शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’


कौशल किशोर

प्रेमचंद ने आज से 75 साल पहले अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ की रचना की थी। यह भारतीय किसान की त्रासदी और उसके संघर्ष की कहानी है। उपन्यास का नायक होरी इसका प्रतिनिधि पात्र है। वह कर्ज और सूदखोरी पर आधारित महाजनी सभ्यता का शिकार होता है। इस व्यवस्था द्वारा वह तबाह.बर्बाद कर दिया जाता है। उसका सब कुछ लूट लिया जाता है। उसकी जमीन, माल मवेशी सब छिन जाते हैं। वह दूसरों के खे पर काम करने वाले मजदूर में तब्दील हो जाता है और अन्त में इस क्रूर व्यवस्था के हाथों मार दिया जाता है।

देश आजाद हुआ, लेकिन होरी आजाद नही ंहुआ। आजादी के चौसठ साल बाद भी होरी मर रहा है, एक नहीं, हजारों.लाखों की तादाद में। साम्राज्यवादी.पूँजीवादी व्यवस्था का वह शिकार है। उसकी जमीनें छीनी जा रही हैं। कर्ज में डूबा वह आत्महत्या करने को मजबूर है। अन्न पैदा करने वाला किसान अन्न के लिए मोहताज हो गया है। भूख से मरना आजाद हिन्दुस्तान में उसकी नियति बन गई। यह व्यवस्था हृदयहीन, क्रूर और पाखण्डी हो गई है। राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ हमारी चौसठ साला आजादी के इसी यथार्थ को सामने लाता है। ‘गाँधी ने कहा’, ‘सŸा भाषे रैदास’, ‘अम्बेडकर और गाँधी’, ‘द लास्ट सैल्यूट’ जैसे व्यवस्था विरोधी और यथार्थवादी नाटकों के लिए चर्चित नाटककार राजेश कुमार का यह नया नाटक है जिसका मंचन अभी हाल में लखनऊ के संत गाडगे प्रेक्षागृह, संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाहजहाँपुर की नाट्य संस्था ‘थर्ड बेल’ द्वारा किया गया। इसका निर्देशन चन्द्रमोहन ‘महेन्द्रू’ ने किया। अलग दुनिया के सौजन्य से इस नाटक का मंचन लखनऊ में संभव हुआ।

‘सुखिया मर गया भूख से’ की कहानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले की है। एक गरीब किसान की भूख से मृत्यु हुई। इस घटना के सच को दबाने और उसे पलटने के लिए नौकरशाही द्वारा जो कुचक्र रचा गया, यह नाटक इसी सच्ची घटना पर आधारित है। सरकार द्वारा यह प्रचारित है कि उसके शासन में किसान चाहे जिस भी वजह से मरे लेकिन उसे भूख से नहीं मरना चाहिए। यदि कोई किसान भूख से मरता है तो इसके लिए उस जिले का प्रशासन खासतौर से डी0 एम0 जिम्मेदार माना जायेगा। मुख्यमंत्री कार्यालय से जिले में यह सूचना आती है कि सुखिया नाम का किसान भूख से मर गया है। कार्यालय को चौबीस घंटे के भीतर इसकी रिपोर्ट चाहिए। फिर क्या ? डी एम से लेकर तहसीलदार, एस पी से लेकर दरोगा, बी डी ओ से लेकर डॉक्टर तथा ग्राम प्रधान सब मिलकर ऊपर से लेकर नीचे तक जिले के सारे अधिकारी मामले को दबाने के कार्य में जुट जाते हैं।

सुखीराम उर्फ सुखिया इस नाटक का केन्द्रीय पात्र है। इसकी कहानी एक गरीब किसान के जीवन और संघर्ष की कहानी है। इस अर्थ में वह आज के गरीब किसान का प्रतिनिधित्व करता है। सुखिया ने खेती के लिए कर्ज क्या लिया, उसके जीवन में आफत आ गई। मूल से कई गुना उसका सूद हो जाता है। इसकी अदायगी में उसका खेत बिक जाता है। पत्नी और चार बच्चों का उसका परिवार कैसे चले ? अन्न पैदा करने वाला सुखीराम स्वयं एक एक दाने के लिए मोहताज हो जाता है। वह भूखा प्यासा काम की तलाश में दर दर भटकता है। उसे काम मिलता है लेकिन कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। इस हालत में उसे चक्कर आता है, बोहोश हो गिर पड़ता है और वहीं दम तोड़ देता है। उसकी पत्नी व बच्चे सब अनाथ हो जाते हैं। उनके पास रोने और आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता है।

सुखिया के भूख से मरने की खबर जिला प्रशासन को मुख्यमंत्री कार्यलय से आती है। फिर जिला प्रशासन द्वारा सुखिया की खोजाई शुरू होती है और सारा तंत्र सुखिया की भूख से हुई मौत को गलत साबित करने में जुट जाता है। उसके घर में अनाज भर ही नहीं दिया जाता है, बल्कि उसे चारो तरफ इस तरह फैला दिया जाता है ताकि यह पता चल सके कि उसके घर में अन्न को कोई किल्लत नहीं है। उसके नाम बी पी एल कार्ड जारी किया जाता है। उसमें यह इन्ट्री दिखाई जाती है कि वह नियमित रूप से अपने कार्ड पर अनाज उठाता रहा है। झटपट उसके नाम नरेगा का जॉब कार्ड बनता है तथा बैंक में खाता खोल दिया जाता है। उसके खाते में बारह हजार रुपये भी जमा कर दिये जाते हैं। सुखिया के मृत शरीर में मुँह के रास्ते अनाज भर दिया जाता है तथा हवा पम्प कर पेट इतना फूला दिया जाता है जिससे यह साबित हो जाय कि सुखाई की मौत भूख से नहीं, अत्यधिक खाने से हुई है। डाक्टर द्वारा पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी यही दिखाया जाता है। इस तरह भूख से हुई मौत की कहानी को अधिक खाने से हुई मौत में बदल दिया जाता है और वे सारे प्रमाण जुटा दिये जाते हैं जिससे साबित किया जा सके कि सुखिया एक सम्पन्न किसान था। उसकी मौत भूख से हो ही नहीं सकती थी।

डी एम का मुआयना होता है। वह मीडिया के सामने आता है और यह घोषित करता है कि सुखीराम की मौत भूख से नहीं हुई है और उनके जिले में इस तरह की कोई घटना हुई ही नहीं है। वह मुआवजे की घोषणा करता है। मीडिया भी सुन्दर व चमकदार वस्त्र पहना कर बच्चों की तस्वीरे उतारता है। इस तरह पूरा तंत्र जिसमें मीडिया तक शामिल हैं किसान की भूख से हुई मौत की सच्ची व दर्दनाक घटना को गलत साबित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देता है और सुखिया की पत्नी इमरती देवी और उसके बच्चों को ऐसी हालत में छोड़ जाता है जहाँ उनके पास अपनी आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता।

यह नाटक सुखिया के माध्यम से आज की सŸाा और व्यवस्था से हमें रु ब रु कराता है। यह ‘जनतांत्रिक’ व्यवस्था कितनी फर्जी, आम आदमी और उसकी समस्याओं से कटी, संवेदनहीन औ अमानवीय हो गई है, नाटक इसके जनविरोधी चरित्र को उजागर करता है। नाटक में इसके विरुद्ध प्रतिरोध भी है और यह किसानों के आक्रोश व गुस्से को भी सामने लाता है। इस प्रतिरोध के लिए नाटक में फैंटेसी की रचना की गई है। इस प्रतिरोध का नायक सुखिया का प्रेत है। सुखिया का प्रेत तंत्र द्वारा गढ़े गये एक एक झूठ का पर्दाफाश करता है। वह यमराज से भी संघर्ष करता है जो इस तंत्र का समर्थक है। उस वक्त सुखिया का प्रतिरोध अपने चरम रूप में अभिव्यक्त होता है जब उसके जीवन की सच्चाई को व्यवस्था द्वारा झूठ साबित कर दिया जाता है और झूठ को सच के रूप में स्थापित किया जाता है। वह झूठ के तंत्र पर अपनी पूरी ताकत से टूट पड़ता है। नाटक कबीर की इस कविता के साथ समाप्त होता है ‘हम ना मरिबे मरिहें संसारा/हमको मिलिहाँ लड़ावनहारा..../हम न मरिबे, अब न तरबे/करके सारे जतन भूख से लड़बै/जब दुनिया से भूख मिटावा/तब मरिके हम सुख पावा’।

संसार भले खत्म हो जाय लेकिन हम नहीं मरेंगे, नाटक किसान के जीने की जबरदस्त इच्छा शक्ति को सामने लाता है और यह संदेश देता है कि भूख पैदा करने वाली व्यवस्था को समाप्त करके ही किसान को सच्चा सुख मिल सकता है। राजेश कुमार का यह नाटक भूख से हुई मौत और किसानों की आत्महत्या के विरुद्ध प्रतीत होता है लेकिन अपने मूल रूप में यह मौजूदा व्यवस्था तथा इस तंत्र के खिलाफ है। आज जब महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तथा व्यवस्था की लूट व दमन के विरुद्ध देश में आन्दोलन तेज है, ऐसे दौर में नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ का महत्व बढ़ जाता है। यह प्रतिरोध की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है जो जन चेतना को आगे बढ़ाता है।

नाटक में अशोक अंजुम और अशोक मिश्र के गीतों का इस्तेमाल हुआ है। चुटीले संवाद, व्यंग्य, एक्शन, गीत.संगीत आदि नाटक को गतिमय बनाये रखता है। लेकिन कई जगह संगीत और वाद्ययंत्र की आवाज लाउड हो गई है जिसकी वजह से गीत के बोल दब जाते हैं। इसी तरह कई जगह व्यंग्य पर हास्य हावी हो जाता है। वैसे ‘थर्ड बेल’ द्वारा इसकी यह पहली प्रस्तुति है। कलाकारों और निर्देशक के परिश्रम और प्रतिबद्धता को देखते हुए आशा की जानी चाहिए कि आगे की इसकी प्रस्तुति और बेहतर और सुगठित होगी।

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