी कला से परिचय नहीं था, उनके लिए भिखारी और उनकी कला सजीव हो उठी थी।

ऐसा ही भाव निर्माण कला मंच की दूसरी नाट्य प्रस्तुति ‘हरसिंगार’ में भी देखने को मिला। संजय उपाध्याय के निर्देशन में मंचित यह नाटक इस बात को सामने लाता है कि बाजारवाद ने हमारे समाज के हर महत्वपूर्ण पद को, रिश्तों को सतही बना दिया है। यह नाटक अपने बिखरे वितान में इसी पतनशील प्रवृŸिा को टटोलने की कोशिश करता है। पारम्परिक लोक नाट्य ‘डोमकच’ के हरबिसना व हरबिसनी की यह कथा छल-फरेब में फँसती है। ये ठगी का शिकार होते हैं। यह कथा स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के कई अनछुए पहलुओं को उजागर करती है और अंततः जीवन के जीत की गाथा में बदल जाती है।

लोकरंग के आयोजन की खासियत रही है कि यहाँ न सिर्फ लोककलाओं के विविध कार्यक्रम होते हैं बल्कि इनके साथ-साथ लोक संस्कृति की वैचारिकी पर भी चर्चा होती है। जहाँ पिछले साल विचार गोष्ठी का विषय था ‘लोकगीतों की प्रासंगिकता’, वहीं इस बार चर्चा का विषय था ‘लोक संस्कृति में मिथ की प्रासंगिकता’। इस गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि मिथक, लोककथा, लोकगाथा, लोक रीति, लोक विश्वास, लोकरुचि, लोक रीति-रिवाज आदि सब एक नहीं है। इनका अलग-अलग रूप व अर्थ है। मनुष्य का सबसे पहले सामना सूरज से हुआ। इसे लेकर मिथ की रचना हुई, चाहे बोध कृतज्ञता से हुई हो या भय से। इसी तरह तमाम कथाएँ रची गईं। कथा तो स्वाभाव से मिथकीय होती है। मिथकों के आधार पर ही महाकाव्यों की रचना हुई। देवता का बनाना भी मिथकीय क्रिया है।

मैनेजर पाण्डेय ने इतिहास से मिथकों के गहरे रिश्ते को समझने पर जोर देते हुए कहा कि मिथकों को बेवजह महिमा मंडित करने की जरूरत नहीं है। बल्कि ज्यादा जरूरी है कि मिथकों का वर्गीय आधार पर विश्लेषण किया जाय। आधुनिक सŸाा ने भूमण्डलीकरण का मिथक कि इसका कोई विकल्प नहीं, विचारधारा का अंत हो गया है जैसे मिथक गढ़े हैं। देश की सरकार भी आज विकास का मिथक गढ़ रही है और इसका आईना दलाल स्ट्रीट मुम्बई का सूचकांक है। सŸाा लोक की धन सम्पदा का ही अपहरण नहीं करती बल्कि वह संस्कृति और दिमाग पर भी कब्जा करने की कोशिश करती है। इसलिए मिथकों पर कब्जा करने की राजनीति पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। सŸाा ने लोक संस्कृति व मिथकों की पहले उपेक्षा की, विरोध किया और इससे काम नहीं चला तो उन्हें विकृत कर दिया। हमें लोक संस्कृति के प्रति आलोचनात्मक, यथार्थवादी और विवेकपूर्ण नजरिया अपनाने की जरूरत है। जिस ‘लोक’ की चर्चा है, वह वास्तव में अंग्रेजी के ‘फोक’ का अनुवाद है। हमें लोक के बदले जन शब्द पर बल देने की जरूरत है। जन संस्कृति का मुख्य आधार प्रेम, स्वतंत्रता, समता और अन्याय का प्रतिकार रहा है। जन संस्कृति की हर रचनाशीलता में ये तत्व मिलेंगे।

वरिष्ठ लेखक डॉ तैयब हुसैन ने विषय प्रवर्तन किया तथा गोष्ठी को मिथ के समाजशास्त्र पर काम करने वाले डॉ गोरे लाल चंदेल, हिन्दी कवि दिनेश कुशवाहा, युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी, डॉ प्रफुल्ल कुमार सिंह ‘मान’, कथाकार मदन मोहन, पत्रकार अशोक चौधरी, रंगकर्मी सुधांशु कुमार चक्रवर्ती आदि ने भी सम्बोधित किया। वक्ताओं का कहना था कि मिथक चाकू की तरह है। यदि किसी डॉक्टर के हाथ लग जाय जान बचा देगा लेकिन किसी हत्यारे के हाथ में आ जाय तो वह जान ले लेगा। लोक संस्कृति में सबकुछ ठीक नहीं है। इसमें से अपने हित की बात को लेना होगा। अप संस्कृति और जन संस्कृति में सदियों से टकराव रहा है। सबसे ज्यादा मिथकों का निर्माण दलितों ने किया है। मिथक लोकजीवन में ऐसे रचे.बसे हैं कि इनसे छेड़.छाड़ लगभग नामुमकिन है। मिथक जब निर्मित हो जाते हैं तो ये सत्य से भी ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हैं।

वक्ताओं का कहना था कि लोक संस्कृति और मिथ दोनों ‘जल में कुंभ’, कुंभ में जल’ की तरह है। पौराणिक मिथ ज्यों का त्यों लोकमिथ में नहीं आता। लोक संस्कृति में मिथ लोक को ऊर्जा एवं शक्ति देता है। जो मिथ लोक के जीवन के लिए उपयोगी नहीं है, वह मिथ लोक से बाहर हो जायेगा। उदाहरण के लिए ‘गउरा उत्सव’ को लिया जा सकता है। शिव पार्वती विवाह लोक संस्कृति में गउरा उत्सव का रूप लेता है जिसमें समाज के हर हिस्से से अलग अलग वस्तुएँ इक्ट्ठा की जाती है और ‘जागो गौरी, जागो गौरा, जागो लोगा...’ से उत्सव आगे बढ़ता है। लोक संस्कृति की यही विशेषता है कि इसमें सामूहकिता की संस्कृति है। पौराणिक नायक ‘ही मैन’ होता है, वहीं लोक नायक अपने में समह की ताकत को समाहित करके चलता है।

‘लोकरंग’ के दो दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संचालन कवि दिनेश कुशवाहा ने तथा विचार गोष्ठी का संचालन कवि व जसम लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने किया। धन्यवाद ज्ञापन दिया हिन्दी कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा ने। इस अवसर पर लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने कलाकारों, साहित्यकारों आदि को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित भी किया। लेनिन पुस्तक केन्द्र, लखनऊ तथा गोरखपुर ्िफल्म फेस्टिवल की ओर से इस मौके पर बुक स्टॉल भी लगाया गया। जोगिया के स्त्री-पुरुषों ने जिस तरह से गाँव को सजाया था, वह उनके अन्दर अपनी संस्कृति के प्रति लगाव को दिखाता है। पूरे गाँव के रास्तों से लेकर डेहरियों व बखारों को सुन्दर कलाकृतियों से सजाया गया था। नागार्जुन, फैज, शमशेर, केदार, धूमिल, मुक्तिबोध, गोरख पाण्डेय, वीरेन डंगवाल आलोक धन्वा आदि कवियों की कविताओं के पोस्टर हर आने वालों को अपनी ओर बरबस खींच रहे थे। लोकरंग ने जोगिया को लोककला के गाँव में बदल दिया था।

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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

यह दलित विरोधी पत्रकारिता है


कौशल किशोर

हमारी पत्रकारिता का हिन्दूवादी.ब्राहमणवादी चेहरा अक्सरहाँ हमें दिख जाता है। सामान्य स्थितियों में तो यह आधुनिक, प्रगतिशील, निष्पक्ष, लोकतांत्रिक होने का स्वाँग करता हुआ हमें दिखता है। लेकिन जब भी इसके अन्तर्मन पर चोट पड़ती है या जब भी इसके अन्दर बैठे किसी ब्रहमण या सवर्ण पर प्रहार होता है तब यह तिलमिला उठता है। ऐसे में इसकी सारी बड़ी बड़ी बातें धरी की धरी रह जाती हैं। लखनऊ में हुए दलित नाट्य महोत्सव में हमें पत्रकारिता का ऐसा ही चेहरा देखने को मिला।
लखनऊ में डॉ अम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल 2011 से यहाँ दलित नाट्य महोत्सव शुरू हुआ जो 16 अप्रैल तक चला। इस महोत्सव का आयोजन शहर की सामाजिक संस्था अलग दुनिया ने किया था। इसके अन्तर्गत तीन नाटक दिखाये गये। 14 अप्रैल को राजेश कुमार का लिखा ‘अम्बेडकर और गाँधी’ का मंचन दिल्ली की संस्था अस्मिता थियेटर ग्रूप ने किया। इसका निर्देशन जाने.माने निर्देशक अरविन्द गौड़ का था। दूसरे दिन मराठी लेखक प्रेमचंद गज्वी का लिखा नाटक ‘महाब्राहमण’ का मंचन मयंक नाट्य संस्था, बरेली ने किया। इसका निर्देशन राकेश श्रीवास्तव ने किया था। समारोह के अन्तिम दिन 16 अप्रैल को राजेश कुमार द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक ‘सत भाषे रैदास’ का मंचन शाहजहाँपुर की संस्था अभिव्यक्ति ने किया। नाट्य प्रर्दशन के दौरान चचा.परिचर्चा भी होती रही जो दलित रंगमंच की जरूरत क्यों है, इस रग आंदोलन की दिशा क्या हो, जन नाट्य आंदोलन से इसका रिश्ता क्या है आदि विषय पर केन्द्रित थी। वरिष्ठ नाट्य निर्देशक सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, आलोचक वीरेन्द्र यादव, दलित चिन्तक अरुण खोटे, राजेश कुमार, कुष्णकांत वत्स आदि ने इस चर्चा में भाग लिया।
इन नाटकों ने धर्म, अस्पृश्यता, वर्णवादी व्यवस्था, गैरबराबरी, समाजिक शोषण, ब्राहमणवाद जैसे मुद्दों को उठाया और इस बात को रेखांकित किया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान व कानून का शासन होने के बावजूद आज भी समाजिक तौर पर ऐसे मूल्य मौजूद हैं जो शोषण व उत्पीड़न पर आधारित हैं तथा मनुष्य विरोधी हैं। आज की सŸाा द्वारा ये संरक्षित भी हैं। इस व्यवस्था को बदले बिना दलितो.शोषितों की मुक्ति संभव नहीं है। चेतना और प्रतिरोध पर केन्द्रित इस नाट्य समारोह का यही मूल सन्देश था। इस आयोजन की एक खासियत यह भी देखने में आई कि नाटकों को देखने बड़ी संख्या में लोग आये। ये दर्शक नाटक देखा और चल दिये से अलग और लखनऊ रंगमंच के पारम्परिक दर्शकों से भिन्न थे। तीन दिनों तक हॉल भरा रहा बल्कि काफी दर्शकों को जगह न मिलने पर वे सीढ़ियों पर बैठकर या खड़े होकर नाटक देखा। नाटक और उसकी थीम से उनका जुड़ाव ही कहा जायेगा कि नाटक खत्म होने के बाद भी विचार विमर्श, बहस.मुबाहिसा, बातचीत का क्रम चलता रहा । यह एक नई बात थी जो इस समारोह में देखने को मिली।
यह नाट्य समारोह लखनऊ में पहली बार आयोजित हो रहा था। हिन्दी प्रदेश में इस तरह का यह पहला दलित नाट्य समारोह का आयोजन था। इस आयोजन के प्रचार के लिए आयोजकों द्वारा प्रेस कान्फ्रेन्स बुलाया गया। उस प्रेस वार्ता में डेढ़ दर्जन से अधिक अखबारों के प्रतिनिधि आये। उन्होंने आयोजकों से दलित नाटकों को लेकर कई सवाल भी किये और उन्होंने प्रेस प्रतिनिधियों को संतुष्ट भी किया। आयोजकों की ओर से प्रेस विज्ञप्ति भी बाँटी गई जिसमें इस आयोजन के पीछे क्या उद्देश्य है से लेकर इस दलित नाट्य महोत्सव में कौन कौन से नाटकों का प्रदर्शन होगा का विस्तार से उल्लेख था। लेकिन दूसरे दिन यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि किसी अखबार ने दलित नाट्य महोत्सव का कोई समाचार नहीं छापा था। आखिर अखबार के इस रवैये के बारे में क्या कहा जाय ? अखबार के इस रुख को देखकर कुछ ही दिन पहले लखनऊ में ‘मीडिया और दलित’ विषय पर आयोजित सेमिनार की याद हो आई। उक्त सेमिनार की खबरें भी अखबार से गायब थीं। यह अनायास नहीं हुआ है बल्कि उस दलित विरोधी मानसिकता की वजह से हुआ है या हो रहा है जो हिन्दी प्रदेशों के समाचार पत्रों में जड़ जमाये बैठा है।
ल्ेकिन तीन दिनों तक चले इस नाट्य समारोह में दर्शकों की भागीदारी और प्रस्तुति की श्रेष्ठता का दबाव ही था कि लखनऊ के अधिकांश अखबारों द्वारा इस समारोह की उपेक्षा नहीं की जा सकी, भले ही इसकी रिपोर्ट छापने के साथ अपनी ओर से उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ भी प्रकाशित की। इस मामले में अंग्रेजी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के लखनऊ ने तो हद ही कर दी। इस अखबार ने नाटकों की कथावस्तु, निर्देशन, अभिनय, संगीत आदि विविध पक्षों पर एक शब्द नहीं लिखा तथा उसकी कोई रिपोर्ट या समीक्षा प्रकाशित नहीं की। बेशक अखबार के रिपोर्टर ने इस नाट्य समारोह को ‘स्टेजिंग ए नेम गेम’ शीर्षक से एक बड़ी सी खबर जरूर प्रकाशित की। इसे खबर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मात्र दलित विरोधियों व सामाजिक सरोकार से दूर कलाकारों के विचार थे। ये विचार जरूर गौरतलब हैं। इनका कहना था कि दलित के नाम पर नाटक समारोह का आयोजन जनता के साथ मजाक है, यह राखी सावंत जैसे सस्ते प्रचार का तरीका है। इसके माध्यम से रंगमंच के क्षेत्र में जातिवाद को बढ़ाना है तथा रंगमंच को विभाजित कर दलित के नाम पर बनी मौजूदा सरकार से लाभ लेना है। आयोजकों के इस तरह के आयोजन के पीछे मात्र निहित स्वार्थ है।
इस दलित नाट्य समारोह पर ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में जिनकी टिप्पणियाँ प्रकाशित की गई, ये वे कलाकार व निर्देशक हैं जो लगातार नाटक में विचार व राजनीति का विरोध करते हैं और नाटक में कलावाद के पक्षपोषक हैं। इनकी इस कलावादी अवधारण के विरुद्ध लखनऊ रंगमंच में विवाद व बहस भी जारी है। इन दक्षिणपंथी कलाकारों का दलित विरोधी होना और दलित नाट्य समारोह का विरोध करना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन जब इप्टा जैसी प्रगतिशील नाट्य संस्था से जुड़े कलाकार व निर्देशक इनके साथ एकताबद्ध हो जाते हैं, तब हमें समझना जरूरी है कि ब्राहमणवादी मानसिकता कितने गहरे हमारे अन्दर जड़ जमाये बैठी हुई है जो हर कठिन समय में प्रगतिशीलों में उभर कर सामने आ जाती है। इस मायने में कहा जाय तो यह दलित नाट्य समारोह की सफलता ही है कि उसने बहुतों की नकली प्रगतिशीलता का पर्दाफाश किया है।
यहाँ इस तथ्य का उल्लेख जरूरी है कि इस नाट्य समारोह में जिस ‘सत भाषै रैदास’ नाटक का मंचन हुआ, उसे प्रदेश सरकार के संस्कृति निदेशालय ने मंचन को पिछले साल प्रदेश सरकार ने रोक दिया था क्योंकि इस नाटक में रैदास का जो सामंतवाद व ब्राहमणवाद विरोधी रूप उजागर किया गया था, उससे प्रदेश की मौजूदा सरकार की समरसता की अवधारणा पर चोट पड़ती थी। इस समारोह में उस नाटक का प्रदर्शन मौजूदा सŸाा के उस संस्कृतिविरोधी रवैये का प्रतिवाद था।
किसी नाटक या किसी नाट्य समारोह को लेकर सवाल उठाना, इसके मुद्दो पर बहस व वाद.विवाद संचालित करना कहीं से गलत नहीं है। यह होना भी चाहिए। लेकिन नाटक को लेकर एक शब्द नहीं, मात्र कुछ लोगों के एकाँगी विचारों को प्रकाशित करना, दूसरे पक्ष के विचारों को सामने न आने देना तथा आयोजनकर्ता संस्था के बारे में गलत तथ्य पेश करना - यह कौन सी पत्रकारिता है ? यह सारा अभियान क्या अस्वस्थ व दलित विरोधी मानसिकता की उपज नहीं है ?
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रविवार, 10 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे की आगे की राह आसान नहीं





कौशल किशोर


अन्ना हजारे द्वारा शुरू किये गये आंदोलन के आगे सरकार इतनी जल्दी घुटने टेक देगी, अन्ना अपना अनशन खत्म कर देंगे और जनता जीत जायेगीे, यह सब बड़ा अविश्वसनीय सा लग रहा है। अभी तो आंदोलन अपने आरम्भिक चरण में था। लोग जाग रहे थे, जुड़ रहे थे। लोगों का अन्तर्मन करवट ले रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था कि 1974 अपने को दोहराने जा रहा है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो ‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए’, अभी तो भगीरथ प्रयास शुरू हुए थे। हमें बाबा नागार्जुन की याद आ रही थी। उनकी कविताएँ जबान पर थी - ‘हे देवि, तुम तो काले धन की वैशाखी पर टिकी हुई हो’ या ‘लूट पाट के काले धन की करती रखवाली, पता नहीं दिल्ली की देवी गोरी है या काली’। उस वक्त इंदिरा निरंकुशता जनता के निशाने पर थी और आज मनमोहन सिंह की सरकार व मौजूदा राजनीतिक तंत्र। कल जनता की अगुवाई करते जेपी थे और आज अन्ना हजारे।

ये अन्ना हजारे कौन ?’ जब आंदोलन शुरू हो रहा था, उस वक्त कई मित्रों ने यही सवाल किया था। लोग अन्ना हजारे को ज्यादा नहीं जानते थे। लेकिन आंदोलन का अभी तीन दिन भी नहीं बीता होगा, वे सभी इस अभियान में ंशामिल थे। वे इतने जोश से भरे थे कि अपने सिर पर जो टोपी उन्होंने पहन रखी थी, उस पर लिखा था ‘मैं हूँ अन्ना हजारे’। यहीं नहीं कई मित्रों ने तो अपना सिर तक मुंडन करा उस पर पेंट से यही लिखवा दिया था। ऐसा ही आंदोलनात्मक ताप चारो तरफ महसूस किया जा रहा था। महिलाएँ घरों से बाहर आ रही थीं। छात्र.नौजवान स्कूल कॉलेजों से, वकील, शिक्षक, बौद्धिक, दफ्तर के कर्मचारी, आम आदमी, जिधर से देखो उधर से लोग आ रहे थे और आंदोलन से जुड़ते जा रहे थे। क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत और आई पी एल खबरों से बाहर हो गया था। यदि कही चर्चा थी तो सिर्फ अन्ना की। अन्ना हजारे सरकारी लूट और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रतीक बन गये थे। जो हो रहा था, वह बहुत स्वतः स्फूर्त था और आंदोलन व्यापक व सघन होने की ओर बढ़ रहा था। लेकिन अभी सौ घंटे भी पूरे नहीं हुए थे कि आंदोलन में ब्रेक लग गया। जंतर.मंतर से अन्ना हजारे ने घोषणा की कि सरकार ने उनकी सारी माँगे मान ली है और यह जनता की जीत है। ऐसे में जनता का अपनी जीत के जश्न में डूब जाना स्वाभाविक है। पूरे देश में पटाखे फूटे, नाच.गाना हुआ और इस तरह जीत का जश्न मनाया गया।

यह आंदोलन इतनी जल्दी अपनी मंजिल पर कैसे पहुँच गया ? जहाँ छोटे से छोटे आंदोलन के प्रति सरकार का रुख उपेक्षापूर्ण यहाँ तक कि बर्बर भी रहा है। इरोम शर्मिला का पिछले ग्यारह साल से जारी भूख हड़ताल इसका ताजातरीन उदाहरण है। फिर इस आंदोलन के प्रति इतना दरियादिली कहाँ से ? इस पहेली की गाँठ को खोला जाय तो एक बात समझ में आती है कि इस आंदोलन को लेकर शुरू से ही सरकार अत्यधिक सजग थी। इसके पीछे एक वजह यह हो सकती है कि वह जानती थी कि भ्रष्टाचार को लेकर उसकी काफी बदनामी और छवि धूमिल हो चुकी है। इस छवि को और अधिक खराब न होने दिया जाय। भाजपा जो अवसर की ताक में है, उसे इस आंदोलन से कोई स्पेस न मिले। दूसरी बात कि वह अन्ना हजारे के आंदोलनात्क व्यक्तित्व से अच्छी तरह परिचित थी। वह सरकार के लिए क्या संकट पैदा कर सकते हैं, इसका मूल्यांकन भी था। इसीलिए आंदोलन के पहले दिन से ही सरकार ने बातचीत के दरवाजे खोल दिये थे और जैसे.जैसे आंदोलन बढ़ता रहा, बातचीत भी आगे बढ़ती रही। दोनों तरफ से सुलह.समझौतें की कोशिशें भी चलती रही।

गौरतलब है कि अन्ना हजारे का यह आंदोलन भी मुख्य तौर से एक ही मुद्दे, जन लोकपाल विधेयक पर केन्द्रित था। उनके मुद्दे में हाल के दिनों में हुए घोटालों को लेकर कोई कारगर कार्रवाई करने जैसा मुद्दा शामिल भी नहीं था जिसे मानना सरकार के लिए ज्यादा कठिन होता। यही कारण था कि वार्ता में कोई ज्यादा गतिरोध उत्पन्न नहीं हुआ और दोनों पक्ष बहुत जल्दी समझौते पर पहुँच गये। कहा जा सकता है कि सरकार इस आंदोलन को मैनेज करने में सफल रही है। अन्ना हजारे और स्वामी अग्निवेश भी यह कहते हुए देखे गये कि हमने जो चाहा था, उससे कही ज्यादा सरकार ने दिया है और यह जनता की जीत हैं। वहीं सरकार भी अपना पीठ ठोक रही है और इसे लोकतंत्र की जीत बता रही है। सरकार का भी इस समझौते से प्रमुदित होना लाजमी है क्योंकि उसने भारतीय लोकतंत्र के लचीलेपन का परिचय दिया है। उसने साबित किया है कि भारतीय लोकतंत्र में अब भी अपने विरोध को समायोजित करने की क्षमता मौजूद है।

जहाँ तक लूट और भ्रष्टाचार का सवाल है, यह हमारे देश के लिए कोई नई चीज नहीं है और इसके खिलाफ जन आक्रोश व आंदोलन का होना भी कोई नई बात नहीं है। बेशक आज नई बात यह है कि यह मामला महज सरकारी दफ्तरों में किसी अधिकारी या मंत्री के घूस लेने भर तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि इसने संस्थाबद्ध भ्रष्टाचार का रूप ले लिया है, जो इस व्यवस्था और राजनीतिक तंत्र की देन है और जिसमें तमाम रंग.बिरंगी सरकारें, सेना और प्रशासनिक अधिकारी, मंत्री, मीडिया के लोग शामिल हैं। इससे पूरा राष्ट्रीय जीवन प्रदूषित हो गया है और आम आदमी त्रस्त है। रही बात भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तो शायद ही कोई दिन हो जब लूट और भ्रष्टाचार के खिलाफ धरना, प्रदर्शन न हो रहा हो। छोटे.छोटे शहरों से लेकर दिल्ली तक में बड़ी बड़ी रैलियाँ हो रही हैं। यहाँ तक कि गाँव.गाँव से, जंगल व आदिवासियों की ओर से विरोध के प्रबल स्वर उठे हैं। चाहे टाटा का कलिंगनगर हो, पोस्को, नियमगिरि इन तमाम जगहों में किसानों का तीखा प्रतिरोध जारी है।

पर अन्ना हजारे के आंदोलन की खासियत यह रही कि यह आंदोलन हमारे नागरिक समाज के उस हिस्से को आंदोलित करने में सफल रहा है जो राजनीति से दूरी बनाकर चलता हैं। मौजूदा राजनीति में बढ़ती सड़ांध ने नागरिक समाज में राजनीति के प्रति उदासीनता पैदा की है और आज हालत यह है कि उसका सभी राजनीतिक दलों से करीब करीब मोहभंग हो चुका है। ऐसे में अन्ना हजारे जैसा स्वच्छ व ईमानदार छवि वाला सुधारवादी, गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता जब उन मुद्दांे को लेकर सामने आता है और आमरण अनशन की घोषण करता है जिनसे नागरिक समाज त्रस्त है तो इसकी अपील समाज में दूर तक जाती है और उसे गहरे रूप में संवेदित करती है। अन्ना हजारे उसे किसी गाँधी या जेपी का नया अवतार जैसे लगते हैं। इस आंदोलन में यही हुआ और नागरिक समाज ने बढ.़चढ कर इसमें भागीदारी की। बल्कि इसकी कमान भी ऐसे लोगों के हाथों में रही जिनकी छवि आमतौर पर अराजनीतिक रही है जैसे अन्ना हजारे के साथ बाबा रामदेव, किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश, अरविन्द केजरिवाला आदि।

यही कारण रहा कि इस आंदोलन को जगह.जगह एनजीओ द्वारा संयोजित व संचालित किया गया। बल्कि ये ही इसके मुख्य कर्ता.धर्ता थे। इस पूरे आंदोलन में अराजनीति की राजनीति हावी रही और राजनीतिक दल के समर्थकों को दूर रखा गया, उन्हें पास फटकने तक नहीं दिया गया यहाँ तक कि उन रेडिकल संगठनों को भी जो बड़ी ईमानदारी से लूट व भ्रष्टाचार तथा सरकार की उदारीकरण.निजीकरण.भूमंडलीकरण की नीतियों के खिलाफ जुझारू संघर्ष चला रहे हैं, उनसे भी परहेज किया गया। इस तरह राजनीतिक तंत्र के विरुद्ध आंदोलन को राजनति विरोधी आंदोलन बनाया गया। तब सवाल है कि लूट व भ्रष्टाचार क्या महज आर्थिक व सामाजिक मामला है ? यदि यह मौजूदा राजनीतिक तंत्र व व्यवस्था की उपज है तो इसके विरुद्ध संघर्ष की राजनीति क्या होगी ? यह अराजनीति भी क्या राजनीति नहीं है ?

हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई कानून नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो, इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था की जरूरत का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय। तभी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है। अन्ना हजारे के इस आंदोलन से सरकार का ऐसे लोकपाल विधेयक बनाने के लिए तैयार होना निःसन्देह इस दिशा में जीत की पहली सीढ़ी है।

लेकिन इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि पिछले 42 सालों से ऐसा ही लोकपाल विधेयक सरकार के ठण्ढे बस्ते में पड़ा रहा है और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। सभी जानते है कि मौजूदा शासन काल में एक से बढ़कर एक घोटाले सामने आये हैं और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने की जगह सरकार की दिलचस्पी उन्हें बचाने या मामले की लीपापोती में ही ज्यादा रही है। तब यह स्वाभाविक सवाल है कि क्या इस सरकार के पास भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छा शक्ति मौजूद है ? फिर जो ड्राफ्ट कमेटी बनी है, उसकी अपनी जटिलता है। इसमें आधे सरकार के नुमाइन्दे हैं। कमेटी का अध्यक्ष भी सरकार का है। सरकार के पास अपना एक पुराना ड्राफ्ट है और अन्ना हजारे ने जन लोकपाल का एक अलग मसौदा प्रस्तावित कर रखा है। इन दोनों में मतभेद के बिन्दु ज्यादा हैं और सहमति के बिन्दु नही ंके बराबर हैं। ऐसे में सहमति पर पहुँचना बड़ी कवायद होगी। भले ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने अपने पहले चरण की लड़ाई जीत ली हो लेकिन अन्ना हजारे की आगे की राह आसान नहीं है। इसलिए जीत पर जश्न मनाने से ज्यादा आगे की चुनौतियों के लिए अपने को तैयार करना जरूरी है।

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शनिवार, 2 अप्रैल 2011

क्रिकेट: कौन जीता ?


कौशल किशोर

इतिहास अपने को दोहराता है। ऐसा ही हुआ है। 1983 के बाद 2011। हम फिर क्रिकेट विश्व चैम्पियन बने। यह एक बड़ी उपलब्धि है। जो हमारे गुरू थे, जिन्होंने हमें गुलाम बनाया और यह खेल सिखाया, उन्हें बहुत पीछे छोड़ दूसरी बार हमने यह जीत हासिल की है। यह ऐसी जीत है जो मन को रोमांचित कर दे। हमारे खिलाड़ी निःसन्देह बधाई के पात्र हैं। हम जोश से भरे हैं। लेकिन ऐसा जोश भी ठीक नहीं जिसमें हम होश खो दें।

हम खेल का भरपूर आनन्द उठायें, जीत पर खुशियाँ मनायें, खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करें, एक दूसरे को बधाइयाँ दें पर यह भी जरूरी है कि खेल से जुड़े मुद्दों पर चर्चा भी हो। खेल में प्रतिभा को स्थान मिले पैसे को नहीं। हम इस पर भी विचार करें कि कारपोरेट पूँजी और बाजार कैसे हमारे खेल में घुस रहा है, खेल व खिलाड़ी को कैसे अपनी कमाई और व्यवसाय का माध्यम बना रहा है। फिर अन्य खेलों की दुर्दशा क्यों ? हाकी जिसमें हम विश्व चैम्पियन थे, उसमें हम इतना पीछे क्यों ? क्रिकेट कही अन्य भारतीय खेलों को आऊट तो नहीं कर रहा है ? बाजार उन्हीं खेलों को प्रोत्साहित क्यों कर रहा है जहाँ पैसे व व्यवसाय की संभावना अधिक है ? खेल का क्षेत्र हमारी संस्कृति का क्षेत्र है। पर हमने क्या देखा ? राजनीति व भ्रष्टाचार। मंत्री व मंत्रालय से लेकर तमाम खेल समितियाँ भ्रष्टाचार में डूबी इुईं। आई पी एल और कामनवेल्थ गेम में क्या हुआ, सबके सामने है। इससे दुनिया में हमारी क्या छवि बनी ?

एक और बात, यह खेल है युद्ध नहीं। जहाँ क्रिकेट हुआ वह मैदान है, रणक्षेत्र नहीं। पर खेल की भावना युद्ध की भावना में बदल दिया जाय और हमारे राष्ट्रवाद पर अन्धराष्ट्रवाद की मानसिकता हावी हो जाये तो फिर इस भावना व मानसिकता पर जरूर विचार किया जाना चाहिए। मीडिया के रोल पर भी बात होनी चाहिए। ‘फतह पाकिस्तान’, ‘लंका दहन’, ‘रावण दहन’ आखिरकार यह कैसी पत्रकारिता है ? प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया सब जगह जैसे खेल नहीं उन्माद बोल रहा है और पूरे देश को उन्मादी बनाने पर तुला हो। कहते हैं खेल प्रेम व भाईचारा बढ़ाता है, दूरियाँ खत्म कर एक दूसरे को करीब लाता है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री आये। श्रीलंका के राष्ट्रपति आये। पड़ोसी मुल्कों से तमाम लोग आये। खेल हुआ। हम जीते। पर जो उन्माद पैदा किया गया उससे कौन विजयी हुआ ? खेल जीता या पूँजी व बाजार ? किसको खाद पानी मिला खेल की निर्मल भावना को या संघी मानसिकता को ? ये सवाल या इस तरह की बातें जश्न के माहौल में जरूर अटपटी सी लग रही होंगी। पर यही मौका है जिस पर चर्चा की जा सकती है, गलत प्रवृतियों पर चोट की जा सकती है।

3 अप्रैल 2011

मंगलवार, 22 मार्च 2011

भगत सिंह और पाश राजनीति व संस्कृति में नया रंग भरती शहादत




कौशल किशोर

23 मार्च शहीद भगत सिंहए सुखदेव और राजगुरु का शहादत दिवस है। इन तीन नौजवान क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। इस घटना के 57 साल बाद 23 मार्च 1988 को पंजाब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि अवतार सिहं ष्पाशष् को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया। 70 वाले दशक में पंजाब में जो क्रांतिेकारी आंदोलन शुरू हुआ . उसके पक्ष में कविताएं लिखने के कारण भी पाश कई बार जेल गये थे. सरकारी जुल्म के शिकार हुए तथा वर्षोें तक भूमिगत रहे।

यह महज संयोग है कि पंजाब की धरती से पैदा हुए तथा क्रांतिकारी भगत सिंह के शहीदी दिवस के दिन
ही अर्थात 23 मार्च को पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिहं पाश भी शहीद होते हैं। लेकिन इन दोनों क्रांतिकारियों के उददेश्य व विचारों की एकता कोई संयोग नहीं है। यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की क्रांतिकारी परंपरा का न सिर्फ सबसे बेहतरीन विकास है बल्कि राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण भी है।


भगत सिंह और उनके साथियों ने आजादी का जो सपना देखा था, जिस संघर्ष और क्रांति का आहवान किया था, वह अधूरा ही रहा। भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्षों और विश्व पूंजीवाद के आंतरिक संकट के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक आजादी 1947 में मिली, उसका लाभ केवल इस देश के पूंजीपतियोंए सामंतों और उनसे जुडे मुट्ठी भर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने ही उठाया है। सातवां दशक आते-आते आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत के नये शासक वर्ग के खिलाफ जन असंतोष तेज होता है जिसकी सबसे ठोस और मुखर अभिव्यक्ति चौथे राष्ट्रीय आम चुनाव और नक्सलबाडी विद्रोह में होती है। विशेष तौर से नक्सलबाडी विद्रोह ने भारतीय साहित्य को काफी गहराई तक प्रभावित किया तथा व्यक्तिवाद, निषेधवाद, परंपरावाद, अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद जैसी जन विरोधी प्रवृत्तियों को प्रबल चुनौती दी। विकल्प की तलाश कर रही बंाग्ला, तेलुगू, हिन्दी, पंजाबी आदि भाषाओं की नयी पीढी को तो जैसे राह ही मिल गयी। पंजाबी में नये कवियों की एक पूरी पीढी सामने आयी जिसने पंजाबी कविता को नया रंग-रूप प्रदान किया। अवतार सिंह पाश ऐसे कवियों की अगली पांत में थे।

पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। अर्थात पाश ने पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसे दौर में प्रवेश किया जो दूसरी आजादी के क्रांतिकारी राजनीतिक संघर्ष का ही नहीं अपितु नये जनवादी-क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन का भी प्रस्थान बिन्दु था। अमरजीत चंदन के संपादन में निकली भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन तो पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था। पाश की इन कविताआंे की पंजाब के साहित्य-हलके में काफी चर्चा रही। उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संधर्ष अपने उभार पर था। पाश का गांव तथा उनका इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था। इस संघर्ष की गतिविधियों ने पंजाब के साहित्यिक माहौल में नयी ऊर्जा व नया जोश भर दिया था। पाश ने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रचीं और गिरफ्तार हुए और करीब दो वर्षों तक जेल में रहे। सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए जेल में ढेरों कविताएं लिखीं और जेल में रहते उनका पहला कविता संग्रह "लोककथा" प्रकाशित हुआ। इस संग्रह ने पाश को पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी।

1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने "सिआड" साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की। नक्सलबाडी आंदोलन पंजाब में बिखरने लगा था। साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था। ऐसे वक्त में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए पस्ती व निराशा से उबरने की कोशिश की तथा सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएँ की। पंजाब के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को एकजुट व संगठित करने का प्रयास चलाते हुए पाश ने "पंजाबी साहित्य-सभ्याचार मंच" का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर "हेमज्योति" पत्रिका शुरू की। इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी। चर्चित कविता "युद्ध और शांति" पाश ने इसी दौर में लिखी। 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह "उडडदे बाजा मगर" छपा जिसमें उनकी 38 कविताएं संकलित हैं। पाश का तीसरा संग्रह "ष्साडे समियां विच" 1978 में प्रकाशित हुआ। इसमें अपेक्षाकृत कुूछ लम्बी कविताएं भी संग्रहित हैं। उनकी मृत्यु के बाद "लडंेगे साथी" शीर्षक से उनका चौथा संग्रह सामने आया जिसमें उनकी प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएॅँ संकलित हैं।

पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव का अर्थात क्रांति और विद्रोह का है। इनकी कविताएं धारदार हैं। जहाँ एक तरफ सांमती-उत्पीडकों के प्रति जबरदस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति, क्रांतिकारी वर्ग के प्रति अथाह प्यार है। नाजिम हिकमत और ब्रतोल्त ब्रेख्त की तरह इनकी कविताओं में राजनीति व विचार की स्पष्टता व तीखापन है। कविता राजनीतिक नारा नहीं होती लेकिन राजनीति नारे कला व कविता में घुल-मिलकर उसे नया अर्थ प्रदान करते हैं तथा कविता के प्रभाव और पहुंच को आश्चर्यजनक रूप में बढाते हैं.. यह बात पाश की कविताओं में देखी जा सकती हैं। पाश ने कविता को नारा बनाये बिना अपने दौर के तमाम नारों को कविता में बदल दिया।

पाश की कविताओं की नजर में एक तरफ "शांति गॉंधी का जांघिया है जिसका नाड़ा चालीस करोड़ इन्सानों की फाँसी लगाने के काम आ सकता है /और ष्शब्द जो राजाओं की घाटियों में नाचते हैं /ध्जो प्रेमिका की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं जो मेजों पर टेनिस बाल की तरह दौडते हैं और जो मैचों की ऊसर जमीन पर उगते हैं/ ध्कविता नहीं होतें" ...तो दूसरी तरफ " युद्ध हमारे बच्चों के लिए / कपड़े की गेंद बनकर आएगा/ युद्ध हमारी बहनों के लिए कढाई के सुन्दर नमूने लायेगा / युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा / युद्ध बूढी माँ के लिए नजर का चश्मा बनेगा / युद्ध हमारे पुरखों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा" और तुम्हारे इंकलाब मेें शामिल है संगीत और साहस के शब्द / खेतो से खदानं तक युवा कंधों और बलिष्ठ भुजाओं से रचे हुए शब्द/ बर्बर सन्नाटों को चीरते हजार कंठों से निकलकर आज भी एक साथ गूंज रहें शब्द’ हजारों कंठो से निकली हुई आवाज ही पाश की कविता में शब्दबद्ध होती है। पाश की कविताओं में इन्हीं कंठों की उष्मा है। इसीलिए पाश की कविताओं पर लगातार हमले हुए हैं। पाश को अपनी कविताओं के लिए दमित होना पडा है। बर्बर यातनाएं सहनी पडी हैं। यहाँ तक कि अपनी जान भी गवांनी पड़ी हैं। लेकिन चाहे सरकारी जेंलें हों या आतंकवादियों की बन्दूकें.......... पाश ने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया बल्कि हजारों दलित-पीड़ित शोषित कंठों से निकली आवाज को अपनी कविता में पिरोते रहे, रचते रहे, उनका गीत गाते रहे और अपने प्रिय शहीद भगत सिंह की राह पर चलते हुए शहीद हो गये।

23 मार्च के दिन ही अपना खून बहाकर पाश ने राजनीति और संस्कृति के बीच खडी की जाने वाली दीवार को ढहाते हुए यह साबित कर दिया कि बेहतर जीवन मूल्यों व शोषण उत्पीड़न से मुक्त मानव समाज की रचना के संघर्ष में कवि व कलाकार भी उसी तरह का योद्धा है जिस तरह एक राजनीतिककर्मी या राजनीतिक कार्यकर्तां। राजनीति और संस्कृति को एकरूप करते हुए पाश ने यह प्रमाणित कर दिया कि अपनी विशिष्टता के बावजूद मानव समाज के संघर्ष में राजनीति और संस्कृति को अलगाया नहीं जा सकता बल्कि इनकी सक्रिय व जन पक्षधर भूमिका संघर्ष को न सिर्फ नया आवेग प्रदान करती है बल्कि उसे बहुआयामी भी बनाती है।

भगत सिंह मूलत एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। राजनीति उनका मुख्य क्षेत्र था। लेकिन उन्होंने तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक, साहित्यिक सवालों पर भी अपनी सटीक टिप्पणी पेश की थी। अपने दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों, देशी विदेशी प्रतिक्रियावादी शाक्तियों व विचारों, धार्मिक कठमुल्लावादी, सांप्रदायिकता, अस्पृश्यता, जातिवाद जैसे मानव विरोधी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करते हुए भगत सिंह ने जनवादी-समाजवादी विचारों को प्रतिष्ठित किया। पाश की कविता, विचारधाराए पत्रकारिता व सांस्कृतिक सक्रियता से साफ पता चलता है कि उनकी राजनीतिक समझ बहुत स्पष्ट थी।

यही भगत सिंह और पाश की समानता है। भले ही इनकी शहादत के बीच 57 वर्षों का अंतर है। ये दोनों क्रांतिकारी योद्धा राजनीति और संस्कृति की दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित करते हैं साथ ही ये राजनीति और संस्कृति की एकता, पंजाब की धर्मनिरपेक्ष, जनवादी व क्रांतिकारी परंपरा के उत्कृष्ट वाहक हैं तथा अपनी शहादत से ये राजनीति और संस्कृति की एकता में नया रंग भरते हैं।

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मो- 09807519227, 08400208031

२३ मार्च पंजाबी कवि पाश का शहीदी दिवस है . उनकी एक कविता यहाँ पेश है .

कविता

सबसे ख़तरनाक

पाश

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।



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शनिवार, 5 मार्च 2011

साथी अनिल सिन्हा को क्रान्तिकारी सलाम




कौशल किशोर

हमने ऐसा सोचा भी नहीं था कि हमारे अत्यन्त प्रिय साथी अनिल सिन्हा इतना जल्दी हमारा साथ छोड़ देंगे। इस साल की पहली तारीख को हमने उन्हें दिल्ली के लिए विदा किया था। एक दिन पहले डॉ विनायक सेन की उम्रकैद की सजा के खिलाफ लखनऊ में हुए विरोध प्रदर्शन में वे शामिल हुए थे। उनके शरीर पर पिछले दिनों हुए लकवे का असर मौजूद था। चलने में उन्हें दिक्कत हो रही थी। हमने उन्हें मना भी किया। पर उनके लिए इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होना जरूरी था सो वे अपने स्वास्थ्य की परवाह किये बिना आये। उनका इलाज जरूरी था। इसीलिए न चाहते हुए भी हम साथियों ने उन्हें दिल्ली के लिए विदा किया। लेकिन दिल्ली जाकर भी हमसे वे अलग नहीं थे। शायद ही कोई दिन हो जिस दिन हमारी बात न होती हो।

अनिलजी दिल्ली तो इलाज कराने गये थे। लेकिन वहाँ भी कमरे में अपने को बन्द रखने वाले नहीं थे। जसम द्वारा आयोजित शमशेर जन्मशती आयोजन में उन्होंने शमशेर की चित्रकला पर जो व्याख्यान दिया, उससे उनकी कला के सम्बन्ध में गहरी समझ व सूक्ष्म दृष्टि का पता चलता है। फिर 6 फरवरी को दिल्ली केे जमरूदपुर गुरुद्वारा कम्युनिटी हाल में सैकड़ों श्रमिकों के बीच पहुँच गये जहाँ नव सर्वहारा सांस्कृतिक मंच की ओर से नागार्जुन, शमशेर व केदार कविता यात्रा शुरू होनी थी। इस अवसर पर ‘आमजीवन में कविता के महत्व’ पर उन्होंने सारगर्भित व्याख्यान दिया।

मित्र जानते हैं कि अनिल सिन्हा के शरीर में उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, मधुमेह, थायराइड, लकवा जैसी कई बीमारियों ने अपना घर बना लिया था। लेकिन उन्होंने कभी भी इन बीमारियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। अपने काम में अवरोध नहीं बनने दिया। पन्द्रह साल पहले दाहिना हाथ टूट गया था। आपरेशन हुआ। लखनऊ मेडिकल कॉलेज की लापरवाही की वजह से बोन टी वी हो गया। नौबत हाथ काटने तक पहुँच गई। लिखना छूट गया तब बाँये हाथ से लिखने लगे। आखिरकार दिल्ली में हुए इलाज से फायदा हुआ। पिछले साल नवम्बर में लकवा का झटका लगा। चलना व बोलना मुश्किल था। पर जीवटता देखिए। चल नहीं सकते थे, पर चलना नहीं छोड़ा। पैर में फिर चोट लगी। हमलोगों ने मना किया। पर वे मानने वाले कहाँ ? हर बैठक व कार्यक्रम में पहुँचते, सीढ़ियाँ चढ़ते हुए साँस फूलता। बोलते हुए हाफने लगते। आवाज लड़खड़ाने लगती। पर सीढ़ियाँ भी चढ़ते और देर देर तक बतियाते भी। किसी साथी के बीमार होने की खबर मिलते ही तुरन्त पहुँच जाते। अनिलजी के मन में इस बात को लेकर अफसोस जरूर था कि स्वास्थ्य की वजह से वैसी गतिशीलता नहीं बन पा रही है जैसी होनी चाहिए। खासतौर से ‘गोरख स्मृति संकल्प’ समारोह में गोरख पाण्डेय के गाँव ‘पण्डित का मँुडेरवा’ न जा पाने का उन्हें दुख था। फिर भी अप्रैल में सुभाष चन्द्र कुशवाहा के गाँव जोगिया जनूबा पट्टी में आयोजित ‘लोकरंग’ में जाने की उनकी पूरी योजना थी। इस कार्यक्रम में हर साल बिना नागा वे पहुँचते रहे हैं।

अनिलजी के दिमाग में कई योजनाएँ एक साथ चलती रहती थी। शरीर साथ नहीं देता था पर इच्छा शक्ति जबरदस्त थी। 27 फरवरी को लखनऊ में शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह का कार्यक्रम था। इसकी परिकल्पना व योजना अनिलजी ने ही बनाई थी। इस सम्बन्ध में उन्होंने मैनेजर पाण्डेय, राजेन्द्र कुमार व बलराज पाण्डेय से बात कर सब तय किया था। किस विषय पर किसे बोलना है, संचालन से लेकर धन्यवाद ज्ञापन तक की पूरी रूपरेखा तैयार की थी। कौन किस ट्रेन से आयेगा, कहाँ रुकेगा, किस साथी पर किसकी जिम्मेदारी होगी आदि सब उन्होंने तय किया था। पर इस कार्यक्रम के दो दिन पहले ही अनिलजी ने हमारा साथ छोड़ दिया। हमारे लिए इससे बढकर दुख की बात क्या होगी कि जिस सभागार को जन्मशती समारोह के लिए आरक्षित कराया गया था उसमें हमें अनिलजी की स्मृति सभा करनी पड़ी।

अनिल सिन्हा 22 फरवरी को दिल्ली से पटना आ रहे थे। ट्रेन में ही उन्हें मस्तिष्क आघात ;ब्रेन स्ट्रोकद्ध हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझने के बाद 25 फरवरी को सुबह 11.50 बजे उनका निधन हुआ। अनिल सिन्हा की इच्छा मृत्यु उपरान्त देहदान की थी। लेकिन इतना जल्दी वे चल बसेंगे, इसका उन्हें भी आभास नहीं था। इसीलिए देहदान की कानूनी औपचारिकताएँ पूरी नही कर पाये थे। इस हालत में उनका अन्तिम संस्कार पटना के बासघाट विद्युत शवदाह गृह में कर दिया गया और क्रान्तिकारी वाम राजनीति व संस्कृतिकर्म का यह योद्धा ‘अनिल सिन्हा अमर रहे’ की गूँज के साथ हमारे बीच से चला गया। उनको अन्तिम विदाई देने वालों में मेरे साथ आलोक धन्वा, अजय सिंह, भगवान स्वरूप कटियार, भाकपा ;मालेद्ध के कार्यकर्ताओं के साथ उनके परिवार के लोग थे। इस खबर से सब सदमें में थे। आलोक धन्वा ने कहा कि मैं हँसना चाहता हूँ ताकि अपनीे रुलाई और अन्दर के आँसू को रोक सकूँ। कमोबेश यही हालत हमसब की थी।

अनिल सिन्हा के असमय अपने बीच से चले जाने से जो सूनापन पैदा हुआ है, उसे महसूस किया जा सकता है क्योंकि वे ऐसे मजबूत और ऊर्जावान साथी थे जिनसे जन सांस्कृतिक आंदोलन को अभी बहुत कुछ मिलना था। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से नई पीढ़ी को बहुत कुछ सीखना था। अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार, कलाओं के अर्न्तसम्बन्ध पर जनवादी, प्रगतिशील नजरिये से गहन विचार और समझ विकसित करने वाले विरले समीक्षक और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक थे। सिद्धान्तों के साथ कोई समझौता नहीं, ऐसी दृढ़ता थी। वहीं, व्यवहार के धरातल पर ऐसी आत्मीयता, खुलापन व साथीपन था कि वैचारिक रूप से असहमति रखने वाले भी उनसे प्रभावित हुए बिना, उनका मित्र बने बिना नहीं रह सकते। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से प्रगतिशील रचनाकर्म के बाहर के दायरे में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय थे तथा तमाम रचनाकारों को जन संस्कृति मंच से जोड़ने व उन्हें करीब लाने में सफल हुए थे। कई रचनाकारों के लिए तो जन संस्कृति मंच की मानी अनिलजी थे।

अनिल सिन्हा सŸार के दशक और उसके बाद चले सांस्कृतिक आंदोलन के हर पड़ाव के साक्षी ही नहीं, उसके निर्माताओं में थे। उन्होंने रचना, विचार, संगठन और आंदोलन के क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। इस समय वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उŸार प्रदेश के पहले सचिव के रूप में सांस्कृतिक आंदोलन का नेतृत्व किया था। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी जनवादी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। भाकपा ;मालेद्ध से उनका रिश्ता उस वक्त से था जब पार्टी भूमिगत थी। उनका घर पार्टी साथियों का घर हुआ करता था। अखबारी कर्मचारियों व पत्रकारों के आंदोलन में भी वे लगातार सक्रिय थे। कष्ट साध्य जीवन और जन आंदोलनों में तपकर ही उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था।

अनिल सिन्हा का जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्यालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यावर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से भी वे जुड़े रहे।

1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ, वे यहाँ आ गये। वे अमृत प्रभात की उस सम्पादकीय टीम के सदस्य थे जिसमें मंगलेश डबराल, मोहन थपलियाल, अजय सिंह आदि थे। तब से लखनऊ ही उनका स्थाई निवास था। अमृत प्रभात लखनऊ के बन्द होने के बाद वे नवभारत टाइम्स में आ गये। लेकिन जब नवभारत टाइम्स बन्द हुआ तो जीवन ज्यादा ही कठिनाइयों भरा था। जिम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं और स्वतंत्र लेखन से उनका निर्वाह नहीं हो सकता था। इस हालत में उन्होंने दैनिक जागरण, रीवाँ ज्वाइन किया। यहाँ वेे स्थानीय संपादक रहे। इस अखबार के प्रबन्धकों से तालमेल बिठा पाना उनके लिए संभव नहीं हो रहा था और वैचारिक मतभेद की वजह से वह अखबार छोड़ दिया और लखनऊ वापस आ गये। बाद में ‘राष्टीªय सहारा’ के साहित्य पृष्ठ ‘सृजन’ का भी उन्होंने सम्पादन किया था।

अनिल सिन्हा ने कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण, यात्रा वृतांत आदि कई क्षेत्रों में काम किया। फिल्म, संगीत व नाटक आदि में भी उनकी गहरी रुचि थी। लखनऊ में हुए तीनों फिल्म समारोहों की स्मारिका का उन्होंने सम्पादन किया था। ‘मठ’ नाम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। उनके द्वारा मशहूर लेखक आनन्द तेलतुमड़े की अंग्रेजी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया। अनिल सिन्हा का रचना संसार पिछले पांच दशकों में फैला है, वह भी साहित्य की कई विधाओं में और इतना विविधतापूर्ण है कि उनकी प्रकाशित पुस्तकों को देखते हुए यही लगता है कि उनके लेखन का बहुत छोटा हिस्सा ही पुस्तक रूप में प्रकाशित हो सामने आया है। इसलिए हमारे लिए यह जरूरी है कि उनके रचना संसार को सामने लाया जाय, उसे पाठकों तक पहुँचाया जाय ताकि साहित्य व समाज की नई पीढ़ी उस उथल.प.ुथल व संघर्ष भरे दौर से परिचित हो सके जिसकी उपज अनिल सिन्हा जैसे प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी थे।

एक बात गौरतलब है कि अनिल सिन्हा जिस पारिवारिक व सामाजिक परिवेश से आये थे, वह सामंती व धार्मिक जकड़न भरा था। इस जकड़न से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने को आधुनिक व प्रगतिशील ही नहीं बनाया था बल्कि वामपंथ की क्रान्तिकारी धारा की राजनीति व विचार से अपने को लैस किया था। विचारहीनता के इस दौर में जहाँ तमाम वामपंथी लेखकों व साथियों का मार्क्सवाद व वामपंथ पर से विश्वास डगमगा रहा है, उन्हें मौजूदा धक्के में सबकुछ खत्म होता या डूबता.सा नजर आ रहा है तथा हताशा.निराशा के शिकार हैं, वहीं अनिल सिन्हा के लिए एकमात्र उम्मीद मार्क्सवाद और रेडिकल वामपंथ ही था। बेशक वामपंथ में आ रहे झोल व ढ़ीलाढीलापन उन्हंे स्वीकार नहीं था और इन प्रवृतियों की आलोचना करने से वे कभी नहीं चूकते थे।

अनिल सिन्हा बाहर से जरूर शान्त से दिखते थे लेकिन उनके भीतर कितनी आग धधक रही है, इसका दर्शन उनके विचारों से रु.ब.रु होने पर मिलता है। पिछले दिसम्बर के तीन दिनों के अन्दर उन्होंने तीन वैचारिक लेख लिखे। रामकुमार कृषक की पत्रिका ‘अलाव’ के लिए नागार्जुन के गद्य पर लिखा। एन जी ओ के बढ़ते जाल व वामपंथ के एनजीओकरण पर ‘खौफनाक समय में सतर्कता’ में उन्होंने उन खतरों की तरफ इशारा किया कि किस तरह लेफ्ट पार्टियों के बुद्धिजीवी व एक्टिविस्ट भी एन जी ओ के मायाजाल में फँसते जा रहे हैं और सरकारी उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले अपने अभियान में सफल हो रहे हैं। इस सम्बन्ध में अनिल सिन्हा का कहना था ‘सच को साफ.साफ कहें और विभ्रमों की ऐसी व्याख्या पेश करें जो जनता आसानी से समझे और विचार करे कि क्यों हमें एक नई व्यवस्था व सŸाातंत्र चाहिए। अपनी नाव की पतवार अगर खुद संभाली जाय तो नाव काबू में रहती है वर्ना नाव बहक जाती है, अक्सर भँवर में फँस जाती है। इसलिए आज एन जी ओ और वास्तविक वामपंथी पार्टियों के फर्क को सामने लाना जरूरी है पर दिखाई दे रहा है कि एन जी ओ तो अपने काम को अंजाम दे रहा है पर वामपंथी पार्टियाँ अपने उद्देश्य से चूक रही हैं। समय खैफनाक है। सतर्क रहने और जन गोलबंदी में जाने की जरूरत है।’ ;खैफनाक समय में सतर्कता, 10 दिसम्बर 2010द्ध

‘खौफनाक समय में सतर्कता’ लिखने के दूसरे दिन 11 दिसम्बर को उन्होंने लम्बा लेख लिखा ‘प्रतिरोध व संघर्ष की नायिका से सबक लें’। यह लेख उन्होंने इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल के 11 साल पूरा होने पर लिखा था जिसका अन्त उन्होंने इस तरह किया - ‘शर्मिला जैसे योद्धा की मौत नहीं होती जैसे जूलियस फ्यूचिक जैसे योद्धा की मौत नहीं, पर जिन शारीरिक व मानसिक यातनाओं में शर्मिला के दिन गुजर रहे हैं उनमें उसका भौतिक शरीर कभी भी साथ छोड़ सकता है तो चर्चा में आये संगठनों ;लोकतांत्रिक व वामपंथीद्ध की राजनीतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने एक्शन द्वारा शर्मिला को यह अहसास करा दें कि उसके संघर्ष को बढ़ाने वाले लोग मौजूद हैं।........ उनसे ‘‘चिन्तन का विवेक’’ नष्ट नहीं हुआ है।’

प्रतिरोध व संघर्ष के ऐसे ही जज्बे से भरे थे हमारे साथी अनिल सिन्हा। संघर्ष व सपने कभी नहीं मरते। इसीलिए अनिलजी जैसे सांस्कृतिक योद्धा भी कभी नहीं मरते और अपने काम और विचारों के साथ हमेशा हमारे बीच जिन्दा रहते हैं, प्रकाश स्तम्भ की तरह हमें आगे बढ़ने की राह दिखाते हैं। अपनी इस विरासत पर हमें गर्व है। अनिल सिन्हा को क्रान्तिकारी सलाम।

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