बुधवार, 16 मार्च 2016

ज़ाहिदा हिना की किताब - युद्ध: आत्महत्या का रास्ता

ज़ाहिदा हिना की किताब - 
युद्ध: आत्महत्या का रास्ता 

कौशल किशोर

कौन चाहता है युद्ध ? कोई नहीं। परन्तु युद्ध हकीकत है जैसे दुनिया को आगे बढ़ने के लिए जरूरी है। आधुनिक काल में युद्ध विश्व बाजार पर कब्जे के लिए होड़ व पूंजी की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा की देन है। इसने युद्ध की विभीषिका को पैदा किया है। इसकी वजह से पिछली सदी में दो विश्व युद्ध हुए। यह महाविनाश का कारण बना। कई देश बर्बाद-तबाह हुए। लाखों लोग शिकार हुए। दुनिया में अमन कायम हो, विवादों का हल वार्ता, सुलह, समझौते से हो, बहुत सारे उपाय हुए फिर भी युद्ध होते रहे। युद्ध लिप्सा खत्म नहीं हुई। आज फिर दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़ी है। वर्तमान समय में आतंकवाद जिस तरह वैश्विक परिघटना के रूप में हमारे सामने है, उसने इस खतरे को और बढ़ाया है। बीसवीं सदी हो या इक्कीसीं सदी कभी ऐसा वक्त नहीं रहा जब दुनिया के किसी हिस्से में युद्ध न चल रहा हो। फिर शीत युद्ध तो हमेशा जारी रहा है जो प्रत्यक्ष युद्ध से किसी मायने में कम नहीं। 

युद्ध और शान्ति - सिक्के के दो पहलु की तरह हैं। जहां एक तरफ युद्धोन्माद व युद्ध लिप्सा है, वहीं दूसरी तरफ शांति के प्रयास भी होते रहे हैं। शान्ति के पक्ष में माहौल तैयार करने में लेखकों व कलाकारों की बड़ी भूमिका रही है। यहां तक कि लेखकों ने युद्ध के खिलाफ शान्ति के लिए अपनी शहादतें भी दी हैं। इस विषय पर कई कृतियों की रचना हुई। इनके माध्यम से न सिंर्फ शन्ति का संदेश पहुंचाया गया बल्कि युद्ध के खिलाफ जनमत तैयार करने में इनकी भूमिका रही हैै। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पाब्लो पिकासे की कलाकृति ‘गुयेर्निका’ आज भी युद्ध के खिलाफ सबसे बड़ी कला अभिव्यक्ति के रूप में जानी जाती है। टाल्सटाय का उपन्यास ‘युद्ध और शान्ति’ विश्व प्रसिद्ध कृति है। 

यह बात शीशे की तरह साफ है कि युद्ध से जो इच्छित हासिल करने की निहित आकांक्षा रही है, वह तो कभी पूरी नहीं हुई लेकिन इसने जो तबाही व बर्बादी मचाई, उसका शिकार मानव जीवन, प्रकृति और उसकी आगे की पीढियों को होना पड़ा। इसीलिए युद्ध अन्ततः मानव जाति को खुदकुशी की ओर ले जाता है, यह आत्महत्या का रास्ता है। इसी सच्चाई को सामने लाती है जाहिदा हिना की किताब - ‘युद्ध: यह आत्महत्या का रास्ता है’। जाहिदा हिना कथाकार ही नहीं, सोशल व कल्चरल एक्टिविस्ट भी हैं जो पाकिस्तान में शान्ति के पक्ष में युद्ध विरोधी अभियान ‘क़लम बराए अमन’ की सक्रिय कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय हैं। जाहिदा हिना की इस किताब का अनुवाद हिन्दी के जाने माने कथाकार व अनुवादक शकील सिद्दीकी ने किया है। इसमें उनकी भूमिका भी है। वहीं, अरुंधती राय की युद्ध खासतौर से परमाणु युद्ध के बढ़ते खतरे, उसका सांप्रदायिकीकरण पर छोटी-छोटी टिप्पणियां भी है। 
जहिद हिना ने अपनी किताब ‘अवाम की हिमायत में जंगी जुनून के खिलाफ संघर्षरत तमाम साथियों को’ समर्पित किया है और स्वयं भी उन्हीं की सहयोद्ध की तरह जंग की संस्कृति के खिलाफ अमन के पक्ष में अपनी आवाज बुलन्द करती हैं। जंग कैसे अवाम के खिलाफ है, इसके वैचारिक व राजनीतिक आधार की पड़ताल करती हैं। फिर आज तो एटमी युद्ध का बड़ा खतरा है। हिरोशिमा और नगासाकी जिन पर 1945 में परमाणु बम गिराये गये थे और जिसे अमेरिका द्वारा ‘नन्हा लड़का’ की संज्ञा दी गई थी। वह आज जवान हो चुका है, दैत्याकार। किताब में इस तथ्य को सामने लाया गया है कि युद्ध इस महाद्वीप में जिस युद्धोन्मुखता व युद्धोन्माद पैदा कर रहा है उसी के तहत पाकिस्तान के शासकों की राजनीति व परमाणु कार्यक्रम भारत के खिलाफ तैयार किये जाते हैं। इसी तरह की नीति हिन्दुस्तान के शासकों की भी है। जबकि दोनों मुल्कों का अवाम अमन पसन्द है। वह युद्ध नहीं दोस्ती चहता है, भाईचारा चाहता है। दोनों के बीच सांस्कृतिक एकता है। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों विकासशील देश है। गरीबी, भुखमरी दोनों के अवाम की आम समस्या है। 

जहिद हिना इस तथ्य की सामने लाती हैं कि जो पाकिस्तान कटोरा लिए अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सामने हमेशा खड़ा रहता है, उसने अपने परमाणु हथियारों से संबंधित परीक्षणों और तैयारी पर छ खरब रुपये व्यय किये हैं। वहीं, सिंध के अकालग्रस्त क्षेत्र के टी बी बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए 25 करोड़ रुपये उपलब्ध नहीं कर सकी। ऐसे में लोगों के जीवन की कीमत पर युद्धोन्माद तथा ‘हम घास खायेंगे मगर एटम बम जरूर बनायेंगे’ जैसा उन्माद कहां तक जायज है ? इसी तरह का उदाहरण वे हिन्दुस्तान के संबंध में प्रस्तुत करती हैं कि भारत इस समय संसार का सर्वधिक निरक्षर देश है। करोड़ों को पीने के लिए साफ पानी तथा सत्तर प्रतिशत आबादी को सफाई की मौलिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। दुनिया भर के एक तिहाई अत्यन्त निर्धन भारत में बसते हैं। उनकी दैनिक आमदनी एक डालर से भी कम है। मानव विकास के सूचकांक की दृष्टि से 174 देशों में भारत का स्थान 135 वां है। गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हिन्दुस्तान का 6 प्रतिशत वार्षिक दर से रक्षा बजट में लगातार वृ़िद्ध करना कहां तक उचित है ? जाहिदा हिना इन सवालों से रू ब रू हैं।

किताब मे जाहिदा हिना के ‘दिल का क्या रंग करूं ?’, ‘समाज में निराज और जंगी जुनून’,ं ‘यह आत्महत्या का रास्ता है’, ‘आत्मा की आवाज’ और ‘एटमी हथियार क्या हमारी रक्षा कर सकते हैं’शीर्षक से पांच आलेख है। इन लेखों के माध्यम से उनकी जो चिन्ता सामने आती है, वह उन्हीं के शब्दों में ‘मैं पाकिस्तानी शहरी होने के साथ ही उपमहाद्वीप की भी शहरी हूं। मेरे लिए कराची, कोलकता और कानपुर में, लाहौर और लखनऊ में, दिल्ली और पेशावर में कोई फर्क नहीं ! यह उपमहाद्वीप के शहर हैं, मैं इन सबमें रहती हूं और ये सारे शहर मेरे अन्दर आबाद हैं ! गौरी चले या अग्नि, निशाना उपमहाद्वीप की कोई भी बस्ती, कोई भी वीरान बने, हलाकत यानी हत्या मेरी होगी, किसी हिन्दू, किसी मुसलमान, किसी सिख या किसी मर्द-औरत, बच्चे-बूढ़े, किसी कट्टरपंथी या किसी नास्तिक के रूप में मेरा ही खून बह रहा होगा।’ इस तरह किताब के माध्यम से जिस हकीकत का बयान है, वह इस महाद्वीव की सच्चाई है जिससे दोनों मुल्क और यह महाद्वीप परेशान है, तबाह-बर्बाद हो रहा है। अर्थात जंग आत्महत्या का, दोनों मुल्कों को अपने को नष्ट कर देने वाला रास्ता है। अन्ततः इससे आम नागरिकों को कुछ मिलने वाला नहीं है। इससे उनकी जिन्दगी का अंधेरा और गहरा ही होगा। 
परिशिष्ट के अन्तर्गत डॉ ताहिरा एस खान का ‘जंग नहीं चाहतीं पाकिस्तान की औरतें’ तथा आई ए रहमान का ‘उम्मीद का एक सफर’ दो आलेख हैं। देश का बंटवारा और कश्मीर विवाद ऐसी समस्याएं रही है जो दोनों देशों के बीच नफरत की भावना को फैलाती हैं तथा युद्ध के लिए उकसाती हैं। इनका इस्तेमाल दोनों मुल्कों के शासक करते रहते हैं। इन्हें आधार बनाकर दोनों मुल्कों में राजनीति की जाती है। इन मुल्कों में जो चुनाव होते हैं, उनमें यह बड़ मुद्दा बनाया जाता है। 1947 का विभाजन दोनों मुल्कों के लिए ऐसी त्रासदी है जिसने स्थाई तनाव को पैदा किया है जिसका खामियाजा दोनों मुल्कों के अवाम को भुगतना पड़ रहा है। । युद्ध हो या न हो लेकिन अप्रत्यक्ष युद्ध जैसी स्थिति हमेशा बनी हुई है। नतीजा है हर साल रक्षा बजट में गैरजरूरी बढ़ोतरी। पृथ्वी, अग्नि और त्रिशूल बने या गौरी, शाहीन और अब्दाली दागे जाय, कौन बनेगा इनका निशाना ? आखिर यह किसकी कीमत पर हो रहा है ? जाहिदा हिना पुरजोर तरीके से कहती हैं कि ऐसा करके हम न सिर्फ मानवता की बल्कि अशोक महान और महात्मा गांधी के आदर्शों और अहिंसा के दर्शन की भी हत्या कर रहे हैं। इस किताब में ‘बंटवारें को भुलाकर अमन के लिए एक हों’ एक अवधारणा पत्र भी शामिल है। इसी तरह जम्मू और कश्मीर पर संयुक्त वक्तव्य’ भी है। जाहिदा हिना की पीड़ा एक सृजनशील रचनाकार की है। उनका मूल संदेश है कि धार्मिक विमर्श से बाहर आकर एक ऐसी जगह बनाने की जरूरत है जहां व्यक्ति केन्द्रित,  तार्किक, वस्तुपरक, वैज्ञानिक विचार विमर्श करने की संस्कृति पनप सके।

युद्ध इस महाद्वीप में सांम्राज्यवादियों की साजिश, सत्ता के निहित राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति का माध्यम रहा है और आज भी है जो जनविरोधी और मनुष्य विरोधी है। इसके खिलाफ दोनों मुल्कों के अमन पसंद लोगों का जाग्रत होना तथा जंग के विरुद्ध आंदोलनात्मक अभियान चलाना जरूरी है। जाहिदा हिना की यह किताब इसी अभियान का हिस्सा है जो जंग के विरुद्ध अमन के लिए लोगों को तैयार करती है। इस मायने में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण, जरूरी व पठनीय किताब है जिसे पढ़ा जाना चाहिए, दूसरों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। किताब की कीमत जरूर ज्यादा है। यदि इसका पेपर बैक संस्करण छपे तो यह आम लोगों तक सस्ते में पहुंच सकता है।  

युद्व: यह आत्महत्या का रास्ता है
लेखिका: जाहिदा हिना, हिन्दी अनुवाद: शकील सिद्दीकी
शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली , मूल्य - 250.00

रविवार, 15 अप्रैल 2012

स्मृति लेख

गुरुशरण सिंह होने का मतलब
‘हिन्दुस्तान को इंकलाब की शक्ल में देखा जाय’

कौशल किशोर

भगत सिंह के जन्म दिवस 28 सितम्बर के दिन मशहूर नाटककार गुरुशरण सिंह का निधन हुआ। शहीद भगत सिंह के शहादत दिवस यानी 23 मार्च के दिन ही पंजाबी के क्रान्तिकारी कवि अवतार सिंह पाश आतंकवादियों की गोलियों के निशाना बनाये गये थे, वे शहीद हुए थे। यह सब संयोग हो सकता है। लेकिन पंजाब की धरती पर पैदा हुए पाश और गुरुशरण सिंह के द्वारा भगत सिंह के विचारों और उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना कोई संयोग नहीं है। भगत सिंह ने शोषित उत्पीड़ित मेहनतकश जनता की मुक्ति में जिस नये व आजाद हिन्दुस्तान का सपना देखा था, उसी संघर्ष को आगे बढ़ाने वाले ये सांस्कृतिक योद्धा रहे हैं। भगत सिंह के क्रान्तिकारी विचारों व संघर्षों को आगे बढ़ाना इनके कलाकर्म का मकसद रहा है। भले ही भगत सिंह ने इस संघर्ष को राजनीतिक हथियारों से आगे बढ़ाया, वहीं पाश ने यही काम कविता के द्वारा तथा गुरुशरण सिंह ने ताउम्र अपने नाटकों से किया। गुरुशरण सिंह के निधन पर उनकी बेटियों की प्रतिक्रिया थी कि उन्हें अपने पिता पर गर्व है। उन्होंने अपने उसूलों के साथ कभी समझौता नहीं किया। गुरुशरण सिंह होने का मतलब भी यही है। कला को हथियार में बदल देने तथा सोद्देश्य संस्कृति कर्म का इससे बेहतरीन उदाहरण नहीं हो सकता है।

यों तो 1929 में मुल्तान में जन्मे गुरुशरण सिंह अपने छात्र जीवन में ही कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये थे। लेकिन एक नाटककार व संस्कृतिकर्मी के रूप में उनके रूपान्तरण की कहानी बड़ी दिलचस्प है। वे बुनियादी तौर पर विज्ञान के विद्यार्थी थे। सीमेन्ट टेक्नालाजी से एम0एस0सी0 किया। पंजाब में जब भाखड़ा नांगल बाँध बन रहा था, उन दिनों वे इसकी प्रयोगशाला में बतौर अधिकारी कार्यरत थे। वहाँ राष्ट्रीय त्योहारों को छोड़कर किसी भी दिन सरकारी छुट्टी नहीं दी जाती थी। उन्हीं दिनों लोहड़ी का त्योहार आया जो पंजाब का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। मजदूरों ने इस त्योहार पर छुट्टी की मांग की और प्रबंधकों द्वारा इनकार किये जाने पर मजदूरों ने हड़ताल कर दी।

गुरुशरण सिंह ने मजदूरों की भावनाओं को आधार बनाकर एक नाटक तैयार किया। इसे मजदूरों के बीच जगह जगह खेला गया। इस नाटक ने अच्छा असर दिखाया। यह नाटक काफी लोकप्रिय हुआ। इसमें गुरुशरण सिंह ने भी बतौर कलाकार भूमिका की। और अंततः प्रबन्धकों को झुकना पड़ा। मजदूरों की मांगें मान ली गई। इसने नाटक और कला की ताकत से गुरुशरण सिंह को परिचित कराया और इस घटना ने उन्हें नाटक लिखने, नाटक करने वालों का ग्रूप बनाने, दूसरों के लिखे नाटकों को करने या कहानियों का नाट्य रूपान्तर आदि के लिए प्रेरित किया। इसके बाद गुरुशरण सिंह ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

गुरुशरण सिंह पंजाब में इप्टा के संस्थापकों में थे। नाट्य आंदोलन को संगठित व संस्थागत रूप देने के लिए उन्होंने 1964 में अमृतसर नाटक कलाकेन्द्र का गठन किया ताकि कलाकारों को शिक्षित प्रशिक्षित किया जाय, शौकिया कलाकार की जगह उन्हें पूरावक्ती कलाकार में बदला जाय तथा उनकी भौतिक जरूरतों को पूरा करते हुए उनके पलायन को रोका जाय। गुरुशरण सिंह के नाटको की खासियत है कि यह अपनी परम्परा के प्रगतिशील विचारों को, संघर्ष की विरासत को आगे बढ़ाता है, उसे विकसित करता है। वह इतिहास के सकारात्मक पहलुओं को तात्कालिक परिस्थितियों से जोडता है। यही कारण है कि इनके नाटक तात्कालिक होते हुए भी तात्कालिक नहीं होते बल्कि उनमें अतीत, वर्तमान और भविष्य आपस में गुथे हुए हैं।

नक्सलबाड़ी के किसान आंदोलन का गहरा असर पंजाब में भी था। उन्हीं दिनों गुरुनानक देव का 500 वाँ जन्म दिन आया। इस मौके पर गुरुशरण सिंह ने नानक के प्रगतिशील विचारों को आधार बनाकर अपने मित्र गुरुदयाल सिंह सोढ़ी के नाटक ‘जिन सच्च पल्ले होय’ को आज के सच से जोड़ते हुए प्रस्तुत किया। पंजाब में इस नाटक का अपना इतिहास है। यह नाटक आश्चर्यजनक रूप से लोकप्रिय हुआ और पंजाब के करीब 1600 गाँवों में इसका मंचन हुआ। भगत सिंह के जीवन और विचारधारा पर आधारित नाटक ‘इंकलाब जिंदाबाद’ की कहानी इससे अलग नहीं है। न सिर्फ पंजाब में बल्कि देश के शहरों से लेकर गांव गांव में इसके मंचन हुए। उनके नाटकों में लोक नाट्य रूपों व लोक शैलियों का प्रयोग देखने को मिलता है। वे मंच नाटक और नुक्कड़ नाटक के विभाजन को कृत्रिम मानते थे तथा इस तरह के विभाजन के फलसफे को नाटककारों व रंगकर्मियों की कमजोरी मानते थे।

गुरुशरण सिंह उन लोगों में रहे जो लागातार सŸाा के दमन को झेलते हुए सांस्कृतिक आंदोलन को आगे बढ़ाया। अपने नाटक ‘मशाल’ के द्वारा उन्होंने इंदिरा तानाशाही का विरोध किया था। इसकी वजह से उन्हें इमरजेन्सी के दौरान दो बार गिरफ्तार भी किया गया। अपनी प्रतिबद्धता की कीमत अपनी नौकरी गवाँकर चुकानी पड़ी। अस्सी के दशक में पंजाब के जो हालात थे तथा गुरुशरण सिंह को आतंकवादियों की ओर से जिस तरह की धमकियाँ मिल रही थी, उसने हम जैसे तमाम लोगों को गुरुशरण सिंह के जीवन की सुरक्षा को लेकर चिन्तित कर रखा था। पर गुरुशरण जी उनकी धमकियों से बेपरवाह काम करते रहे और अपनी मासिक पत्रिका ‘समता’ में आतंकवाद के विरोध में लगातार लिखते रहे। उन्हीं दिनों आतंकवाद के विरोध में उनका चर्चित नाटक ‘बाबा बोलता है’ आया। उन्होंने न सिर्फ इसके सैकड़ों मंचन किये बल्कि भगत सिंह के शहादत दिवस 23 मार्च पर आतंकवाद के विरोध में भगत सिंह के जन्म स्थान खटकन कलां से 160 किलोमीटर दूर हुसैनीकलां तक सांस्कृतिक यात्रा निकाली जिसके अन्तर्गत जगह जगह उनकी टीम ने नाटक व गीत पेश किये। यह साहस व दृढता जनता से गहरे लगाव, उस पर भरोसे तथा अपने उद्देश्य के प्रति समर्पण से ही संभव है। यह गुण हमें गुरुशरण सिंह में मिलता है। अपने इन्हीं गुणों की वजह से सरकारी दमन हो या आतंकवादियों की धमकियां, उन्होंने कभी इनकी परवाह नहीं की और सŸाा के खिलाफ समझौता विहीन संघर्ष चलाते रहे।

गुरुशरण सिंह ने करीब पचास के आसपास नाटक लिखे, उनके मंचन किये। ‘जंगीराम की हवेली’, ‘हवाई गोले’, ‘हर एक को जीने का हक चाहिए’, ‘इक्कीसवीं सदी’, ‘तमाशा’, ‘गड्ढ़ा’ आदि उनके चर्चित नाटक रहे हैं। भले ही उनके सांस्कृतिक कर्म का क्षेत्र पंजाब रहा हो, पर उनका दृष्टिकोण व्यापक व राष्ट्रीय था। वे एक ऐसे जन सांस्कृतिक आंदोलन के पक्षधर थे जो अपनी रचनात्मक ऊर्जा संघर्षशील जनता से ग्रहण करता है और इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए जनवादी व क्रान्तिकारी संस्कृतिकर्मियों के संगठन की जरूरत को वे शिद्दत के साथ महसूस करते थे। यही कारण था कि जब क्रान्तिकारी वामपंथी धारा के लेखकों व संस्कृतिकर्मियों को संगठित करने का प्रयास शुरू हुआ तो उनकी भूमिका नेतृत्वकारी थी। इसी प्रयास का संगठित स्वरूप 1985 में जन संस्कृति मंच के रूप में सामने आया। गुरुशरण सिंह इस मंच के संस्थापक अध्यक्ष बने। उन्होंने चण्डीगढ़ में 25 व 26 अक्तूबर 1986 को मंच का पहला स्थापना समारोह आयोजित किया जो सŸाा के दमन और आतंकवाद के विरुद्ध सांस्कृतिक हस्तक्षेप था।

गुरुशरण सिंह क्रान्तिकारी राजनीतिक आंदोलनों से भी घनिष्ठ रूप से जुड़े थे। कहा जा सकता है कि इन्हीं आंदोलनों ने उनके वैचारिकी का निर्माण किया था। वामपंथ की क्रान्तिकारी धारा इण्डियन पीपुल्स फ्रंट से उनका गहरा लगाव था तथा उसके सलाहकार परिषद के सदस्य थे। भाकपा ;मालेद्ध के कार्यक्रमों में वे गर्मजोशी के साथ शामिल होते थे। वे संस्कृति कर्म तक अपने को सीमित कर देने वाले कलाकार नहीं थे। इसके विपरीत उनकी समझ संस्कृति और राजनीति की अपनी विशिष्टता, सृजनात्मकता तथा स्वायतता पर आधारित उनके गहरे रिश्ते पर जोर देती है।

1980 के दशक में गुरुशरण सिंह ने सांस्कृतिक आंदोलन को संगठित करने के प्रयास में उŸार प्रदेश, बिहार सहित कई राज्यों का दौरा किया। उनकी नाटक टीमें बिहार के पटना व भोजपुर के किसान आंदोलन के संघर्ष के इलाकों में गईं। किसान जनता के बीच नाटक किये। उŸार प्रदेश के तराई के क्षेत्र जैसे पूरनपुर, पीलीभीत, बिन्दुखता, हल्द्वानी, काशीपुर में उनके नाट्य प्रदर्शन हुए। इसी क्रम में वे कई बार लखनऊ भी आये। उन्होंने लखनऊ के एवेरेडी फैक्ट्री गेट, उŸार रेलवे के मंडल कार्यालय के प्रांगण व रेलवे इंस्टीच्यूट, जनपथ मार्केट सहित सड़को व नुक्कड़ों पर ‘गड्ढा’, ‘जंगीराम की हवेली’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और फैज व जगमोहन जोशी के गीतों के द्वारा जो सांस्कृतिक लहर पैदा की, वह आज भी हमें याद है। गुरुशरण सिंह सही मायने में जनता के सच्चे सांस्कृतिक योद्धा थे, ऐसा योद्धा जो हिन्दुस्तान की शक्ल बदलने का सपना देखता है, इंकलाब के लिए अपने को समर्पित करता है और अपनी ताकत शहीदों के विचारों व संघर्षों से तथा लोक संस्कृति से ग्रहण करता है। गुरुशरण सिंह अक्सरहाँ कहा करते थे ‘हमारी लोक संस्कृति की समृद्ध परम्परा नानक, गुरुगोविन्द सिंह और भगत सिंह की है। दुल्हा वट्टी एक मुसलमान वीर था जिसने मुसलमान शासकों के ही खिलाफ किसानों को संगठित किया था - हमारी लोकगाथाएँ यह है। आज के पंजाब और हमारे वतन हिन्दुस्तान को आशिक-माशूक के रूप में न देखा जाय, बल्कि आज के हिन्दुस्तान को, जालिम और मजलूम की शक्ल में देखा जाय, इंकलाब की शक्ल में देखा जाय।’

एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 08400208031, 09807519227

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

निराशा के दौर में उम्मीद के सपने



कौशल किशोर

‘यह आधी जीत है, आधी बाकी है। अनशन अभी स्थगित हुआ है, छूटा नहीं है।’ मतलब साफ है। न अन्ना जीते हैं और न भ्रष्टाचार हारा है। लड़ाई जारी रहेगी। यह पड़ाव है। अभी जन लोकपाल के मात्र तीन बिन्दुओं के प्रस्ताव को संसद ने पारित किया है, वह भी आंदोलन के दबाव से। स्टैण्डिंग कमेटी क्या रुख लेती है, यह आगे की बात होगी। अन्ना की आगे की राह आसान नहीं। पटाखे फोड़ने और जश्न मनाने का आहवाहन है। पर इससे ज्यादा जरूरी है आगे की तैयारी हो। उस झोल पर भी बात होगी जो जन लोकपाल में है तथा इस आंदोलन में भी देखा गया है। जिनने जन लोकपाल में एन जी ओ तथा निजी व कॉरपोरेट जगत को इसकी परिधि में लाने का मुद्दा उठाया है, अब उनके लिए इन मुद्दों पर मुहिम छेड़ने की बारी है।

लोगों ने मान लिया था कि यहाँ कुछ नहीं हो सकता। महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ नहीं किया जा सकता। इसे स्वीकार कर लेने में ही भलाई है। सरकारें बदल कर भी उन्होंने देख लिया। बकौल धूमिल ‘जिसकी पूँछ उठाई, उसको मादा पाया’। सरकार देश की प्रगति और विकास के आँकड़े पेश करने में लगी रही। विकास का मिथक गढ़ा जाता रहा और देश के विश्व की आर्थिक शक्ति बन जाने का खूब ढ़िंढ़ोरा पीटा जाता रहा। पर सच्चाई तो कुछ और ही कहानी कहती रही। आम आदमी के रोजमर्रा की जिन्दगी में कठिनाइयाँ बढ़ती ही गई। गरीब.गुरबा की क्या कहें, मध्यवर्ग तक की परेशानियां बढ गई। उसके खाने में दाल है तो सब्जी गायब हो गई और सब्जी आ गई तो कुछ और चीजें नदारत। भले ही आम आदमी अपना वोट देकर सरकार बनाता और बदलता रहा, पर राजनीति से उसका विलगाव बढ़ता ही गया। सिविल सोसायटी और अन्ना हजारे इसी राजनीतिक शून्यता की उपज हैं।

अन्ना हजारे के आंदोलन की खासियत यह रही कि यह आंदोलन हमारे नागरिक समाज के उस हिस्से को आंदोलित करने में सफल रहा है जो राजनीति से दूरी बनाकर चलता हैं। मौजूदा राजनीति में बढ़ती सड़ांध ने नागरिक समाज में राजनीति के प्रति उदासीनता पैदा की है और आज हालत यह है कि उसका सभी राजनीतिक दलों से करीब करीब मोहभंग हो चुका है। ऐसे में अन्ना हजारे जैसा स्वच्छ व ईमानदार छवि वाला सुधारवादी, गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता जब उन मुद्दांे को लेकर सामने आता है और आमरण अनशन करता है जिनसे नागरिक समाज त्रस्त है तो इसकी अपील समाज में दूर तक जाती है और उसे गहरे रूप में संवेदित करती है। अन्ना हजारे उसे किसी गाँधी या जेपी का नया अवतार जैसे लगते हैं। इस आंदोलन में यही हुआ और नागरिक समाज ने बढ.़चढ कर इसमें भागीदारी की। बल्कि इसकी कमान भी ऐसे लोगों के हाथों में रही जिनकी छवि आमतौर पर अराजनीतिक रही है ।

युवा शक्ति के बारे में यही कहा जाता रहा है कि वह नवउदारवादी चमक दमक का शिकार हो गया है। बाजारवादी व्यवस्था ने इसके अन्दर के प्रतिरोध की ऊर्जा को सोख लिया है। महानगरों से लेकर कस्बों तक फैली यह युवा शक्ति अमेरिका जैसे उन्नत देशों में अपना भविष्य देखती है। ‘राहुल ब्राँड’ इसके आदर्श हैं। इसी युवा शक्ति को हमने अन्ना के आंदोलन में देखा। यह इस आंदोलन की मजबूत ताकत बनकर उभरी। बेशक कई जगह इसमें लम्पटता व अराजकता भी देखने को मिली। इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि आइसा.इनौस जैसे रेडिकल वामपंथी छात्र.युवा संगठनों तथा ‘स्टूडेन्ट एण्ड यूथ अगेंस्ट करप्शन’ रात दिन आंदोलन की तैयारी में लगे रहे। उन्हें दमन भी झेलना पड़ा। इनके द्वारा जो पिछले तीन महीने से भ्रष्टाचार विरोधी संगठित व जुझारू अभियान संचालित किया गया, उसने युवाओं के बीच भ्रष्टाचार विरोध की वैचारिक जमीन तैयार की।

रही बात भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तो शायद ही कोई दिन हो जब लूट और भ्रष्टाचार के खिलाफ वामपंथी व अन्य दलों व जन संगठनों की ओर से धरना, प्रदर्शन न हुआ हो। छोटे.छोटे शहरों से लेकर दिल्ली तक में बड़ी बड़ी रैलियाँ हुई हैं। यहाँ तक कि गाँव.गाँव से, जंगल व आदिवासियों की ओर से विरोध के प्रबल स्वर उठे हैं। चाहे टाटा का कलिंगनगर हो, पोस्को, नियमगिरि इन तमाम जगहों में किसानों का तीखा प्रतिरोध जारी है। इन आंदोलनों की सीमा यह है कि ये बहुत कुछ वैचारिक अभियान बन कर रह जाते हैं और इस विचार पर केन्द्रित हो जाते हैं कि यह व्यवस्था भ्रष्ट है और इसे बदले बिना भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता है। जन लोकपाल से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। इसलिए हमें व्यवस्था बदलाव पर केन्द्रित करना चाहिए। इस संघर्ष में कोई पड़ाव नहीं है। देखने में यही आया कि इस समझ के संगठन और बुद्धिजीवी इस आंदोलन के दौरान इसके मुखर आलोचक थे। इनकी हालत लहरों से जूझते नाविक की न होकर तट पर बैठे तमाशबीन की बनकर रह गई।

पर अन्ना के आंदोलन की विशेषता यह रही कि इन्होंने जन लोकपाल कानून की माँग पर अपने को केन्द्रित किया जिसकी परिधि में सरकार के प्रधानमंत्री से लेकर सांसद व ऊपर से लेकर नीचे के अधिकारी आ सके। भले ही इससे भ्रष्टाचार खत्म हो या न हो लेकिन जनता में इसकी अपील गई। वे अपने रोजमर्रा के जीवन में रोज ही इनसे सताये जाते रहे हैं। जन लोकपाल उन्हें यह विश्वास दिलाता है कि अब उनका काम होगा और नहीं होता है तो कम से कम न्याय के लिए वे लोकपाल के पास जा तो सकते हैं। इस तरह अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की ठोस मांगों को सूत्रबद्ध करने तथा यह प्रचारित करने में सफल रहे कि जन लोकपाल के बन जाने से उन्हें भ्रष्टाचार से राहत मिल जायेगी। एक अपील यह भी थी कि सरकार भ्रष्ट है। वह अन्ना को अनशन तक करने नही देना चाहती। सरकार के दमन ने आंदोलन के लिए आवेजक का काम किया। 16 अगस्त के बाद से लगातार अन्ना पर तरह तरह के दबाव बनाये जाते रहे लेकिन अन्ना ने जिस दृढता का परिचय दिया, वह आंदोलन की दृढता बन गई।

अन्ना का यह आंदोलन भ्रष्टाचार से शुरू हुआ। लेकिन इसने जनता बनाम संसद, सŸाा के विकेन्द्रीकरण, चुनाव सुधार जैसे कई मुद्दों को उठा दिया है। यह पहलु सामने ला दिया है कि हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था रुग्ण हो चुकी है। इसमें सुधार की जरूरत है। अन्ना इसे ‘व्यवस्था परिवर्तन’ कह रहे हैं। अहिंसा के रास्ते सत्याग्रह, अनशन, जन आन्दोलन आदि इनके हथियार हैं। कुछ लोग इसे दबाव की राजनीति या सरकार के साथ ‘ब्लैकमेल’ कहते हुए इसकी आलोचना करते हैं। इस सम्बन्ध में मुझे गाँधी जी की एक बात याद आती है। जब उनसे पूछा गया था कि आपके सपनों का भारत कैसा होगा तो उन्होंने कहा कि स्वराज को प्रत्येक गरीब की कुटिया तक पहुँचाना हम सबका काम होगा और मेरे सपनों का भारत ऐसा होगा जिसमें हर आदमी यह महसूस कर सके कि यह देश उसका है, उसके निर्माण में उसकी आवाज का महत्व है।

पर सच्चाई यह है कि आज आवाज किसी की गूँज रही है तो वह धनपशुओं, दबंगों, राजनीतिक सौदागरों और अपराधियों की है। क्या हमारी संसदीय व्यवस्था इसी आवाज की प्रतिनिधि नहीं होती जा रही है ? ऐसे में क्या संसदीय तानाशाही की जगह लोकशाही को जाग्रत करना जरूरी नहीं ? अन्ना के आंदोलन ने यही किया है, निराशा के दौर में आशा के सपने जगाये हैं। अभी ये सपने हैं, इसे यथार्थ होना बाकी है। इसे कोई ‘दूसरी आजादी’, ‘अरब का वसन्त’ या ‘अगस्त क्रान्ति’ नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। काले अंग्रेजो के राज में उनका काला शरबत पीते.पीते, तिल.तिल कर मरने की जगह कुछ करने का आहवान है जैसा वीरेन डंगवाल अपनी कविता में कहते हैं:

‘हमने यह कैसा समाज रच डाला है
इसमें जो दमक रहा, वह शर्तिया काला है
कालेपन की वे संतानंे
है बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू है हम पर फेर रहीं
बोलो तो कुछ करना है
या काला शरबत पीते.पीते मरना है।’

बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं

कौशल किशोर

बुद्धिजीवी समुदाय से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाज को दिशा देगा। एक बेहतर, मानवीय और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में उसकी कारगर भूमिका होगी। लेकिन इस समुदाय के एक हिस्से द्वारा ऐसे तर्क और विचार दिये जा रहे हैं जिससे यही बात सामने आ रही है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा जनलोकपाल की मांग बेबुनियाद, गलत तथा संविधान विरुद्ध है। अन्ना के आंदोलन का विरोध ऐसे किया जा रहा है जैसे यह कोई अपराधजन्य कार्रवाई है तथा इसके द्वारा संसद, संविधान, कानून के हमारे भव्य व सर्वोच्च ‘लोकतांत्रिक’ मन्दिर को ढ़हा देने की साजिश रची जा रही है।

ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम इस तर्क व विचार को समझे। सवाल है क्या अन्ना के आन्दोलन ने हमारी संसदीय व्यवस्था के लिए वास्तव में संकट पैदा कर दिया है ? यह लोकतांत्रिक ढ़ांचे में पलीता लगा रहा है ? अगर इतिहास को देखें तो हमारा अनुभव यही कहता है कि जनता की पहल, उसका हस्तक्षेप तथा उसके आंदोलनों ने हमेशा संसदीय जनतंत्र को मजबूत करने का काम किया है। यदि इस व्यवस्था के लिए संकट आया है तो शासक वर्ग की तरफ से ही आया है। यह शासक वर्ग ही है जिसने अपने संकीर्ण हितों के लिए संसद, संविधान, कानून आदि का इस्तेमाल किया है तथा जनता के ऊपर लोकतंत्र की जगह अपनी तानाशाही को थोपा है। इस सम्बन्ध में उदाहरणों कमी नहीं हैं।

कहा जा रहा है कि जिस जन लोकपाल को संसद में पारित कराने को लेकर आन्दोलन किया जा रहा है, वह निर्वाचित लोगों द्वारा तैयार नहीं है जबकि संसद एक निर्वाचित संस्था है। क्या संसद सिविल सोसायटी के ‘अनिर्वाचित’ नुमाइन्दों के सामने घुटने टेक दे। तब रघुरमण और निलकेणी की नियुक्ति के बारे में क्या कहा जायेगा ? इनकी नियुक्ति किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत की गई है ? ये निर्वाचित सांसद नहीं है, यहाँ तक कि ये राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। ये तो कारपोरेट कम्पनियों के सीइओ हैं। ये किनके हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं, यह जगजाहिर है।। सरकार द्वारा रणनीतिक महत्व के पदों पर इनकी नियुक्ति क्या संसदीय व्यवस्था को नष्ट करना तथा कारपोरेट हितों का पक्षपोषण करना नहीं है ? ऐसे अनगिनत मामले हैं। वहीं इसके विपरीत नागरिक समाज के कार्यकर्ता सर्वजनिक व्यक्ति हैं। उनके ड्राफ्ट से हमारी सहमति या असहमति हो सकती है। पर उनके ड्राफ्ट के विचार तो सबके सामने खुलकर आये हैं। देश में इस पर व्यापक चर्चा हुई है, लोग आज भी अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना अपने आमरण अनशन तथा आंदोलन द्वारा दबाव की राजनीति कर रहे हैं। यह ‘ब्लैक मेल’ है। इस नजर से देखा जाय तो अनशन, भूख हड़ताल, हड़ताल, धरना, घेराव आदि सब ‘ब्लैक मेल’ ही कहलायेगा जिसका इस्तेमाल मजदूर, किसान और जनता के विभिन्न तबके अपनी माँगों को लेकर करते हैं। लोकतंत्र में आन्दोलन करना, सरकार पर इसके द्वारा दबाव बनाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। जन आन्दोलनों के प्रति यह नजरिया न सिर्फ अलोकतांत्रिक है बल्कि फासिस्ट भी है।

आज इस बात पर बहस तेज है कि संसद और जनता में सर्वोच्च किसे माना जाय ? जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है। उनका दायित्व बनता है कि वह जनहित के लिए काम करे। क्या लोकतंत्र में जनता का अधिकार मात्र पाच साल में एक बार वोट देने तक सीमित रह जाता है ? उसके बाद पाच साल तक वह चुपचाप इन्तजार करे। मैं समझता हूँ ऐसी व्यवस्था संसदीय तानाशाही कहलायेगी, जनतंत्र नहीं। चूँकि यह जनता ही सांसदों व विधायिका को चुनती है। इसलिए उस पर निगरानी रखने, संसद के विविध क्रियाकलाप पर अपना मत जाहिर करने, उस पर आंदोलन और दूसरे तरीके से दबाव बनाने का काम भी जनता का होता है। ऐसे अधिकार उसे संविधान में प्राप्त भी हैं।

इसीलिए जो लोग संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे हैं, वे जनता को संविधान प्रदत अधिकारों से वचित कर देना चाहते हैं। आखिरकार संसद लोकतंत्र में किसके प्रति जिम्मेदार होता है। जनता के प्रति ही तो। लेकिन आज उसकी जिम्मेदारी क्या है ? भले देश की जनता के बड़े हिस्से को बीस रुपये मजदूरी के रूप में बमुश्किल से मिलते हों, पर हमारे प्रतिनिधियों के खर्चे में कोई कमी नहीं आनी चाहिए और अपना वेतन व भŸाा बढ़ाने के सवाल पर वे आमतौर पर एकजुट दिखते हैं। फिर हमारे सांसदों के चरित्र को भी देखा जाना चाहिए। आज इनका चरित्र बहुत कुछ सामंतों या कहिए राजाओं जैसा हो गया है। जनसेवक की जगह ये जनता के मालिक बन गये हैं। हकीकत तो यह है कि आज चार सांसद जेल में है तथा दर्जनों पर आपराधिक मुकदमें है।

हमारे बुद्धिजीवी दोस्त इरोम शर्मिला के पिछले दस साल से जारी भूख हड़ताल से बड़ी सहानुभूति जाहिर करते हैं तथा अन्ना के आन्दोलन पर चर्चा करते हुए इसके बरक्स वे इरोम की भूख हड़ताल की बात करते हुए अन्ना के द्वारा इस मुद्दे पर कुछ न किये जाने की आलोचना करते हैं। लेकिन ये इस सवाल पर चुप्पी साधे दिखते हैं कि यही संसद है जिसने विशेष शस्त्र बल ;अफ्सपाद्ध जैसा कानून बनाया है जिसके विरुद्ध इरोम संघर्षरत है। यही संसद है जिसने तमाम ऐसे कानूनों को संरक्षित कर रखा है जो अंग्रेजों द्वारा बनाये गये। इनके तहत मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह का मुकदमा कायम किया गया। आजतक संसद ने न जाने कितने काले कानून बनाये है। ऐसे ही कानूनों के तहत विनायक सेन को आजीवन कारावस की सजा दी गई तथा आज भी सीमा आजाद, प्रशान्त राही, सुघीर ढ़ावले जैसे अनगिनत लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा जन आन्दोलनों के कार्यकर्ता जेलों में बन्द हैं। क्या झुठलाया जा सकता है कि हमारी संसद कॉरपोरेट हितों तथा नवउदारवादी नीतियों की सबसे बड़ी रक्षक है जिसकी देन भ्रष्टाचार है ?

कभी गाँधी जी ने इंगलैंड की संसद की आलोचना करते हुए कहा था कि यह ‘बाँझ’ और ‘बेसवा’ है जो उसी का काम करती है जो उसे अपने पास रखे। कभी लेनिन ने जारशाही द्वारा गठित रूसी संसद ‘डयूमा’ को ‘सुअरबाड़ा’ कहा था। जो संसद अपने राष्ट्रहित, जनहित के प्रति जिममेदार न हो उसकी स्थिति क्या ऐसी ही नहीं हो जाती। इस रोशनी में हम अपनी संसद को देख सकते हैं। ऐसे में लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन हो तथा भारतीय समाज भ्रष्टाचार मुक्त बने, यही देश की जनता का सपना है। यह लाखों करोड़ों का सपना ही है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा जन लोकपाल के लिए आन्दोलन के रूप में उमड़ पड़ा है। इसे कोई ‘दूसरी आजादी’, ‘अरब का वसन्त’ या ‘अगस्त क्रान्ति’ नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचाना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। संघर्ष और बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं, इसे जिलाये रखना ही आज बौद्धिकों का दायित्व हो सकता है। संसद, संविधान व कानून के नाम पर इस सपने से खेलने को ‘बौद्धिक मक्कारी’ तथा संसदीय बौनापन ही कहा जायेगा।

बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं

कौशल किशोर

बुद्धिजीवी समुदाय से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाज को दिशा देगा। एक बेहतर, मानवीय और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में उसकी कारगर भूमिका होगी। लेकिन इस समुदाय के एक हिस्से द्वारा ऐसे तर्क और विचार दिये जा रहे हैं जिससे यही बात सामने आ रही है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा जनलोकपाल की मांग बेबुनियाद, गलत तथा संविधान विरुद्ध है। अन्ना के आंदोलन का विरोध ऐसे किया जा रहा है जैसे यह कोई अपराधजन्य कार्रवाई है तथा इसके द्वारा संसद, संविधान, कानून के हमारे भव्य व सर्वोच्च ‘लोकतांत्रिक’ मन्दिर को ढ़हा देने की साजिश रची जा रही है।

ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम इस तर्क व विचार को समझे। सवाल है क्या अन्ना के आन्दोलन ने हमारी संसदीय व्यवस्था के लिए वास्तव में संकट पैदा कर दिया है ? यह लोकतांत्रिक ढ़ांचे में पलीता लगा रहा है ? अगर इतिहास को देखें तो हमारा अनुभव यही कहता है कि जनता की पहल, उसका हस्तक्षेप तथा उसके आंदोलनों ने हमेशा संसदीय जनतंत्र को मजबूत करने का काम किया है। यदि इस व्यवस्था के लिए संकट आया है तो शासक वर्ग की तरफ से ही आया है। यह शासक वर्ग ही है जिसने अपने संकीर्ण हितों के लिए संसद, संविधान, कानून आदि का इस्तेमाल किया है तथा जनता के ऊपर लोकतंत्र की जगह अपनी तानाशाही को थोपा है। इस सम्बन्ध में उदाहरणों कमी नहीं हैं।

कहा जा रहा है कि जिस जन लोकपाल को संसद में पारित कराने को लेकर आन्दोलन किया जा रहा है, वह निर्वाचित लोगों द्वारा तैयार नहीं है जबकि संसद एक निर्वाचित संस्था है। क्या संसद सिविल सोसायटी के ‘अनिर्वाचित’ नुमाइन्दों के सामने घुटने टेक दे। तब रघुरमण और निलकेणी की नियुक्ति के बारे में क्या कहा जायेगा ? इनकी नियुक्ति किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत की गई है ? ये निर्वाचित सांसद नहीं है, यहाँ तक कि ये राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। ये तो कारपोरेट कम्पनियों के सीइओ हैं। ये किनके हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं, यह जगजाहिर है।। सरकार द्वारा रणनीतिक महत्व के पदों पर इनकी नियुक्ति क्या संसदीय व्यवस्था को नष्ट करना तथा कारपोरेट हितों का पक्षपोषण करना नहीं है ? ऐसे अनगिनत मामले हैं। वहीं इसके विपरीत नागरिक समाज के कार्यकर्ता सर्वजनिक व्यक्ति हैं। उनके ड्राफ्ट से हमारी सहमति या असहमति हो सकती है। पर उनके ड्राफ्ट के विचार तो सबके सामने खुलकर आये हैं। देश में इस पर व्यापक चर्चा हुई है, लोग आज भी अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना अपने आमरण अनशन तथा आंदोलन द्वारा दबाव की राजनीति कर रहे हैं। यह ‘ब्लैक मेल’ है। इस नजर से देखा जाय तो अनशन, भूख हड़ताल, हड़ताल, धरना, घेराव आदि सब ‘ब्लैक मेल’ ही कहलायेगा जिसका इस्तेमाल मजदूर, किसान और जनता के विभिन्न तबके अपनी माँगों को लेकर करते हैं। लोकतंत्र में आन्दोलन करना, सरकार पर इसके द्वारा दबाव बनाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। जन आन्दोलनों के प्रति यह नजरिया न सिर्फ अलोकतांत्रिक है बल्कि फासिस्ट भी है।

आज इस बात पर बहस तेज है कि संसद और जनता में सर्वोच्च किसे माना जाय ? जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है। उनका दायित्व बनता है कि वह जनहित के लिए काम करे। क्या लोकतंत्र में जनता का अधिकार मात्र पाच साल में एक बार वोट देने तक सीमित रह जाता है ? उसके बाद पाच साल तक वह चुपचाप इन्तजार करे। मैं समझता हूँ ऐसी व्यवस्था संसदीय तानाशाही कहलायेगी, जनतंत्र नहीं। चूँकि यह जनता ही सांसदों व विधायिका को चुनती है। इसलिए उस पर निगरानी रखने, संसद के विविध क्रियाकलाप पर अपना मत जाहिर करने, उस पर आंदोलन और दूसरे तरीके से दबाव बनाने का काम भी जनता का होता है। ऐसे अधिकार उसे संविधान में प्राप्त भी हैं।

इसीलिए जो लोग संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे हैं, वे जनता को संविधान प्रदत अधिकारों से वचित कर देना चाहते हैं। आखिरकार संसद लोकतंत्र में किसके प्रति जिम्मेदार होता है। जनता के प्रति ही तो। लेकिन आज उसकी जिम्मेदारी क्या है ? भले देश की जनता के बड़े हिस्से को बीस रुपये मजदूरी के रूप में बमुश्किल से मिलते हों, पर हमारे प्रतिनिधियों के खर्चे में कोई कमी नहीं आनी चाहिए और अपना वेतन व भŸाा बढ़ाने के सवाल पर वे आमतौर पर एकजुट दिखते हैं। फिर हमारे सांसदों के चरित्र को भी देखा जाना चाहिए। आज इनका चरित्र बहुत कुछ सामंतों या कहिए राजाओं जैसा हो गया है। जनसेवक की जगह ये जनता के मालिक बन गये हैं। हकीकत तो यह है कि आज चार सांसद जेल में है तथा दर्जनों पर आपराधिक मुकदमें है।

हमारे बुद्धिजीवी दोस्त इरोम शर्मिला के पिछले दस साल से जारी भूख हड़ताल से बड़ी सहानुभूति जाहिर करते हैं तथा अन्ना के आन्दोलन पर चर्चा करते हुए इसके बरक्स वे इरोम की भूख हड़ताल की बात करते हुए अन्ना के द्वारा इस मुद्दे पर कुछ न किये जाने की आलोचना करते हैं। लेकिन ये इस सवाल पर चुप्पी साधे दिखते हैं कि यही संसद है जिसने विशेष शस्त्र बल ;अफ्सपाद्ध जैसा कानून बनाया है जिसके विरुद्ध इरोम संघर्षरत है। यही संसद है जिसने तमाम ऐसे कानूनों को संरक्षित कर रखा है जो अंग्रेजों द्वारा बनाये गये। इनके तहत मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह का मुकदमा कायम किया गया। आजतक संसद ने न जाने कितने काले कानून बनाये है। ऐसे ही कानूनों के तहत विनायक सेन को आजीवन कारावस की सजा दी गई तथा आज भी सीमा आजाद, प्रशान्त राही, सुघीर ढ़ावले जैसे अनगिनत लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा जन आन्दोलनों के कार्यकर्ता जेलों में बन्द हैं। क्या झुठलाया जा सकता है कि हमारी संसद कॉरपोरेट हितों तथा नवउदारवादी नीतियों की सबसे बड़ी रक्षक है जिसकी देन भ्रष्टाचार है ?

कभी गाँधी जी ने इंगलैंड की संसद की आलोचना करते हुए कहा था कि यह ‘बाँझ’ और ‘बेसवा’ है जो उसी का काम करती है जो उसे अपने पास रखे। कभी लेनिन ने जारशाही द्वारा गठित रूसी संसद ‘डयूमा’ को ‘सुअरबाड़ा’ कहा था। जो संसद अपने राष्ट्रहित, जनहित के प्रति जिममेदार न हो उसकी स्थिति क्या ऐसी ही नहीं हो जाती। इस रोशनी में हम अपनी संसद को देख सकते हैं। ऐसे में लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन हो तथा भारतीय समाज भ्रष्टाचार मुक्त बने, यही देश की जनता का सपना है। यह लाखों करोड़ों का सपना ही है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा जन लोकपाल के लिए आन्दोलन के रूप में उमड़ पड़ा है। इसे कोई ‘दूसरी आजादी’, ‘अरब का वसन्त’ या ‘अगस्त क्रान्ति’ नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचाना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। संघर्ष और बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं, इसे जिलाये रखना ही आज बौद्धिकों का दायित्व हो सकता है। संसद, संविधान व कानून के नाम पर इस सपने से खेलने को ‘बौद्धिक मक्कारी’ तथा संसदीय बौनापन ही कहा जायेगा।

राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’


कौशल किशोर

प्रेमचंद ने आज से 75 साल पहले अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ की रचना की थी। यह भारतीय किसान की त्रासदी और उसके संघर्ष की कहानी है। उपन्यास का नायक होरी इसका प्रतिनिधि पात्र है। वह कर्ज और सूदखोरी पर आधारित महाजनी सभ्यता का शिकार होता है। इस व्यवस्था द्वारा वह तबाह.बर्बाद कर दिया जाता है। उसका सब कुछ लूट लिया जाता है। उसकी जमीन, माल मवेशी सब छिन जाते हैं। वह दूसरों के खे पर काम करने वाले मजदूर में तब्दील हो जाता है और अन्त में इस क्रूर व्यवस्था के हाथों मार दिया जाता है।

देश आजाद हुआ, लेकिन होरी आजाद नही ंहुआ। आजादी के चौसठ साल बाद भी होरी मर रहा है, एक नहीं, हजारों.लाखों की तादाद में। साम्राज्यवादी.पूँजीवादी व्यवस्था का वह शिकार है। उसकी जमीनें छीनी जा रही हैं। कर्ज में डूबा वह आत्महत्या करने को मजबूर है। अन्न पैदा करने वाला किसान अन्न के लिए मोहताज हो गया है। भूख से मरना आजाद हिन्दुस्तान में उसकी नियति बन गई। यह व्यवस्था हृदयहीन, क्रूर और पाखण्डी हो गई है। राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ हमारी चौसठ साला आजादी के इसी यथार्थ को सामने लाता है। ‘गाँधी ने कहा’, ‘सŸा भाषे रैदास’, ‘अम्बेडकर और गाँधी’, ‘द लास्ट सैल्यूट’ जैसे व्यवस्था विरोधी और यथार्थवादी नाटकों के लिए चर्चित नाटककार राजेश कुमार का यह नया नाटक है जिसका मंचन अभी हाल में लखनऊ के संत गाडगे प्रेक्षागृह, संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाहजहाँपुर की नाट्य संस्था ‘थर्ड बेल’ द्वारा किया गया। इसका निर्देशन चन्द्रमोहन ‘महेन्द्रू’ ने किया। अलग दुनिया के सौजन्य से इस नाटक का मंचन लखनऊ में संभव हुआ।

‘सुखिया मर गया भूख से’ की कहानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले की है। एक गरीब किसान की भूख से मृत्यु हुई। इस घटना के सच को दबाने और उसे पलटने के लिए नौकरशाही द्वारा जो कुचक्र रचा गया, यह नाटक इसी सच्ची घटना पर आधारित है। सरकार द्वारा यह प्रचारित है कि उसके शासन में किसान चाहे जिस भी वजह से मरे लेकिन उसे भूख से नहीं मरना चाहिए। यदि कोई किसान भूख से मरता है तो इसके लिए उस जिले का प्रशासन खासतौर से डी0 एम0 जिम्मेदार माना जायेगा। मुख्यमंत्री कार्यालय से जिले में यह सूचना आती है कि सुखिया नाम का किसान भूख से मर गया है। कार्यालय को चौबीस घंटे के भीतर इसकी रिपोर्ट चाहिए। फिर क्या ? डी एम से लेकर तहसीलदार, एस पी से लेकर दरोगा, बी डी ओ से लेकर डॉक्टर तथा ग्राम प्रधान सब मिलकर ऊपर से लेकर नीचे तक जिले के सारे अधिकारी मामले को दबाने के कार्य में जुट जाते हैं।

सुखीराम उर्फ सुखिया इस नाटक का केन्द्रीय पात्र है। इसकी कहानी एक गरीब किसान के जीवन और संघर्ष की कहानी है। इस अर्थ में वह आज के गरीब किसान का प्रतिनिधित्व करता है। सुखिया ने खेती के लिए कर्ज क्या लिया, उसके जीवन में आफत आ गई। मूल से कई गुना उसका सूद हो जाता है। इसकी अदायगी में उसका खेत बिक जाता है। पत्नी और चार बच्चों का उसका परिवार कैसे चले ? अन्न पैदा करने वाला सुखीराम स्वयं एक एक दाने के लिए मोहताज हो जाता है। वह भूखा प्यासा काम की तलाश में दर दर भटकता है। उसे काम मिलता है लेकिन कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। इस हालत में उसे चक्कर आता है, बोहोश हो गिर पड़ता है और वहीं दम तोड़ देता है। उसकी पत्नी व बच्चे सब अनाथ हो जाते हैं। उनके पास रोने और आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता है।

सुखिया के भूख से मरने की खबर जिला प्रशासन को मुख्यमंत्री कार्यलय से आती है। फिर जिला प्रशासन द्वारा सुखिया की खोजाई शुरू होती है और सारा तंत्र सुखिया की भूख से हुई मौत को गलत साबित करने में जुट जाता है। उसके घर में अनाज भर ही नहीं दिया जाता है, बल्कि उसे चारो तरफ इस तरह फैला दिया जाता है ताकि यह पता चल सके कि उसके घर में अन्न को कोई किल्लत नहीं है। उसके नाम बी पी एल कार्ड जारी किया जाता है। उसमें यह इन्ट्री दिखाई जाती है कि वह नियमित रूप से अपने कार्ड पर अनाज उठाता रहा है। झटपट उसके नाम नरेगा का जॉब कार्ड बनता है तथा बैंक में खाता खोल दिया जाता है। उसके खाते में बारह हजार रुपये भी जमा कर दिये जाते हैं। सुखिया के मृत शरीर में मुँह के रास्ते अनाज भर दिया जाता है तथा हवा पम्प कर पेट इतना फूला दिया जाता है जिससे यह साबित हो जाय कि सुखाई की मौत भूख से नहीं, अत्यधिक खाने से हुई है। डाक्टर द्वारा पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी यही दिखाया जाता है। इस तरह भूख से हुई मौत की कहानी को अधिक खाने से हुई मौत में बदल दिया जाता है और वे सारे प्रमाण जुटा दिये जाते हैं जिससे साबित किया जा सके कि सुखिया एक सम्पन्न किसान था। उसकी मौत भूख से हो ही नहीं सकती थी।

डी एम का मुआयना होता है। वह मीडिया के सामने आता है और यह घोषित करता है कि सुखीराम की मौत भूख से नहीं हुई है और उनके जिले में इस तरह की कोई घटना हुई ही नहीं है। वह मुआवजे की घोषणा करता है। मीडिया भी सुन्दर व चमकदार वस्त्र पहना कर बच्चों की तस्वीरे उतारता है। इस तरह पूरा तंत्र जिसमें मीडिया तक शामिल हैं किसान की भूख से हुई मौत की सच्ची व दर्दनाक घटना को गलत साबित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देता है और सुखिया की पत्नी इमरती देवी और उसके बच्चों को ऐसी हालत में छोड़ जाता है जहाँ उनके पास अपनी आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता।

यह नाटक सुखिया के माध्यम से आज की सŸाा और व्यवस्था से हमें रु ब रु कराता है। यह ‘जनतांत्रिक’ व्यवस्था कितनी फर्जी, आम आदमी और उसकी समस्याओं से कटी, संवेदनहीन औ अमानवीय हो गई है, नाटक इसके जनविरोधी चरित्र को उजागर करता है। नाटक में इसके विरुद्ध प्रतिरोध भी है और यह किसानों के आक्रोश व गुस्से को भी सामने लाता है। इस प्रतिरोध के लिए नाटक में फैंटेसी की रचना की गई है। इस प्रतिरोध का नायक सुखिया का प्रेत है। सुखिया का प्रेत तंत्र द्वारा गढ़े गये एक एक झूठ का पर्दाफाश करता है। वह यमराज से भी संघर्ष करता है जो इस तंत्र का समर्थक है। उस वक्त सुखिया का प्रतिरोध अपने चरम रूप में अभिव्यक्त होता है जब उसके जीवन की सच्चाई को व्यवस्था द्वारा झूठ साबित कर दिया जाता है और झूठ को सच के रूप में स्थापित किया जाता है। वह झूठ के तंत्र पर अपनी पूरी ताकत से टूट पड़ता है। नाटक कबीर की इस कविता के साथ समाप्त होता है ‘हम ना मरिबे मरिहें संसारा/हमको मिलिहाँ लड़ावनहारा..../हम न मरिबे, अब न तरबे/करके सारे जतन भूख से लड़बै/जब दुनिया से भूख मिटावा/तब मरिके हम सुख पावा’।

संसार भले खत्म हो जाय लेकिन हम नहीं मरेंगे, नाटक किसान के जीने की जबरदस्त इच्छा शक्ति को सामने लाता है और यह संदेश देता है कि भूख पैदा करने वाली व्यवस्था को समाप्त करके ही किसान को सच्चा सुख मिल सकता है। राजेश कुमार का यह नाटक भूख से हुई मौत और किसानों की आत्महत्या के विरुद्ध प्रतीत होता है लेकिन अपने मूल रूप में यह मौजूदा व्यवस्था तथा इस तंत्र के खिलाफ है। आज जब महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तथा व्यवस्था की लूट व दमन के विरुद्ध देश में आन्दोलन तेज है, ऐसे दौर में नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ का महत्व बढ़ जाता है। यह प्रतिरोध की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है जो जन चेतना को आगे बढ़ाता है।

नाटक में अशोक अंजुम और अशोक मिश्र के गीतों का इस्तेमाल हुआ है। चुटीले संवाद, व्यंग्य, एक्शन, गीत.संगीत आदि नाटक को गतिमय बनाये रखता है। लेकिन कई जगह संगीत और वाद्ययंत्र की आवाज लाउड हो गई है जिसकी वजह से गीत के बोल दब जाते हैं। इसी तरह कई जगह व्यंग्य पर हास्य हावी हो जाता है। वैसे ‘थर्ड बेल’ द्वारा इसकी यह पहली प्रस्तुति है। कलाकारों और निर्देशक के परिश्रम और प्रतिबद्धता को देखते हुए आशा की जानी चाहिए कि आगे की इसकी प्रस्तुति और बेहतर और सुगठित होगी।

बुधवार, 6 जुलाई 2011

अन्ना हजारे से सहमत हों या असहमत भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जरूरी है


कौशल किशोर

आज अन्ना हजारे और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को लेकर कई सवाल उठाये जा रहे हैं। साहित्यकार मुद्राराक्षस ने (जनसंदेश टाइम्स, 4 जुलाई 2011) आरोप लगाया है कि अन्ना भाजपा व राष्ट्रीय सेवक संघ का मुखौटा हैं और अन्ना के रूप में इन्हें ‘आसान झंडा’ मिल गया है। जन लोकपाल समिति में ऐसे लोग शामिल हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। अन्ना हजारे की यह माँग कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में ले आया जाय, संविधान के विरुद्ध है। मुद्राराक्षस ने यहाँ तक सवाल उठाया है कि अन्ना और उनकी सिविल सोसायटी पर संसद और संविधान की अवमानना का मुकदमा क्यों न दर्ज किया जाय ? ऐसे में अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पड़ताल जरूरी है क्योंकि आज यह आन्दोलन अपने अगले चरण की ओर अग्रसर है और जन आंदोलन की शक्तियाँ वैचारिक और सांगठनिक तैयारी में जुटी हैं।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि तमाम पार्टियाँ सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं। वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे भरने के लिए सिविल सोसाइटी और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे इसी यथार्थ की उपज हैं।

इस आंदोलन में, अन्ना हजारे के व्यक्तित्व और विचार में कमियाँ और कमजोरियाँ मिल सकती हैं। वे गाँधीवादी हैं। खुद गाँधीजी अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद स्वाधीनता आन्दोलन के बड़े नेता रहे हैं। इसी तरह अन्ना हजारे के विचारों और काम करने के तरीकों में अन्तर्विरोध संभव है लेकिन इसकी वजह से उनके आन्दोलन के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। इस आन्दोलन का सबसे बड़ा महत्व यही है कि इनके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद््दा आज केन्दीय मुद्दा बन गया है जिसने समाज के हर तबके को काफी गहरे संवेदित किया है और इसे खत्म करने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं। अन्ना हजारे और उनके आंदोलन की इस उपलब्धि को क्या अनदेखा किया जा सकता है कि 42 सालों से सरकार के ठंढ़े बस्ते में पड़ा लोकपाल विधेयक बाहर आया, उसे मजबूत और प्रभावकारी बनाने की चर्चा हो रही है, और इस पर सर्वदलीय बैठक आयोजित हुई।

हमारे यहाँ ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं जो हर आन्दोलनों से रहते तो दूर हैं, पर सूँघने की इनकी नाक बड़ी लम्बी होती है। हर ओर इन्हें साजिश ही नजर आती है। ये अन्ना द्वारा नरेन्द्र मोदी की तारीफ पर तो खूब शोर मचाते हैं, लेकिन इस सम्बन्ध में अन्ना ने जो सफाई दी, वह इन्हें सुनाई नहीं देता है। किसानों की आत्म हत्या, बहुराष्ट्रीय निगमों का शोषण, चालीस करोड़ से ज्यादा लोगों का गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन के लिए बाध्य किया जाना जैसे मुद्दे तो इन्हें संवेदित करते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जब प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात आती है तो वह उन्हें देश में आजादी के बाद पहली बार अल्पसंख्यक सिख समुदाय के प्रधानमंत्री को अपमानित करने का षडयंत्र नजर आता है। अपनी बौखलाहट में ये अन्ना और सिविल सोसाइटी पर जाँच बैठा कर मुकदमा चलाने की माँग करते हैं। ये इस सच्चाई को भुला बैठते हैं कि प्रधानमंत्री किसी समुदाय विशेष का न होकर वह सरकार का प्रतिनिधि होता है। हमारे इन बौद्धिकों को अन्ना द्वारा किसान आत्महत्याओं पर भूख हड़ताल न करने पर शिकायत है लेकिन किसान आंदोलनों पर सरकार के दमन पर ये चुप्पी साध लेते हैं।

हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार पूँजीवाद की देन है और खासतौर से 1990 के बाद सरकार ने जिन उदारवादी आर्थिक नीतियों पर अमल किया है, उसी का परिणाम है। यह पूँजीवाद लूट और दमन की व्यवस्था है। इसलिए अगर भ्रष्टाचार मिटाना है तो हमें पूँजीवाद और अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के विरुद्ध व्यापक आंदोलन और जागरण का अभियान चलाने की जरूरत है। यही वह जगह है जहाँ भाजपा जैसे दलों के लिए स्पेस नहीं रह जाता है। इस मामले में भाजपा काँग्रेस से बहुत अलग नहीं है। भले ही आज आन्दोलन से तात्कालिक लाभ बटोरने के लिए भाजपा जैसे दल अन्ना को समर्थन दे रहे हों तथा भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलित हों लेकिन जैसे जैसे आंदोलन अपने तीखे रूप में आगे बढ़ेगा, इन्हें हम आंदोलन से बाहर ही देखेंगे।

कहा जा रहा है कि अन्ना हजारे जिस लोकपाल को लाना चाहते हैं, वह संसद और सविधान की अवमानना है। पर सच्चाई क्या है ? हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई मजबूत कानून की व्यवस्था नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो, इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय।

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात को लेकर मतभेद है लेकिन अतीत में प्रधानमंत्री जैसे पद पर जब अंगुली उठती रही है तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है। सर्वदलीय बैठक में कई दलों के प्रवक्ता ने प्रधानमंत्री को इस दायरे में लाने की बात कही है और स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनसे मिलने गये सम्पादकों से कहा कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। फिर समस्या क्या है ? हमारा संविधान भी कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है। अगर भ्रष्टाचार कैसर जैसी असाध्य बीमारी का रूप ले चुका है तो उसका उपाय भी तो उसी स्तर पर करना होगा। ऐसे में सांसदो और राजनीतिक दलों की नैतिकता दांव पर है और सारे देश का ध्यान इस ओर है कि मानसून सत्र में देश का संसद लोकपाल विधेयक पर क्या रुख अपनाता है। इसके पास भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छा शक्ति है या नहीं ?

अन्त में, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लम्बी है। मजबूत और प्रभावकारी लोकपाल का गठन इसका पहला चरण हो सकता है। हम अन्ना हजारे से सहमत हो सकते है, असहमत हो सकते हैं या उनके विरोधी हो सकते है लेकिन यदि हम समझते है कि भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्र, समाज, जीवन, राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहा है तो समय की माँग है कि इस संघर्ष को अन्ना हजारे और उनके चन्द साथियों पर न छोड़कर देश के जगरूक नागरिक, देशभक्त, बुद्धिजीवी, ईमानदार राजनीतिज्ञ, लोकतांत्रिक संस्थाएँं, जन संगठन आगे आयें और इसे व्यापक जन आंदोलन का रूप दें।

एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 09807519227, 08400208031