कौशल किशोर
‘वे डरते हैं/किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन दौलत/गोला.बारूद.पुलिस.फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं/कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग/उनसे डरना बंद कर देंगे’
चार जून की मध्यरात्रि में देश की राजधानी दिल्ली में सरकारी दमन का जो कहर बरपाया गया, उसे देखते हुए गोरख पाण्डेय की यह कविता बरबस याद हो आती है। साथ ही यह सवाल उठ रहा है कि क्या 1975 का इतिहास अपने को फिर से दोहराने जा रहा है?
वह भी जून का महीना था। न सिर्फ मौसम का तापमान अपने उच्चतम डिग्री पर था बल्कि जनविक्षोभ की ज्वाला भी अपने चरम रूप में धधक रही थी। ऐसी ही हालत तथा वह भी काली रात थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लागू किया था। उस वक्त इंदिरा गाँधी के हाथ से सत्ता फिसल रही थी और अपनी कुर्सी को बचाने के लिए उनके पास यही विकल्प बचा था कि वे जनता की आजादी छीन लें, उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का अपहरण कर ले।
आज देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी चार जून की रात की घटना पर यही कह रहे हैं कि उनके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था। अर्थात निहत्थी जनता के विरुद्ध रैपीड एक्शन फोर्स। यह जनता अपनी चुनी सरकार से यही तो माँग कर रही थी कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो, भ्रष्टाचारियों को मृत्यंदण्ड मिले, देश से ले जाये गये काले धन की एक.एक पाई देश में वापस आये, उसे राष्ट्रीय सम्पति घोषित किया जाय और इसका इस्तेमाल समाज कल्याण के कार्यों में हो। जनता यही तो जानना चाहती थी कि काली कमाई जमा किये और काला धंधा करने वाले ये देशद्रोही कौन हैं ?
दरअसल जनता के इन सवालों का भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। भ्रष्टाचार, कालेधन आदि के सवाल को लेकर जो जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ है, उससे वह काफी डरी हुई। देखा गया है कि जनता जब जब निडर होकर शासकों के सामने खड़ी हुई हैं, शासकों ने जनता के अधिकारों पर हमले किये हैं और लोकतंत्र को अपना निशाना बनाया है। 1975 में इंदिरा गाँधी द्वारा आपातकाल का लागू किया जाना जन आंदोलनों से डरी सरकार का ही कृत्य था। आज मनमोहन सिंह भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से काफी भयभीत हैं। इसीलिए रामलीला मैदान में रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल लोगों पर दमन को एक डरी हुई सरकार की कायरतापूर्ण कार्रवाई ही कहा जायेगा।
जहाँ तक हाल के भष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात है, इसने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि ये तमाम सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं।
वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे ही भरने के लिए नागरिक समाज और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे से लेकर रामदेव इसी यथार्थ की उपज हैं। इस आंदोलन में कमियाँ और कमजोरियाँ हो सकती हैं। फिर भी इनके द्वारा उठाये गये भ्रष्टाचार व कालेधन की वापसी जैसे मुद्दों ने नागरिक समाज को काफी गहरे संवेदित किया है और यही कारण है कि इनके आहवान पर बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं।
लेकिन बाबा रामदेव का व्यक्तित्व शुरू से ही विवादित रहा है। अन्ना हजारे ने जब अपना आंदोलन जंतर.मंतर पर खतम किया, उसी समय से बाबा रामदेव की राजनीतिक महत्वकाँक्षा सिर चढ़कर बोल रही थी। इसकी अभिव्यक्ति उनके ढ़ुलमुलपन और अवसरवाद में हो रही थी। कभी तो वे सरकार के साथ मोल.तोल करने वाले बनिया जैसे लगते थे तो कभी नागरिक समाज द्वारा प्रस्तावित विधेयक को कमजोर करने वाले सरकारी प्रतिनिधि नजर आते थे। उन्होंने लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री और न्यायाधीशों को जाँच के दायरे में शामिल न किये जाने की बात करके सरकार को खुश करने की कोशिश भी की थी। जहाँ अन्ना हजारे ने अपने आन्दोलन को स्वायत बनाये रखा था तथा स्थापित राजनीतिक दलो से इसकी दूरी थी, वहीं रामदेव ने अपने मुहिम के लिए भाजपा और संघ परिवार के नेटवर्क का इस्तेमाल किया।
इस सबके वावजूद पुलिसिया दमन और आतंक को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर हमले ने एक बात साबित कर दिया है कि यह सरकार कारपोरेट हितों के विरुद्ध किसी भी असली या नकली प्रतिरोध को झेल नहीं सकती। एक और बात, चार जून की कार्रवाई को मात्र रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दमन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। अब तो सरकार ने किसी भी आंदोलन, धरना व प्रदर्शन पर दमन का रास्ता साफ कर दिया है। अपने इस कृत्य के द्वारा वह जन आंदोलनों को संदेश भी देना चाहती है कि उनसे निपटने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।
इसीलिए दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी गयी है और हर तरह के धरना.प्रदर्शन पर रोक लगा दिया गया। अपना विरोध जताने और अपनी मांगों को बुलन्द करने के लिए जनता दिल्ली नहीं पहुँच सकती। यदि किसी तरह पहुँच भी गयी तो वहाँ उसके स्वागत के लिए लाठी, आंसूगैस, पानी की तेज बौछारें और जेल है। बहुत हुआ तो आप राजघाट पर उपवास कर सकते हैं। पर यह भी सरकार की इच्छा पर निर्भर है। देश के कई हिस्सों में चल रहे किसान आंदोलन, आदिवासियों के आंदोलन तथा बड़ी देशी.विदेशी पूँजी के दोहन के खिलाफ चल रहे आंदोलनों पर तो सरकारी दमन पहले से ही जारी है। अब देश की राजधानी दिल्ली इसका अपवाद नहीं बनी रह सकती। उसे देश के अन्दर के भागों में मौजूद ‘लोकतंत्र’ का आईना बनना ही है।
ऐसे में चार जून की रात की घटना के दमनकारी अभिप्राय को कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। क्या यह अघोषित आपातकाल जैसी हालात नहीं है? ऐसा अघोषित आपातकाल जिसमें देश में संविधान, लोकतांत्रिक ढाँचा, संसदीय व्यवस्था, चुनी हुई सरकार हो, पर विरोध और असहमति की जगहें न हो। ऐसा लोकतंत्र जिसका ढ़िढ़ोरा सारी दुनिया में खूब जोर.शोर से पीटा जाय पर जिसकी संस्कृति हो -ं बर्दाश्त करिये और चुप रहिए, अपने को बचाकर चलिए और दुम हिलाइये। जन आंदोलनों से घिरी और दमन पर उतारू सरकार ने क्या यही हालत नहीं पैदा कर दी है ?
एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 09807519227, 08400208031
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