गुरुवार, 12 मई 2011

लोकरंग - 2011 भड़ैती व फूहड़पन के विरुद्ध जन संस्कृति का अभियान





कौशल किशोर

हमारे यहाँ लोक संस्कृति की समृद्ध परम्परा रही है, पर आज इसे शक्तिविहीन कर लोकरुचि को नष्ट. भ्रष्ट करने का माध्यम बनाया जा रहा है। इसे फूहड़पन, अश्लीलता, भड़ैती का पर्याय बनाकर परोसा जा रहा है। उŸार प्रदेश के पूर्वांचल से लेकर इससे सटे बिहार तक फैली पट्टी में इसी से भोजपुरी की पहचान बनाई जा रही है। अश्लील भोजपुरी फिल्मों और गानों की तो जैसे बाढ़ आ गई है। बाजार की शक्तियों ने लोकगीतों को अपने मुनाफे का साधन बना दिया है। सरकार की लोक सांस्कृतिक नीति भी यही है कि इसे बाजार की वस्तु बना दिया जाय, देश व दुनिया के बाजार में माल की तरह या सरकारी आयोजनों में दिखावे व प्रदर्श
न की वस्तु बनाकर पेश किया जाय।

ऐसे में इस अपसंस्कृति का प्रतिरोध व विकल्प के बतौर लोक संस्कृति के जन सांस्कृतिक मूल्यों के संवर्द्धन के लिए ‘लोकरंग’ का आयोजन पूर्वांचल की इस पट्टी में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक घटना है जो गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर से कोई बीस किलोमीटर दूर जोगिया जनूबा पट्टी, फाजिलनगर में पिछले चार सालों से आयोजित हो रहा है। सांस्कृतिक भड़ैती व फूहड़पन के प्रभाव वाले इस क्षेत्र में हिन्दी कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा के संयोजन में लोकरंग सांस्कृतिक समिति के इस अभियान से परिवर्तन की नई लहर को महसूस किया जा सकता है, खासतौर से इसने नौजवानों में नई संस्कृतिक चेतना पैदा की है और देश के संस्कृतिप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित किया है। यही कारण है कि देश के कई प्रान्तों से संस्कृतिकर्मी, लेखक व कलाकार यहाँ जुटते हैं, नाट्य व गायन मंडलियाँ यहाँ आती हैं और इस लोक सांस्कृतिक अभियान में हर साल नया रंग भरती
हैं।

इसी क्रम में बीते 26 व 27 अप्रैल को दो दिवसीय लोकरंग-2011 का आयोजन हुआ जिसमें विविध लोककलाओं, लोकगीतों, नाटकों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रदर्शन किया गया। पूर्वी उŸार प्रदेश के विद्रोही स्वर रामाधार त्रिपाठी ‘जीवन’ (1903-1977) की याद को समर्पित इस बार के ‘लोकरंग’ की खासियत यह थी कि यह आयोजन गाँव में नवनिर्मित परिसर तथा मुक्ताकाशी मंच पर हुआ। यह परिसर कलाकारों के लिए सारी सुविधाओं से सुसज्जित था। यहाँ कलाकारों के ठहरने से लेकर उनके सजने-संवरने की व्यवस्था थी। नये परिसर का निर्माण कोई सामान्य सी घटना नहीं है, यह उस संकल्प व प्रतिबद्धता का प्रतीक है जो अपसंस्कृति के विरुद्ध संघर्ष के जज्बे से पैदा हुआ है। यह इस बात का भी प्रतीक बनकर उभरा है कि कोई चार साल पहले पूर्वांचल में गायन, वादन, नृत्य, नाटक, साहित्य आदि के लोककला रूपों के प्रदर्शन के माध्यम से जो यात्रा शुरू हुई थी, उसने सघनता और स्थाईत्व ग्रहण कर लिया है।

लोकरंग-2011 का उदघाटन हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक व जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ मैनेजर पाण्डेय ने किया। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि लोक संस्कृति में लोक की ताकत, आपस में जोड़ने की श्क्ति, गति और वातावरण को अपने में समेटने की क्षमता होती है। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से लोककलाएँ भाषा व बोलियों की दीवार को तोड़ देती हैं तथा इसकी गूँज दूर.दूर तक सुनी व समझी जाती हैं। विद्यापति मैथिली के कवि हैं, मीरा बाई राजस्थान की हैं लेकिन इन्हें देश के हर हिस्से में सुना व समझा जाता है। लोककलाएँ हमें गतिशील बनाती हैं। जहाँ हम हैं, उससे ऊपर उठाती हैं तथा बेहतर मनुष्य बनाती हैं। अपने इन्हीं मानवीय मूल्यों की वजह से आज भी लोक संस्कृति और लोक कला हमारे लिए प्रेरक व मूल्यवान हैं। लेकिन आज बाजार की शक्तियाँ लोककलाओं को निगल जाना चाहती हैं। ऐसे में ‘लोकरंग’ जैसे कार्यक्रम लोककलाओं को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मैनेजर पाण्डेय ने इस मौके पर प्रकाशित ‘लोकरंग -2’ पुस्तक तथा
लोकरंग-2011 स्मारिका का लोकार्पण भी किया।

मैनेजर पाण्डेय ने लोक संस्कृति की जिन विशेषताओं की चर्चा अपने सम्बोधन में की, उसकी झलक लगातार लोकरंग के कार्यक्रम में मिलती रही। कार्यक्रम की शुरुआत जोगिया जनूबा पट्टी गाँव की महिलाओं के सोहर व कजरी गायन से हुआ। यहाँ परदे में रहने वाली गाँव की महिलाओं के अन्दर कीं दबी.छिपी कला अभिव्यक्त हो रही थी - ‘रिमझिम बरसेला सवनवा, नाहीं अइने मोहनवा ना.....’। मीरा कुशवाहा और उनके साथियों के गीत में जहाँ विरह वेदना थी, वहीं हिरावल, पटना के कलाकार सुमन कुमार और साथियों ने गोरख पाण्डेय के गीत ‘एक दिन राजा मरले आसमान में उड़त मैना...’ और ‘जनता के आवे पलटनिया हिलेला झकझोर दुनिया....’ सुनाकर दुनिया को बदल देने वाली जन की शक्ति से परिचित कराया। जौरा बाजार के चिंतामणि प्रजापति और उनके साथियों द्वारा खजड़ी वादन तथा निर्गुन गायन प्रस्तुत किया गया। अंटू तिवारी ने भोजपुरी गीतों के द्वारा अपनी माटी से श्रोताओं को रु-ब-रु कराया।

जहाँ पिछले साल लोकरंग में छŸाीसगढ़ व बुंदेलखण्ड की लोक संस्कृतियों की छटा बिखरी थी,
वहीं इस बार अवधी लोक समूह, फैजाबाद द्वारा प्रस्तुत फरुवाही नृत्य ने तो सभी को रोमांचित कर दिया। शीतला प्रसाद वर्मा के निर्देशन में तैयार इस नृत्य में कलाकारों की गति व लयबद्धता सभी को मंत्रमुग्ध कर देने वाली थी। गौरतलब है कि यह नृत्य फसल के तैयार होने और कटाई के समय किया जाता है। लोकरंग के इस आयोजन में जहाँ दर्शकों ने महोबा शैली में चन्द्रभान सिंह यादव और उनके साथियों के आल्हा गायन का आस्वादन किया, व
हीं बुन्देली कछवाहा समाज द्वारा अवधूती शब्दों के गायन का आनन्द लिया। देवी दयाल कुशवाहा, रामरती कुशवाहा और उनके साथियों द्वारा पेश किये इस गायन का नेतृत्व डॉ0 रामभजन सिंह ने किया। इस तरह लोकरंग के इस आयोजन में एक साथ न सिर्फ भोजपुरी बल्कि अवघी और बुन्देली लोक गायन व कला का प्रदर्शन हुआ।

लोकरंग के मंच पर लोगों को लोक कलाकर भिखारी ठाकुर का नाटक भी देखने को मिला। अवसर था संजय उपाध्याय के निर्देशन में निर्माण कला मंच पटना की नाट्य प्रस्तुति ‘बिदेसिया’। लोक नाट्य विधा की यही खूबी है कि इसमें सिर्फ कथ्य, संवाद व अभिनय ही नहीं होता, यहाँ गायन, स्वर, नृत्य, एक्शन, भाव आदि का भी समिश्रण होता है। यह सब ‘बिदेसिया’ में था। नाटक खत्म होने के बाद भी लोगों के दिलो-दिमाग
पर बिदेसिया के दृश्य गूँजते रहे। आज भी यह कहानी उन्हें अपनी लग रही थी। भले ही कल युवक अपनी रोजी-रोटी की तलाश में कलकŸाा जैसे शहर जा बिदेसिया बन जाते थे और उसके मायाजाल में फँस जाते थे, पर पलायन की यह प्रवृŸिा आज भी जारी है। युवकों का विदेश की ओर तेजी से पलायन आज भी हो रहा है। ब्रेन माइग्रेशन की यही
कहानी है भिखारी ठाकुर के ‘बदेसिया’ की। कलाकारों के उत्कृष्ट अभिनय, संवाद, नृत्य, गायन ने ऐसा समा बाँधा था कि लोग कह उठे - ‘हमहूँ देखली भिखारी के तमाशा’। लोग जिन्होंने भिखारी ठाकुर का नाम सुन रखा था, पar उनकी कला से परिचय नहीं था, उनके लिए भिखारी और उनकी कला सजीव हो उठी थी।

ऐसा ही भाव निर्माण कला मंच की दूसरी नाट्य प्रस्तुति ‘हरसिंगार’ में भी देखने को मिला। संजय उपाध्याय के निर्देशन में मंचित यह नाटक इस बात को सामने लाता है कि बाजारवाद ने हमारे समाज के हर महत्वपूर्ण पद को, रिश्तों को सतही बना दिया है। यह नाटक अपने बिखरे वितान में इसी पतनशील प्रवृŸिा को टटोलने की कोशिश करता है। पारम्परिक लोक नाट्य ‘डोमकच’ के हरबिसना व हरबिसनी की यह कथा छल-फरेब में फँसती है। ये ठगी का शिकार होते हैं। यह कथा स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के कई अनछुए पहलुओं को उजागर करती है और अंततः जीवन के जीत की गाथा में बदल जाती है।

लोकरंग के आयोजन की खासियत रही है कि यहाँ न सिर्फ लोककलाओं के विविध कार्यक्रम होते हैं बल्कि इनके साथ-साथ लोक संस्कृति की वैचारिकी पर भी चर्चा होती है। जहाँ पिछले साल विचार गोष्ठी का विषय था ‘लोकगीतों की प्रासंगिकता’, वहीं इस बार चर्चा का विषय था ‘लोक संस्कृति में मिथ की प्रासंगिकता’। इस गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि मिथक, लोककथा, लोकगाथा, लोक रीति, लोक विश्वास, लोकरुचि, लोक रीति-रिवाज आदि सब एक नहीं है। इनका अलग-अलग रूप व अर्थ है। मनुष्य का सबसे पहले सामना सूरज से हुआ। इसे लेकर मिथ की रचना हुई, चाहे बोध कृतज्ञता से हुई हो या भय से। इसी तरह तमाम कथाएँ रची गईं। कथा तो स्वाभाव से मिथकीय होती है। मिथकों के आधार पर ही महाकाव्यों की रचना हुई। देवता का बनाना भी मिथकीय क्रिया है।

मैनेजर पाण्डेय ने इतिहास से मिथकों के गहरे रिश्ते को समझने पर जोर देते हुए कहा कि मिथकों को बेवजह महिमा मंडित करने की जरूरत नहीं है। बल्कि ज्यादा जरूरी है कि मिथकों का वर्गीय आधार पर विश्लेषण किया जाय। आधुनिक सŸाा ने भूमण्डलीकरण का मिथक कि इसका कोई विकल्प नहीं, विचारधारा का अंत हो गया है जैसे मिथक गढ़े हैं। देश की सरकार भी आज विकास का मिथक गढ़ रही है और इसका आईना दलाल स्ट्रीट मुम्बई का सूचकांक है। सŸाा लोक की धन सम्पदा का ही अपहरण नहीं करती बल्कि वह संस्कृति और दिमाग पर भी कब्जा करने की कोशिश करती है। इसलिए मिथकों पर कब्जा करने की राजनीति पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। सŸाा ने लोक संस्कृति व मिथकों की पहले उपेक्षा की, विरोध किया और इससे काम नहीं चला तो उन्हें विकृत कर दिया। हमें लोक संस्कृति के प्रति आलोचनात्मक, यथार्थवादी और विवेकपूर्ण नजरिया अपनाने की जरूरत है। जिस ‘लोक’ की चर्चा है, वह वास्तव में अंग्रेजी के ‘फोक’ का अनुवाद है। हमें लोक के बदले जन शब्द पर बल देने की जरूरत है। जन संस्कृति का मुख्य आधार प्रेम, स्वतंत्रता, समता और अन्याय का प्रतिकार रहा है। जन संस्कृति की हर रचनाशीलता में ये तत्व मिलेंगे।

वरिष्ठ लेखक डॉ तैयब हुसैन ने विषय प्रवर्तन किया तथा गोष्ठी को मिथ के समाजशास्त्र पर काम करने वाले डॉ गोरे लाल चंदेल, हिन्दी कवि दिनेश कुशवाहा, युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी, डॉ प्रफुल्ल कुमार सिंह ‘मान’, कथाकार मदन मोहन, पत्रकार अशोक चौधरी, रंगकर्मी सुधांशु कुमार चक्रवर्ती आदि ने भी सम्बोधित किया। वक्ताओं का कहना था कि मिथक चाकू की तरह है। यदि किसी डॉक्टर के हाथ लग जाय जान बचा देगा लेकिन किसी हत्यारे के हाथ में आ जाय तो वह जान ले लेगा। लोक संस्कृति में सबकुछ ठीक नहीं है। इसमें से अपने हित की बात को लेना होगा। अप संस्कृति और जन संस्कृति में सदियों से टकराव रहा है। सबसे ज्यादा मिथकों का निर्माण दलितों ने किया है। मिथक लोकजीवन में ऐसे रचे.बसे हैं कि इनसे छेड़.छाड़ लगभग नामुमकिन है। मिथक जब निर्मित हो जाते हैं तो ये सत्य से भी ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हैं।

वक्ताओं का कहना था कि लोक संस्कृति और मिथ दोनों ‘जल में कुंभ’, कुंभ में जल’ की तरह है। पौराणिक मिथ ज्यों का त्यों लोकमिथ में नहीं आता। लोक संस्कृति में मिथ लोक को ऊर्जा एवं शक्ति देता है। जो मिथ लोक के जीवन के लिए उपयोगी नहीं है, वह मिथ लोक से बाहर हो जायेगा। उदाहरण के लिए ‘गउरा उत्सव’ को लिया जा सकता है। शिव पार्वती विवाह लोक संस्कृति में गउरा उत्सव का रूप लेता है जिसमें समाज के हर हिस्से से अलग अलग वस्तुएँ इक्ट्ठा की जाती है और ‘जागो गौरी, जागो गौरा, जागो लोगा...’ से उत्सव आगे बढ़ता है। लोक संस्कृति की यही विशेषता है कि इसमें सामूहकिता की संस्कृति है। पौराणिक नायक ‘ही मैन’ होता है, वहीं लोक नायक अपने में समह की ताकत को समाहित करके चलता है।

‘लोकरंग’ के दो दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संचालन कवि दिनेश कुशवाहा ने तथा विचार गोष्ठी का संचालन कवि व जसम लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने किया। धन्यवाद ज्ञापन दिया हिन्दी कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा ने। इस अवसर पर लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने कलाकारों, साहित्यकारों आदि को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित भी किया। लेनिन पुस्तक केन्द्र, लखनऊ तथा गोरखपुर ्िफल्म फेस्टिवल की ओर से इस मौके पर बुक स्टॉल भी लगाया गया। जोगिया के स्त्री-पुरुषों ने जिस तरह से गाँव को सजाया था, वह उनके अन्दर अपनी संस्कृति के प्रति लगाव को दिखाता है। पूरे गाँव के रास्तों से लेकर डेहरियों व बखारों को सुन्दर कलाकृतियों से सजाया गया था। नागार्जुन, फैज, शमशेर, केदार, धूमिल, मुक्तिबोध, गोरख पाण्डेय, वीरेन डंगवाल आलोक धन्वा आदि कवियों की कविताओं के पोस्टर हर आने वालों को अपनी ओर बरबस खींच रहे थे। लोकरंग ने जोगिया को लोककला के गाँव में बदल दिया था।

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