गुरुवार, 6 जनवरी 2011

सफदर की याद में ‘चौराहे पर’ नाटक




कौशल किशोर
नये साल का पहला दिन है। चारो तरफ कोहरा फेैला है। हाड़ कंपाती ठंढ़ी हवा हड्डियों को छेद रही है। गोमती नदी के किनारे शहीद स्मारक पर इस ठंढ व कोहरे का असर कुछ ज्यादा ही है। पर इस क्रूर मौसम की तरफ से बेपरवाह नगाड़े की ढम..ढम.. और ढपली पर थाप देते अमुक अर्टिस्ट ग्रुप के कलाकार अनिल मिश्रा ’गुरूजी’ के नेतृत्व में शहीद स्मारक पर जुटे हैं। इनके द्वारा नुक्कड़ नाटक ‘मुखौटे’ का मंचन होना है। कलाकारों के हाथों में जो बैनर है, उस पर लिखा है ‘हम सब सफदर, हमको मारो’। कलाकार अपने नाट्य प्रदर्शन के माध्यम से हमें याद दिलाते हैं कि पहली जनवरी के दिन ही सफदर हाशमी शहीद हुए थे। सफदर आज नहीं हैं, पर वह सांस्कृतिक संघर्ष आज भी जारी है। अपने नाटक ‘मुखौटे’ के द्वारा कलाकार हमें यह आभास देते हैं कि हम जिस संस्कृतिक अंधेरे में जी रहे हैं, वह मौसम के कोहरे से कही ज्यादा घना है। जरूरत तो कला को मशाल बनाने की है जो इस अंधेरे को चीर सके।

ऐसी ही प्रतिबद्धता और विपरीत परिस्थितियों से जूझने का साहस ही नुक्कड़ नाटकों को अन्य कला विधाओं से अलग करता है। रंगमंचीय तामझाम से दूर, थोड़ी-बहुत साज-सज्जा के साथ बिल्कुल छापामार तरीके से कलाकारों का किसी चौराहे, नुक्कड़, मुहल्ले, स्ट्रीट कार्नर या किसी जन संकुल क्षेत्र में इक्ट्ठा होना और अपने अभिनय द्वारा जन जागृति का संदेश देना - नुक्कड़ नाटक की यही पहचान है। आंदोलनों से ऊर्जा लेना तथा अपनी कला द्वारा आंदोलनों को गति देना, यह नुक्कड़़ नाटक की खासियत है। कहा जाय तो नुक्कड़ नाटकों का जन्म जन आंदोलनों से जुड़ी कला विधा के रूप में तथा नाटक को जनता तक पहुँचाने की जरूरत के रूप में हुआ।

सŸाा और मौजूदा व्यवस्था पर प्रहार, चुटीले व्यंग्य के पुट, चुस्त व छोटे संवाद और गतिशील अभिनय के द्वारा नुक्कड़ नाटक दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ता है। 70 के दशक में हम जन आंदोलनों का उभार देखते हैं और यही वह उर्वर जमीन है जिस पर नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन परवान चढ़ा। इस कला विधा ने शोषक सŸाा, तंत्र, भ्रष्ट राजनीति व नेता, पुलिस-प्रशासन को अपना निशाना बनाया। इसीलिए कलाकारों को मालिकों, नेताओं, उनके गुण्डों और पुलिस-प्रशासन के हमले का शिकार होना पड़ा। करीब दो दशक पहले एक जनवरी 1989 को साहिबाबाद ;गाजियाबादद्ध में नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ का मंचन करते समय राजनीतिक गुण्डों द्वारा सफदर हाशमी और उनके एक कलाकार साथी की हत्या कर दी गई। तब से सफदर शहादतों की परम्परा के ऐसे नायक बनकर उभरे है जिनसे नुक्कड़ नाटक करने वाले कलाकार आज भी प्रेरणा लेते हैं और हर साल की पहली तारीख को नाटक कर यह अहसास दिलाते है कि उनकी याद आज भी हमारे दिलों में जिन्दा है। इसी तरह के हमलों का शिकार नुक्कड़ नाटक के कलाकारों को जगह.जगह होना पड़ा है।

जहाँ तक लखनऊ की बात है, यहाँ नुक्कड़ नाटकों की शुरूआत इमरजेन्सी के ठीक बाद हो गई थी। शहर में कई संस्थाएँ थीं जो नुक्कड़ नाटक करती थीं। कलम, साऊनाप, नवचेतना, जन संस्कृति मंच, इप्टा, मशाल आदि नाट्य संस्थाएँ अस्तित्व में आईं और ‘मशीन’, ‘औरत’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘जनता पागल हो गई है’, ‘रंगा सियार’, ‘हल्ला बोल’, ‘समरथ को नहिं दोष गोंसाई’ जैसे दर्जनों नाटक यहाँ मंचित हुए। शहर का शायद ही कोई चौराहा, मजदूर बस्ती, फैक्ट्री गेट या मोहल्ला बचा हो जहाँ नुक्कड़ नाटक न हुए हों।



लखनऊ में भी कलाकारों को भी दमन का सामना करना पड़ा। भगत सिंह शहादत दिवस की 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर 1981 में ‘नवचेतना’ के कलाकारों - आदियोग, कुमार सौवीर, सुप्रिय लखनपाल आदि के सीने पर निशातगंज में पुलिस के सिपाही ने भरी बन्दूक की नाल रख दी थी। ‘नवचेतना’ के कलाकार गुरुशरण सिंह द्वारा शहीद भगत सिंह के जीवन और विचारधारा पर लिखा नाटक ‘इंकलाब जिंदाबाद’ खेलना चाहते थे। निशातगंज पुलिस की जिद थी कि बिना जिला प्रशासन की अनुमति के वे नाटक नहीं होने देंगे। लेकिन जनता के भारी विरोध के आगे पुलिस को पीछे हटना पड़ा और बड़ी संख्या में लोगों ने उस नाटक को देखा।

इसी तरह की एक घटना लखनऊ महोत्सव के दौरान हुई। महिफल संस्था द्वारा आयोजित लघु नाटक समारोह में जब जन संस्कृति मंच के कलाकार ‘जनता पागल हो गई है’ का मंचन कर रहे थे, तत्कालीन लखनऊ पुलिस अधीक्षक ब्रज लाल ने कलाकारों को गिरफ्फ्तार कर लिया। उन्हे रातभर हजरतगंज कोतवाली में रखा गया। उन्हीं दिनों एक घटना स्कूटर्स इण्डिया गेट पर हुई थी। वहाँ के मजदूर आंदोलन के समर्थन में ‘मशाल’ के कलाकार ‘रंगा सियार’ नाटक कर रहे थे। उसी दौरान कुछ विरोधी व अराजक तत्वों द्वारा कलाकारों व दर्शकों पर पथराव किया गया जिसमें कई कलाकार व दर्शक घायल हो गये।

यहाँ इन चन्द घटनाओं का उल्लेख करने के पीछे मकसद मात्र यही बताना है कि लखनऊ जैसे शहर में भी नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन ने आंदोलन का रूप ले लिया था और 80 से लेकर 90 के बीच यह अत्यन्त लोकप्रिय कला माध्यम था जिसे जनता के बीच अच्छी.खासी लोकप्रियता हासिल थी। इसे नुक्कड़ नाट्य आंदोलन का असर ही कहा जायेगा कि रंगमंच से जुड़े कई कलाकार व निर्देशक भी उन दिनों नुक्कड़ नाटक से जुड़ गये जिनमें आतमजीत सिंह प्रमुख थे।
पर आज नुक्कड़ नाटकों की हालत वैसी नहीं है। कोई आंदोलन नहीं है। यहाँ सन्नाटा जैसी स्थिति दिखाई पड़ती है। आमतौर पर नुक्कड़ों पर नाटक के नाम पर जो प्रदर्शन हो रहा है, उसका नुक्कड़ नाटक से कुछ भी लेना देना है। इस लोकप्रिय कला माध्यम का उपयोग आज सरकारी-गैरसरकारी कम्पनियों व संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है जिनका मकसद अपने उत्पाद व कार्यक्रम का प्रचार करना है। जहाँ तक सŸाा व व्यवस्था के चरित्र की बात है, वह कहीं से भी जन पक्षधर नहीं हुई है। बल्कि उसका चरित्र और भी जन विरोधी हुआ है। फिर नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में पसरा ऐसा सन्नाटा क्यों ? यह प्रतिबद्ध कलाकारों के समक्ष सवाल भी है और चुनौती भी।

अनिल मिश्रा ‘गुरूजी’ ऐसे ही कलाकार हैं जो इस चुनौती को साहस पूर्वक स्वीकार करते हैं। जहाँ कई कलाकार नुक्कड़ नाटक की जगह रंगमंच की ओर मुड़ गये या अपनी आजीविका के लिए सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं में चले गये, वहाँ गुरूजी मजबूती के साथ नुक्कड़ नाटक से जुड़े हैं। नुक्कड़ नाटक क्षेत्र में नये नाट्यालेख के अभाव ने उन्हें स्वयं नाट्य लेखन की ओर उन्मुख किया। गुरुशरण सिंह की तरह मंचन के साथ ही नाट्य लेखन का काम भी शुरू कर दिया। उन्होंने कई नाटक लिखे और उसका मंचन किया। उनके इन नाटकों का संग्रह ‘चौराहे पर’ शीर्षक से अभी हाल में प्रकाशित होकर आया है। इसमें उनके लिखे बारह नुक्कड़ नाटक संकलित हैं। इन नाटकों के मुख्य विषय पुलिस जुल्म, भ्रष्टाचार, मंहगाई, बलात्कार, राजनीतिक नेताओं का जनविरोधी चरित्र, संसदीय व्यवस्था का खोखलापन, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, बेरोजगारी आदि हैं। ये नाटक दर्शकों को मात्र समस्याओं से ही रु-ब-रु नहीं कराते बल्कि उन्हंे इनसे संघर्ष करने और इस व्यवस्था को बदलने के लिए भी प्रेरित करते हैं।

अनिल मिश्रा ‘गुरूजी’ के नुक्कड़ नाटकों के इस संग्रह का पिछले सप्ताह लखनऊ के हिन्दी संस्थान में वरिष्ठ कथाकार व नाटककार मुद्राराक्षस ने लोकार्पण किया। इस मौके पर ‘नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन’ विषय पर सेमिनार भी हुआ जिसे सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, आतमजीत सिंह, राजेश कुमार, आदियोग, मृदुला भरद्वाज, अनिल यादव, प्रतुल जोशी, कौशल किशोर आदि ने संबोधित किया। बड़ी संख्या में यहाँ नौजवान कलाकार जुटे थे। इस सेमिनार में नुक्कड़ नाटक को लेकर गंभीर चर्चा हुई और सभी ने माना कि यह विचार का आंदोलन है। यह न तो सरकारी-गैर सरकारी योजनाओं का प्रचार है और न राजनीतिक प्रचार का माध्यम है। यह नुक्कड़ की नई संस्कृति के निर्माण की कोशिश है जहाँ आदमी वर्ग, वर्ण, जाति, संप्रदाय के घेरे से बाहर निकलता है। यह उस जनता की आवाज है जो शोषित-उत्पीड़ित है तथा हाशिए पर डाल दी गई है।

आज का दौर ऐसा है जब दुनिया को युद्धों में झोंका जा रहा है, किसान आत्म हत्या कर रहे हैं, आम आदमी मंहगाई व बेरोजगारी से परेशान है, मानवाधिकारों पर हमले हो रहे हैं और शोषण व अन्याय पर आधारित इस पूँजीवादी व सम्राज्यवादी व्यवस्था को विकल्पहीन बताया जा रहा है तब नये विकल्पों की तलाश संस्कृति की अनिवार्यता बन गई है। नुक्कड़ नाटक जैसी विधा इन्ही विकल्पों को पेश करती है। भले ही यह आंदोलन आज ठहराव का शिकार हो लेकिन आज के हालात ने इस विधा के पुनर्जीवन के लिए फिर से जमीन तैयार कर दी है। अनिल मिश्रा ‘गुरूजी’ द्वारा लिखित नुक्कड़ नाटकों के संग्रह ‘चौराहे पर’ को एक नई शुरुआत माना जा सकता है। संभव है हमें आने वाले दिनों में न सिर्फ रंगमंच पर बल्कि नुक्कड़ों और चौराहों पर भी विचार और आंदोलन के ऐसे नाटक देखने को मिले जो आम आदमी की समस्याओं व संघर्ष की कहानी कहते हांे तथा उन्हें जागरूक बनाने वाले हों।

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