मंगलवार, 30 नवंबर 2010

इरोम शर्मिला का संघर्ष : अंधियारे का उजाला

कौशल किशोर

इस साल नवम्बर में मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला की भूख हड़ताल के दस साल पूरे हो गये। तमाम अवरोधों और मुश्किलों के बावजूद उनकी भूख हड़ताल आज भी जारी है। इन दस वर्षों में उनका कृषकाय शरीर और जर्जर व कमजोर हुआ है। लेकिन कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करने वाली उनकी आन्तरिक ताकत और इच्छा-शक्ति बढ़ी है। यह अदम्य साहस से लबरेज मौत को धता बता देने वाली ताकत है। इसीलिए आज वे इस्पात की तरह न झुकने व न टूटने वाली मणिपुर की ‘लौह महिला’ के रूप में जानी जाती हैं।

इरोम शर्मिला सामाजिक कार्यकर्ता और कवयित्री हैं, भावनाओं व संवेदनाओं से भरी। उनके अन्दर खुले गगन में परिन्दों के विचरण जैसी भावना है। यह मात्र भावुकता नहीं है बल्कि यथार्थ की ठोस जमीन पर पका उनका विचार है जिसके मूल में दमन और परतंत्रता के विरुद्ध दमितो-उत्पीड़ितों द्वारा स्वतंत्रता की दावेदारी है: ‘कैदखाने के कपाट पूरे खोल दो/मैं और किसी राह पर नहीं जाऊँगी/ कांटो की बेड़ियाँ खोल दो’। यही वजह है कि आज वह सत्ता के दमन के विरुद्ध सृजन और संघर्ष की ही नहीं बल्कि हमारे जिन्दा समाज की पहचान बन गई हैं।

बात नवम्बर 2000 की है। इरोम शर्मिला मणिपुर की राजधानी इम्फाल से सटे मलोम में शान्ति रैली के आयोजन के सिलसिले में एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैण्ड पर सैनिक बलों द्वारा ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाई गई जिसमें करीब दस निरपराध लोग मारे गये। यह सब इरोम शर्मिला की आँखों के सामने हुआ। यह उनको आहत व व्यथित कर देने वाली घटना थी। वैसे यह कोई पहली घटना नहीं थी जिसमें सुरक्षा बलों ने नागरिकों पर गोलियाँ चलाई हो, दमन ढ़ाया हो पर इरोम शर्मिला के लिए यह दमन का चरम था। इस घटना के बाद इरोम के लिए शान्ति रैली निकाल कर सत्ता की कार्रवाइयों का विरोध अपर्याप्त या अप्रासंगिक लगने लगा। लिहाजा उन्होंने एलान किया कि अब यह सब बर्दाश्त के बाहर है। यह तो निहत्त्थी जनता के विरुद्ध सत्ता का युद्ध है। उन्होंने माँग की कि मणिपुर में लागू कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ्सपा) हटाया जाय। इस एक सूत्री माँग को लेकर उन्होंने नैतिक युद्ध छेड़ दिया और मलोम बस स्टैण्ड पर भूख हड़ताल शुरू कर दी जो आज दस साल बाद भी जारी है।

वैसे इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल का पिछला दस साल अत्यन्त जद्दोजहद से भरा रहा है। आरम्भ में मणिपुर सरकार ने उनकी भूख हड़ताल को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन उनकी भूख हड़ताल की खबर पूरे मणिपुर में जंगल की आग की तरह फैल गई। सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता उनके समर्थन में जुटने लगे। इस भूख हड़ताल की वजह से इरोम शर्मिला की हालत खराब होने लगी। उनकी जान बचाने का सरकार पर दबाव बढ़ने लगा। सरकार ने इरोम शर्मिला को गिरफ्तार कर लिया। उन पर आत्महत्या
करने का आरोप लगाते हुए धारा 309 के तहत कार्रवाई की गई और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। तब से वह लगातार न्यायिक हिरासत में हैं। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल का वह वार्ड जहाँ उन्हें रखा गया है, उसे जेल का रूप दे दिया गया है। वहीं उनकी नाक से जबरन द्रव्य पदार्थ दिया जा रहा है। इस तरह इरोम शर्मिला को जिन्दा रखने का ‘लोकतांत्रिक’ नाटक पिछले दस वर्षों से चल रहा है।

उल्लेखनीय है कि धारा 309 के तहत इरोम शर्मिला को एक साल से ज्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता। इसलिए एक साल पूरा होते ही उन्हे रिहा करने का नाटक किया जाता है। फिर उन्हें गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत के नाम पर उसी सीलन भरे वार्ड में भेज दिया जाता है और जीवन बचाने के नाम पर नाक से द्रव्य देने का सिलसिला चलाया जाता है। यह हमारे लोकतंत्र की विडम्बना ही है कि एक तरफ इरोम शर्मिला की जान बचाने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर उनके नाक से द्रव्य पदार्थ पहुँचाया जा रहा है, वहीं इरोम शर्मिला की माँग कि मणिपुर से आफ्सपा को हटाया जाय, इस कानून की वजह से जो पीड़ित हैं, उन्हें न्याय दिया जाय तथा जिम्मेदार सैनिक अधिकारियों को दण्डित किया जाय - जैसे मुद्दों पर विचार करने तक को सरकार तैयार नहीं।

दरअसल, इरोम शर्मिला जिस ‘आफ्सपा’ को हटाये जाने की माँग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं, उस कानून के प्रावधानों के तहत सेना को ऐसा विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके अन्तर्गत वह सन्देह के आधार पर बगैर वारण्ट कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है, किसी को गिरफ्तार कर सकती है तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकती है। यही नहीं, यह कानून सशस्त्र बलों को किसी भी दण्डात्मक कार्रवाई से बचाती है जब तक कि केन्द्र सरकार उसके लिए मंजूरी न दे। देखा गया है कि जिन राज्यों में ‘आफ्सपा’ लागू है, वहाँ नागरिक प्रशासन दूसरे पायदान पर पहुँच गया है तथा सरकारों का सेना व अर्द्धसैनिक बलों पर निर्भरता बढ़ी है। इन राज्यों में लोकतंत्र सीमित हुआ है, जन आन्दोलनों को दमन का सामना करना पड़ा है तथा सामान्य विरोध को भी विद्रोह के रूप में देखा गया है।

गौरतलब है कि जिन समस्याओं से निबटने के लिए सरकार द्वारा ‘आफ्सपा’ लागू किया गया है, देखने मे यही आया है कि उन राज्यों में इससे समस्याएँ तो हल नहीं हुई, बेशक उनका विस्तार जरूर हुआ है। पूर्वोतर राज्यों से लेकर कश्मीर, जहाँ यह कानून पिछले कई दशकों से लागू है, की कहानी यही सच्चाई बयान कर रही है। 1956 में नगा विद्रोहियों से निबटने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पहली बार सेना भेजी गई थी। तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित नेहरू ने संसद में बयान दिया था कि सेना का इस्तेमाल अस्थाई है तथा छ महीने के अन्दर सेना वहाँ से वापस बुला ली जायेगी। पर वास्तविकता इसके ठीक उलट है। सेना समूचे पूर्वोŸार भारत के चप्पे.चप्पे में पहुँच गई। 1958 में ‘आफ्सपा’ लागू हुआ और 1972 में पूरे पूर्वोŸार राज्यों में इसका विस्तार कर दिया गया। 1990 में जम्मू और कश्मीर भी इस कानून के दायरे में आ गया। आज हालत यह है कि देश के छठे या 16 प्रतिशत हिस्से में यह कानून लागू है।

लोकतांत्रिक और मानवाधिकार संगठनों ने जो तथ्य पेश किया है, उसके अनुसार जिन प्रदेशों में ‘आफ्सपा’ लागू है, वहाँ लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन हुआ है, राज्य का चरित्र ज्यादा दमनकारी होता गया है, जनता का सरकार और व्यवस्था से अलगाव बढ़ा है तथा लोगों में विरोध व स्वतंत्रता की चेतना ने आकार लिया है। द्वन्द्ववाद का नियम है कि जब जनता के अधिकारों का हनन होता है और दमन चरम की ओर बढ़ता है तो प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध की शक्तियाँ भी गोलबन्द होती हैं तथा संघर्ष की चेतना का प्रस्फुटन होता है। एक तरफ अपमान, बलात्कार, गिरफ्तारी व हत्या तो दूसरी तरफ तीव्र घृणा, आत्मदाह, आत्महत्या, असन्तोष व आक्रोश का विस्फोट - मणिपुर के पिछले पाच दशक का यथार्थ यही है। इरोम शर्मिला इसी यथार्थ की मुखर अभिव्यक्ति हैं।

मणिपुर की खासियत यह है कि इस राज्य की महिलाएँ सामाजिक व राजनीतिक संघर्षों में बढ़.चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। इनके अन्दर लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति काफी सजगता है। अतीत में अंग्रेजी साम्राज्य से लोहा लेना हो या सामाजिक अपराध, नशाबन्दी व मंहगाई के खिलाफ संघर्ष हो, मणिपुर की महिलाओं का अपना इतिहास है। आज के दौर में ये मानव अधिकारों की रक्षा के संघर्ष की अगली कतार में हैं। इस संदर्भ में 2004 में उनके द्वारा किये संघर्ष की चर्चा करना प्रासंगिक होगा। उनके आक्रोश और चेतना का विस्फोट हमें देखने को मिला जब असम राइफल्स के जवानों द्वारा थंगजम मनोरमा के साथ किये बलात्कार और हत्या के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने कांगला फोर्ट के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया। उन्होंने जो बैनर ले रखा था, उसमें लिखा था ‘भारतीय सेना आओ, हमारा बलात्कार करो’।

महिलाओं का यह विरोध मणिपुर ही नहीं देश के महिला आंदोलन के इतिहास में अनोखा है जो उनके अन्दर की आग से हमें परिचित कराता है। ये महिलाएँ ‘मीरा पेबिस आन्दोलन’ से जुड़ी थीं। ‘मीरा पेबिस’ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘मशाल थामें औरतें’। इरोम शर्मिला मणिपुर के इसी इतिहास और संघर्ष की परम्परा की कड़ी हैं। दस साल से जारी उनकी भूख हड़ताल वास्तव में जनता के प्रतिरोध की मशालें हैं जो एक तरफ सŸाा की क्रूरता और संवेदनहीनता को सामने लाती है तो दूसरी तरफ प्रतिरोध की उस क्षमता से हमें रु.ब.रु कराती है जो रक्त का एक बून्द भी नहीं बहाती परन्तु जिसकी मारक क्षमता असीमित है। इरोम शर्मिला के शब्दों में कहें तो यह ‘अंधियारे का उजाला’ है क्योंकि ‘इन्सानी जिन्दगी बेशकीमती है/इसके पहले कि मेरा जीवन खत्म हो/ होने दो मुझे अंधियारे का उजाला’।

एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - २२६०१७
मो - 09807519227

शनिवार, 10 जुलाई 2010

कविता

वह औरत नहीं महानद थी

कौशल किशोर

वह जुलूस के पीछे थी
उछलती फुदकती
दूर से बिल्कुल मेढ़क सी नजर आ रही थी

पर वह मेढ़क नहीं स्त्री थी
जुलूस में चलती हुई
नारे लगाती हुई
उसके कंधे से लटक रहा था झोला
जिसमें थीं कुछ मुड़ी तुड़ी रोटियाँ
एक ग्लास
कंघा और पानी की बोतल

पोलियोग्रस्त उसके पैर धड़ से चिपके थे
दो सियामी जुड़वाँ बहनों की तरह
वे धड़ के साथ उठते
उसी के संग बैठते
दोनों हाथ उसके पैर भी थे
इन्हीं पर अपने पूरे शरीर को उठाती
और आगे हवा में झटक देती

इसी तरह वह आगे बढ़ रही थी जुलूस में
इसी तरह उसने रेलवे स्टेशन के पुल को पार किया था
इसी तरह वह शहीद स्मारक की सीढ़ियाँ चढ़ी थी
इसी तरह वह आई थी गोंडा से
इसी तरह वह कहीं भी आ और जा सकती थी
कठिन जिन्दगी को
इसी तरह उसने बना दिया था आसान

प्रदेश की राजधानी में वह आई थी
समानता और सम्मान के
अपने संघर्ष के सौ साल को सलाम करने
वह आई थी
यह इतिहास चक्रव्यूह ही तो रहा है
इसे तोड़ बाहर निकलने की छटपटाहट के साथ
वह आई थी

वह जुलूस में चल रही थी पीछे पीछे
नारे जब हवा में गँूजते
जुलूस के उठते थे हाथ
और उसके उठते थे सिर उर्ध्वाधर दिशा में तने हुए
लहरा उठते बाल
मचलती आवारा लटें
हवा में तरंगित स्वर लहरी
वह बिखेर रही थी सौन्दर्य
खुशबू ऐसी जिसमें रोमांचित हो रहा था
उसका प्रतिरोध

भाप इंजन का फायरमैन बनी
अपना सारा कोयला वह झोके दे रही थी
सड़क की दोनों पटरी पर खड़े लोगों के लिए
वह लग रही थी अलग सी
कुछ अजूबा भी
उनके मन में थोड़ी दया
थोड़ा तरस भी था
और हर भाव से संवाद करती
वह बढ़ रही थी आगे आगे.... और आगे

यह जुलूस रोज रोज की रैली
राजनीतिक खेल और तमाशा
शहरियो के मन में खीझ
नफरत हिकारत भरे भाव
कि जुटाई गई भीड़
पैसे के लालच में आई है यह
अपने पांवो पर चल नहीं सकती
हूँ.......खाक लड़ेगी सरकार से !

इस शहरी अभिजात्य व्यंग्य पर
वह हँस रही थी
क्या जाने लड़ाइयाँ
कहाँ कहाँ और कैसे कैसे लड़ी गई हैं
कितनी गहरी हैं जडं़े
और कितना विशाल है इतिहास

क्या मालूम
कि पैरों से पहले वह दिल दिमाग से लड़ी जाती हैं
और वह सही सलामत है उसके पास
पूरा साबूत

वह जनसभा में सबसे आगे थी
कृष्णा, ताहिरा, विद्या, शोभा, शारदा, विमल, रेणु.......
अपनी असंख्य साथियों में वह थी
और सब थीं उसमें समाई हुई

पहाड़ी नदियाँ उतर रही थीं
चट्टानों से टकराती
उछाल लेती
लहराती मचलती बलखाती
बढ़ती उसी की ओर
अब वह औरत नहीं महानद थी।

( रचना तिथि: 8 मार्च 2010, अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर लखनऊ में हुई महिलाओं की रैली के बीच इस कविता ने जन्म लिया )

शुक्रवार, 4 जून 2010

नागरिक समाज: सुरक्षा में सेंध

कौशल किशोर

हमारा नागरिक समाज सुरक्षा और शान्ति के साथ जीना चाहता है। वह कानून का शासन चाहता है। वह ऐसी सरकार चाहता है जो उसके जान-माल की सुरक्षा प्रदान कर सके। वह ऐसा माहौल चाहता है जिसमें बिना भय के स्वच्छन्द भाव से कही भी आ और जा सके। लकिन आज यह दुर्लभ होता जा रहा है। नागरिक समाज का सरकार के सुरक्षा तंत्र पर से यकीन उठता जा रहा है। देखने में यही आ रहा है कि जहाँ जितनी सुरक्षा प्रदान की जा रही है, वहाँ वारदात भी बढ़ रही है। यह कहना शायद ज्यादा उचित लगता है कि सुरक्षा की व्यवस्था व इन्तजाम जितना पुख्ता किया जा रहा है, वहीं असुरक्षा भी दबे पाँव पहुँच रही है। इस सम्बन्ध में प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अभी हाल में घटी एक घटना की हम चर्चा करेंगे।

पिछले दो-ढ़ाई दशक में लखनऊ का काफी तेजी से विस्तार हुआ है। नई-नई कालोनियाँ और मुहल्ले अस्तित्व में आये हैं। लखनऊ-कानपुर रोड पर तो एक नया टाउनशिप ही बस गया है। इसी कालोनी के सेक्टर ‘जी’ के एक पार्क के चारो तरफ रहने वाले नागरिकों द्वारा सुरक्षा के सम्बन्ध में ली गई पहलकदमी की अवश्य प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने मकान व जान.माल की सुरक्षा के लिए थाना और पुलिस पर निर्भर न रह कर सामूहिक पहल ली और सुरक्षा व्यवस्था स्वयं कायम की। यहाँ करीब पचास मकान होंगे। इनमें रहने वाले अधिकांश नौकरी पेशा लोग हैं।

इस पार्क के चारों तरफ जो सड़क है, वह तीन ओर से बाहर निकलती है। इन तीनों रास्तों पर यहाँ के वाशिन्दों ने लाहे के मजबूत और बड़े फाटक बनवाये हैं। यदि ये फाटक बन्द कर दिये जायँ तो कोई इस पार्क वाले हिस्से में प्रवेश नहीं कर सकता। इन फाटकों में से दो हमेशा बन्द रहता है और एक ही फाटक आने.जाने वालों के लिए खुला रहता है। यहाँ दो गार्डों की व्यवस्था की गई है तथा हर बारह घंटे के बाद उनकी ड्यूटी बदल जाती है। ये गार्ड इस फाटक पर चौबीसो घंटे मौजूद रहते हैं और प्रत्येक आने.जाने वालों पर निगाह रखते हैं। किसी भी अपरिचित को तभी अन्दर जाने देते हैं जब वह उनके उŸार से संतुष्ट हो जाता है। लेकिन सुरक्षा की इस व्यवस्था के बावजूद हाल में यहाँ रहने वाले सुशील कुमार के घर में चोरी व जान.माल को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाने की घटना हो गई।

सुशील कुमार भारत सरकार की कम्पनी स्कूटर्स इण्डिया में मुख्य प्रबन्धक हैं और उनकी पत्नी कॉलेज में शिक्षिका हैं। दो बेटियाँ हैं जिनकी शादी हो चुकी है। घर में पति-पत्नी के अलावा माँ है जो काफी वृद्ध हैं। पति.पत्नी दोनों काम पर निकल जाते हैं, फिर शाम तक लौटते हैं और माँ घर में रह जाती हैं। सुशील कुमार ने अपने घर का निर्माण भी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए कराया है। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए नौकरी पेशा दम्पŸिा के पास यही विकल्प बचता है कि जब वे काम पर जायें तो माँ घर में रहें और बाहर ताला लगा दिया जाय अर्थात मकान का मुख्य दरवाजा बन्द, चैनल गेट पर ताला, उसके बाद मकान के मुख्य गेट पर ताला, बाहर पार्क के दोनों फाटक बन्द और एक फाटक जो खुला है, वहाँ चौबीस घंटे के लिए गार्ड तैनात है। इतनी व्यवस्था के बाद आदमी सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त हो सकता है। लेकिन इस सब के बावजूद घटना हो जाती है।

वारदात को अंजाम देने वाले भरी दोपहर में आते हैं। पहले वे मुख्य गेट का ताला तोड़ते हैं, फिर चैनल पर लगा ताला, उसके बाद मुख्य दरवाजा उनका निशाना बनता है। दरवाजे पर थाप पड़ने पर माँ को लगता है कि बहू या बेटा में से कोई आया है। वे दरवाजा खोलती हैं और अनजान चेहरे को देख अवाक रह जाती हैं। वे कुछ बोलें या शोर मचायें, तभी किसी घातक हथियार से उनके सिर पर वार होता है। वे बेहोश हो फर्श पर गिर पड़ती हैं और उनका खून वहाँ फैल जाता है। मध्य दोपहर में हुई इस घटना की जरा सी भी भनक किसी को नहीं लगती, पास.पड़ोस से लेकर गार्ड तक को कुछ नहीं मालूम। नकदी, जेवर - लाखों का सामान ले चोर चम्पत हो जाते हैं। इस वारदात का भी पता तब चलता है जब बहू कॉलेज से वापस आती हैं। फिर वही हुआ, जो घटना हो जाने के बाद होता है। शोर मचता है। भीड़ जुटती है। जिसे खबर मिलती है, वही दौड़ा चला आता है। लोगों द्वारा आश्चर्य और अफसोस का मिश्रित भाव प्रकट किया जाता है। पुलिस आती है। पहले तो यह विवाद सामने आता है कि सुशील कुमार का मकान किस थाना क्षेत्र में आता है, आशियाना या कृष्णानगर। इस विवाद के निपटारे के बाद पुलिस की पहली गाज घर की साफ.सफाई करने वाली, खाना बनाने वाली नौकरानी तथा बाहर फाटक पर तैनात गार्ड पर गिरती है। इस तरह पुलिस अपनी कर्रवाई की औपचारिकता में जुट जाती है।

यही हमारे नागरिक समाज की हकीकत है कि अपने तई की गई तमाम कोशिशों के बाद भी असुरक्षा ही उनके हाथ आ रही है। नागरिक समाज ही नहीं पूरा राष्ट्र ही अपनी सुरक्षा को लेकर परेशान है। देश की सुरक्षा पर सरकार द्वारा बजट का अच्छा.खासा हिस्सा खर्च किया जाता है। शिक्षा व स्वास्थ की तुलना में रक्षा खर्च हर बजट में बढ़ रहा है। आज तो आन्तिरिक सुरक्षा सरकार के लिए सबसे बड़ा सिर दर्द बन गया है। छŸाीसगढ़ से लेकर पश्चिम बंगाल तक की यह पूरी पट्टी आज ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ के नाम पर अर्द्धसैनिक बलों के हवाले है। यही नहीं, सरकार द्वारा मंत्रियों, नेताओं और माननीय लोगों को भी कई तरह की सुरक्षा प्रदान की जाती है। सुरक्षा के भी कई स्तर हो गये हैं। जितना बड़ा पद या व्यक्ति, उसकी उतने ही उच्च स्तर की सुरक्षा। लेकिन इस सब के बावजूद सेंध लग जाती है और सारी सुरक्षा व्यवस्था धरी की धरी रह जाती है। क्या यह भुलाया जा सकता है कि तमाम सुरक्षा कवच के बावजूद प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी तक हत्यारे पहुँच गये ?

हो यह रहा है कि जब कोई वारदात हो जाती है तब सुरक्षातंत्र की खोज-खबर ली जाती है। कहाँ क्या त्रुटि रह गई, जिसकी वजह से हादसा हुआ, मात्र यही खोज-खबर का विषय बनकर रह जाता है और ले.देकर मामला सुरक्षातंत्र को और चुस्त-दुरुस्त करने तक सिमट जाता है। हादसे के शिकार लोगों के लिए मुआवजे की घोषणा, घटना की जाँच के आदेश, अपने राजनीतिक नफे- नुकसान को ध्यान में रखकर बयानबाजी और ऐसा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली जा रही है। नागरिक समाज की सुरक्षा के साथ यही क्रूर मजाक हो रहा है। कभी घटना के सामाजिक-राजनीतिक कारणों की तह में जाने की गंभीर कोशिश नहीं दिखती।

गाँधीजी की एक बात याद आती है। जब उनसे पूछा गया था कि आपके सपनों का भारत कैसा होगा तो उन्होंने कहा कि स्वराज्य को प्रत्येक गरीब की कुटिया तक पहुँचाना हम सबका काम होगा और मेरे सपनों का भारत ऐसा होगा जिसमें हर आदमी यह महसूस कर सके कि यह देश उसका है, उसके निर्माण में उसकी आवाज का महत्व है। परन्तु सच्चाई यह है कि आज आवाज किसी की गूँज रही है तो वह दबंगों, धनपशुओं, राजनीतिक सौदागरों और अपराधियों की है। ऐसा समाज बन गया है जिसमें गुंडों व अपराधियों का राजतिलक हो रहा है। लोकतंत्र का अपराधीकरण हो गया है। ऐसे में आम नागरिक कहाँ तक सुरक्षित रह सकता है ? इसीलिए सुरक्षा की दिशा में किये गये उसके सामूहिक प्रयास भी बेमानी हो जाते हैं।

आज हमारा नागरिक समाज तो ऐसी जमीन पर खड़ा है जिसके नीचे बारूदी सुरंग है। पता नहीं कब उसका पाँव पड़ जाय और विस्फोट हो जाय। हालात तो ऐसे ही हैं जैसाकि हिन्दी के कवि वीरेन डंगवाल ने अपनी कविता ‘हमारा समाज’ में कहा है:
हमने यह कैसा समाज रच डाला
हैइसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला
हैकालेपन की वे संताने है
बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहींअपना काला जादू हैं हम पर फेर रहीं
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना है ?

बुधवार, 26 मई 2010

सईद का दर्द

कौशल किशोर

कहा जाता है कि समय के साथ मनुष्य के बड़े-से-बड़े जख्म भर जाते हैं। वह उन्हें भूल भी जाता है। लेकिन जिन्दगी के कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो समय के साथ भर जाने का आभास देते हैं पर वे भरते नहीं। कवि, चित्रकार व अनुवादक सईद के दिलो-दिमाग पर पड़े जख्म कुछ ऐसे ही हैं। बाहर से वे दिखते नहीं लेकिन अपने अन्दर कितना दर्द समेटे हुए हैं, यह सईद को लेकर आयोजित गोष्ठी में देखने को मिला।

सईद ने 1972 में देश छोड़ा। फिनलैण्ड गये। वहीं बस गये और वहाँ की नागरिकता भी ले ली। अभी हाल में हिन्दुस्तान आये और मित्रों से मिलने लखनऊ पहुँचे। लखनऊ के राज्य सूचना केन्द्र में उनके कविता पाठ और उनसे संवाद का कार्यक्रम रखा गया था। फिनलैण्ड हमारे लिए बहुत कुछ अपरिचित सा देश है। इसलिए वहाँ का समाज और राजनीतिक व्यवस्था कैसी है ? लोगों के सोचने-समझने का नजरिया कैसा है ? वह समाज कितना हमारे जैसा और कितना हमसे भिन्न हैं ? साहित्य और संस्कृति का माहौल कैसा है ? यह सब जानने की स्वाभाविक उत्सुकता हमारे अन्दर थी।

लेकिन उस वक्त माहौल अत्यंत गंभीर हो गया, जब हममें से किसी ने सईद से पूछा कि आपने देश क्यों छोड़ा ? आखिर ऐसा क्या हुआ जिसकी वजह से आपको यहाँ से जाना पड़ा और फिनलैण्ड की नागरिकता लेनी पड़ी ? हमने महसूस किया कि इन सवालों पर सईद के चेहरे का रंग स्याह पड़ गया है और वे अपने को असहज पा रहे हैं। उन्होंने अपनी आँखें मूँद ली थी और जब खुलीं तो वे आँसूओं से भरी थीं। वे कुछ कह रहे थे। आवाज भर्राई हुई थी और शब्द अस्पष्ट थे.......‘क्या करता, मुझे जेल में डाल दिया गया। गुप्तचर विभाग वालों ने तरह।तरह के सवालों से मुझे मानसिक रूप से परेशान कर दिया था। वे क्या उगलवाना चाहते थे, किस जुर्म की सजा दी जा रही थी, मुझे पता नहीं था। ऐसी हालत थी कि.....मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था। मुझे इस व्यवस्था से नफरत हो गई थी।.......’ और सईद भरी गोष्ठी में रो पड़े। उनकी इस प्रतिक्रिया से हम सभी स्तब्ध थे।

सईद को कविता लिखने और पेंटिग करने का शुरू से शौक रहा। भवाली ;उŸाराखण्डद्ध के रहने वाले सईद विज्ञान के स्नातक थे। जीवन ही नहीं, विज्ञान की बारीकियों को भी जानने।सीखने की जबरदस्त धुन थी। इसी धुन में कभी वे प्रयोगशालाओं तक पहुँच जाते तो कभी अनुसंधान केन्द्रों तक। लेकिन माहौल उनके अनुकूल नहीं था क्योंकि वे ‘सईद’ थे। उन दिनों बांग्ला देश का मुक्ति संग्राम और पाकिस्तान के साथ युद्ध चल रहा था। सईद की खोजी प्रवृŸिा ने उन्हें संकट में डाल दिया। गुप्तचर विभाग की नजर में दुश्मन के ‘जासूस’ लगे। फिर क्या था ? उनसे पूछ.ताछ का दौर चला। जब कुछ नहीं मिला तो यातनाएँ दी जाने लगीं। जेल में डाल दिया गया। और जब जेल से बाहर आये तो दिल.दिमाग बुरी तरह घायल था। अब उनके पास यही विकल्प बचा था कि वे देश से दूर चले जायंे। फिर लौट कर न आयें और वे सुदूर उŸारी ध्रुव के देश फिनलैण्ड पहुँच गये।

पर सईद दिल-दिमाग से दूर नहीं जा पाये। एक से दो साल भी नहीं बीत पाता कि वे हिन्दुस्तान आ जाते। दोस्तों से मिलते। उस शहर, कस्बे, गाँव तक जाते जो अपने थे। उम्र भी साठ के पार हो गई है। शरीर भी भारी-भरकम हो गया है। मधुमेय और साँस फूलने की बीमारी है। चलना, सीढ़ियाँ चढ़ना दूभर सा हो गया है। पर यहाँ आने-जाने का सिलसिला कम नहीं हुआ।

फिनलैण्ड में रहते हुए सईद ने ढ़ेर सारी कविताएँ लिखीं, चित्र बनाये, अनुवाद किये। सईद ने प्रसिद्ध फिनिश उपन्यासकार मिका वाल्तरी के उपन्यास ‘सिनुहे मिश्रवासी’ का हिन्दी में अनुवाद किया है जिसे राजकमल प्रकाशन छाप रहा है। गोष्ठी में सईद ने अपनी कई कविताएँ सुनाईं। कविताओं को सुनते हुए लगा कोई चित्रकार अपनी कूची से कैनवास पर चित्र उकेर रहा है। सईद की कविताओं में ‘भटकती हुई घायल आत्मा’, ‘जलती हुई झाड़ियाँ’, ‘अंधेरे की चादर’, ‘झुलसता हुआ रेगिस्तान’, ‘मृणासन्न ऋतुएँ’, ‘हृदय विदारक चीत्कार’, ‘क्षितिज रक्ताभ’, ‘थके मांदे या मृत मौसम’ जैसे चित्र उभरते हैं। इनसे गुजरते हुए लगता है कि यहाँ गहरी उदासी है, रंग फीके और अवसाद से भरे हैं। बातचीत के क्रम में सईद ने बताया भी कि ये कविताएँ जब पुस्तक के रूप में छपेंगी तो इसका शीर्षक होगा: ‘दूर से आती एक प्रवासी की आवाज’। तब हमें समझते देर नहीं लगी कि यहाँ फैली उदासी और अवसाद क्यों है ? कहीं न कहीं सईद के अर्न्तमन में अपनी जड़ों से कट जाने की व्यथा और उनसे संवाद की छटपटाहट है। वहीं यहाँ अभिव्यक्त हो रही है।

सईद अकेले नहीं हैं। इनके जैसों की पीड़ा, देश छोड़कर जाना और विदेशी नागरिकता लेना, यह सवाल है। मकबूल फिदा हुसैन ने उम्र के इस पड़ाव पर कतर की नागरिकता ली। कुछ लोग इसके लिए हुसैन की आलोचना भी करते हैं। लेकिन क्या हुसैन की पीड़ा को समझने, उनके मन में झाँकने की कोशिश की गई ? हुसैन कहते हैं कि भले मैं हिन्दुस्तान के लिए प्रवासी हो गया हूँ लेकिन मेरी यही पहचान रहेगी कि मैं हिन्दुस्तान का पेन्टर हूँ, यहाँ जन्मा कलाकार हूँ। अर्थात हुसैन के कलाकार की जड़े यहीं है और अपने जड़ो से कटने का जो दर्द होता है, वह यहाँ भी है। कलाकार स्वतंत्रता चाहता है। वह प्रतिबन्धों, असुरक्षा में नहीं जीना चाहता है।

पर व्यवस्था ऐसी है जो कलाकार को न्यूनतम सुरक्षा की गारण्टी नहीं दे सकती। यहाँ लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता है। नागरिकों को अपना पसंदीदा धर्म व पंथ अपनाने की स्वतंत्रता है। ‘वसुधैव ही कुटुम्बकम’ को भारतीय संस्कृति बताते हुए हम थकते नहीं। परन्तु सईद, हुसैन.....जैसे कलाकारों या ऐसे अनगिनत लोगों के लिए इतनी भी जगह क्यों नहीं जहाँ वे स्वतंत्रता से जी सकें, रह सकें ? बड़ी।बड़ी बातों के बीच अक्सरहाँ इन छोटी बातों को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। सईद फिनलैण्ड वापस जा चुके हैं लेकिन सोचने के लिए यह सवाल छोड़ गये हैं।

सोमवार, 17 मई 2010

लोक रंग -- 2010

फूहड़पन व भड़ैती के विरुद्ध सांस्कृतिक पहल

कौशल किशोर

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से लेकर इससे सटे बिहार तक फैली पूरब की इस पट्टी में इन दिनों एक नई सांस्कृतिक चेतना करवट लेती हुई देखी जा सकती है। यहाँ एक नया प्रयोग देखने को मिल रहा है, वह है लोककला को आधुनिक कला और बौद्धिक समुदाय को गंवई जनता के साथ जोड़ने का। कला और संस्कृति को जन से जोड़ने की बात बहुत की जाती है लेकिन इसका मूर्त रूप हमें ‘लोक रंग’ में देखने को मिलता है जो पिछले तीन सालों से गौतमबुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर से करीब बीस किलोमीटर दूर जोगिया जनूबी पट्टी में आयोजित हो रहा है।

जोगिया हिन्दी कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा का गाँव है। सुभाष और आशा कुशवाहा तथा इस गाँव के नौजवानों के संयोजन में लोक रंग सांस्कृतिक समिति ने 8 व 9 मई को ‘लोक रंग - 2010’ का आयोजन किया जिसे देखने-सुनने के लिए अगल-बगल के गाँवों से बड़ी संख्या में लोग आये। इस गाँव की गलियों, दीवारों, अनाज रखने वाले बखारों और पेड़-पौधों को विभिन्न कलाकृतियों तथा मुक्तिबोध, त्रिलोचन, नागार्जुन, शमशेर, धूमिल, गोरख पाण्डेय, वीरेन डंगवाल जैसे कवियों के कविता पोस्टर से सजाया गया था। अपना गाँव साफ-सुथरा व सुन्दर दिखे, इसके लिए समिति के नौजवानों के साथ स्त्री।पुरुष सभी जुटे थे। यह जोगिया में उभरती समरसता व साथीपन की नई संस्कृति है जिसकी गँूज दूर तक सुनी जायेगी और यहाँ पहुँचे कलाकार इसे लम्बे समय तक याद रखेंगे।

इस बार के दो दिवसीय कार्यक्रम की खासियत यह रही कि क्षेत्रीय लोक कलाकारों के साथ छतीसगढ़ व बुन्देलखण्ड के लोक कलाकार व मण्डलियाँ भी आईं। अच्छी-खासी संख्या में हिन्दी, उर्दू व भोजपुरी के लेखक व बुद्धिजीवी जुटे। दो दिनों तक चले इस कार्यक्रम में लोककलाओं, लोक नृत्य, लोकगीतों व नाटकों का प्रदर्शन हुआ तथा ‘लोकगीतों की प्रासंगिकता’ विषय पर विचार गोष्ठी भी हुई। इस आयोजन के द्वारा यह विचार मजबूती से उभरा कि लोक संस्कृति की जन पक्षधर धारा को आगे बढ़ाकर ही अपसंस्कृति का मुकाबला किया जा सकता है।

‘लोक रंग - 2010’ की मुख्य अतिथि थीं बांग्ला की मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी। लेकिन अचानक स्वास्थ्य खराब हो जाने की वजह से वे नहीं पहुँच पाईं। उन्होंने फैक्स से अपना संदेश भेजा जिसे पढ़ा गया और इसी से समारोह की शुरुआत हुई। नाटककार हृषीकेश सुलभ और आलोचक वीरेन्द्र यादव ने शाल ओढ़ाकर और स्मृति चिन्ह देकर भोजपुरी कवि अंजन और रामपति रसिया का सम्मान किया।

इस मौके पर हिन्दी कथाकार शिवमूर्ति ने लोक संस्कृति की पुस्तक ‘लोकरंग-2’ (संपादन-सुभाष चन्द्र कुशवाहा ) का लोकार्पण करते हुए कहा कि हमारे यहाँ लोक संस्कृति की मजबूत परम्परा रही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक फैले इस क्षेत्र में जनता के दुख दर्द व संघर्ष यहाँ के लोक नाटकों व लोक गीतों में अभिव्यक्त होता रहा है लेकिन आज फूहड़पन और भड़ैती से भोजपुरी की पहचान बनाई जा रही है। अश्लील भोजपुरी फिल्मों व गीतों की तो बाढ़ आ गई है। बाजार की शक्तियों ने लोकगीतों को अपने मुनाफे का साधन बना दिया है और लोक संस्कृति को नष्ट कर इसे बाजार की वस्तु में तब्दील किया जा रहा है। ऐसे समय में ‘लोक रंग’ का आयोजन अपसंस्कृति के विरुद्ध वैकल्पिक संस्कृति का आन्दोलन है।

शिवमूर्ति ने लोक संस्कृति के संदर्भ में जिस खतरे और संकट की ओर संकेत किया, इसी विचार और भावना का विस्तार संगोष्ठी में था। भले ही विचार गोष्ठी का विषय ‘लोकगीतों की प्रसंगिकता’ रहा हो लेकिन ज्यादातर बहस इसके इर्द-गिर्द ही घूमती रही। लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा की अध्यक्षता में हुई इस विचार गोष्ठी का संचालन युवा आलोचक सुधीर सुमन ने किया। संगोष्ठी को संबोधित करने वालों में दिनेश कुशवाहा, तैयब हुसैन, शिवमूर्ति, राजेश कुमार, अरुणेश नीरन, हृषीकेश सुलभ, देवेन्द्र, वीरेन्द्र यादव आदि लेखक प्रमुख थे।

वक्ताओं का कहना था कि लोकगीत ऐसा लोक काव्य रूप है जिसके माध्यम से श्रमशील जनता अपना दुख-दर्द, हर्ष-विषाद, संघर्ष अभिव्यक्त करती रही है। महिलाओं के लिए तो लोकगीत उन्हें अपनी पीड़ा का बयान करने का माध्यम रहा है। आज की तरह का उसमें स्त्री विमर्श भले न हो लेकिन उसमें उनके जीवन का विमर्श जरूर मौजूद है जो काफी मर्मस्पर्शी है।

वक्ताओं की इस बात से असहमति थी कि लोक कलारूपों की एक निश्चित उम्र होती है और समय के साथ उनकी प्रसंगिकता समाप्त हो जाती है। इसके बरक्स वक्ताओं का कहना था कि लोकगीतों की धारा विकासमान है जो समय के साथ विकसित होती है। समाज की संस्कृति पर जिस तरह शासक संस्कृति का असर मौजूद रहता है, उसी तरह लोकगीतों पर भी उसका प्रभाव रहा है। लेकिन जनजीवन और संघर्ष से जुड़ना लोकगीतों की खासियत रही है। जन संस्कृति के मजबूत तत्व इसमें मौजूद हैं जिसका विकास गोरख पाण्डेय, रमताजी, विजेन्द्र अनिल, महेश्वर आदि के गीतों में देखने को मिलता है।

कवि दिनेश कुशवाहा के संचालन में दो दिनों तक चले लोक संस्कृति के इस समारोह में रानी शाह व साथियों के द्वारा छठ गीत, रमाशंकर विद्रोही द्वारा कविता पाठ, रामऔतार कुशवाहा व उनके साथियों के द्वारा अचरी गायन, गोपालगंज ;बिहारद्ध की टीम के द्वारा फरी नृत्य, गुड़ी संस्था द्वारा छŸाीसगढ़ी लोकगीत, सियाराम प्यारी व रामरती कुशवाहा आदि के द्वारा बृजवासी गायन व नृत्य, राम आसरे व साथियों के द्वारा ईसुरी फाग गायकी, राम प्यारे भारती, उपेन्द्र चतुर्वेदी, मंगल मास्टर, अंटू तिवारी आदि के द्वारा भोजपुरी गीतों का गायन, जितई प्रसाद व उनकी टीम द्वारा हुड़का नृत्य, चिखुरी व उनकी टीम द्वारा पखावज नृत्य, असगर अली व साथियों द्वारा कौव्वाली आदि प्रस्तुत किया गया।

इस मौके पर छŸाीसगढ़ की सांस्कृतिक संस्था ‘गुड़ी’, छत्तीसगढ़ लोक कला व लोक संस्कृति के संवर्द्धन में सक्रिय है, ने ‘बाबा पाखण्डी’ का मंचन किया। इस नाटक के लेखक व निर्देशक डॉ योगेन्द्र चौबे हैं। इप्टा, पटना ने भिखारी ठाकुर के चर्चित नाटक ‘गबरघिचोरन के माई’ का मंचन किया। ‘बाबा पाखण्डी’ सामाजिक विद्रूपता व पतन को छŸाीसगढ़ी लोक नाट्य शैली में प्रस्तुत करता है। छŸाीसगढ़ी में होने के बावजूद यहाँ नाटक की संप्रेषणीयता में कोई बाधा नहीं है। ‘गबरघिचोरन के माई’ नाटक बढ़ती हुई स्वार्थपरता व अमानवीयता को सामने लाता है।

‘लोक रंग’ ने कोई तीन साल पहले पूर्वांचल में मौजूद गायन, वादन, नृत्य, साहित्य आदि के कला रूपों को भड़ैती व फूहड़पन से बचाने और जन पक्षधर संस्कृति के संवर्द्धन के उद्देश्य से अपनी यात्रा शुरू की थी। आज वह छŸाीसगढ़ व बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतियों को अपने साथ जोडने में सफल हुआ है। इस तरह ‘लोक रंग’ विविध लोक संस्कृतियों के समागम का मंच बनकर उभर रहा है। इसका स्वागत होना चाहिए। फिर भी एक चीज जो बार बार ‘लोक रंग - 2010’ में खटकती रही, वह है लोकगीतों के नाम पर छठ गीत और धार्मिक प्रभाव वाले गीत। आज ये कहीं से भी प्रसंगिक नहीं हैं। इनसे हमें मुक्त होने की जरूरत है। जन पक्षधर संस्कृति के संवर्द्धन के लिए यह जरूरी भी है।

बुधवार, 12 मई 2010

भारत के मावोवादियों की विचारधारा क्रन्तिकारी नहीं , अराजकतावादी है -- रामजी राय

कौशल किशोर

नक्सलवाद क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट धारा है जो समाज के का्रन्तिकारी रूपान्तरण के लिए शोषित, उत्पीड़ित और मेहनतकश जन समुदाय के लिए जुझाारू संघर्ष चलाने वाली घारा के रूप में जानी जाती है। यह केवल हथियारबन्द संघर्ष का वाद नहीं है जैसा कि प्रचारित किया जाता है। यदि ऐसा होता तो शासक वर्ग अपनी विशाल सैन्य ताकत के बल पर उसे कभी का खत्म कर दिया होता। अपनी क्रान्तिकारी रणनीति और कार्यनीति के बूते ही वह आगे बढ़ी है और जनता के कठिन कठोर संघर्ष के जरिये उसके अन्दर क्रान्ति का स्वप्न जगाये हुए है।

यह विचार ‘समकालीन जनमत’ के प्रधान सम्पादक रामजी राय ने व्यक्त किये। वे ‘भारत में माओवाद, राज्य और कम्युनिस्ट आन्दोलन’ विषय पर आयोजित सेमिनार में बोल रहे थे। इसका आयोजन लेनिन पुस्तक केन्द्र ने कार्ल मार्क्स जयन्ती के अवसर पर उŸार प्रदेश प्रेस कलब में किया। इस मौके पर प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिन्तक व ‘लिबरेशन’ के सम्पादक अरिन्दम सेन की पुस्तक ‘‘भारत में ‘माओवाद’, राज्य और कम्युनिस्ट आन्दोलन’ का लोकार्पण भी हुआ। लेनिन पुस्तक केन्द्र ने इस पुस्तक हिन्दी में प्रकाशन किया है।

रामजी राय का कहना था कि भारत में माओवादी लोकतांत्रिक संघर्ष और इस प्रक्रिया से बिल्कुल अलग-थलग महज हथियारबन्द कार्रवाई तक सीमित हैं। उनके अनुसार इस देश में क्रान्तिकारी परिस्थिति हमेशा मौजूद है इसलिए सशस्त्र संघर्ष के लगातार हालात बने हुए हैं। इतने विशाल व विविधतापूर्ण देश में माओवादियों की कार्रवाई क्रान्तिकारी विचार व व्यवहार पर आधारित न होकर अन्ततः यह अराजकतावाद है। आज राज्य और माओवादी जिस वन ट्रैक पॉलिसी पर चल रहे हैं वहाँ राजनीति पीछे छूट गई है। राज्य का चरित्र दमनकारी बन चुका है और जनता को अपने छाटे-छोटे अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। आज राज्य दमन के विरुद्ध जन प्रतिवाद व जन प्रतिरोध भी हो रहा है लेकिन माओवादियों के द्वारा जारी अविवेकपूर्ण व आतार्किक हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता है। माओवादियों की कार्रवाई जन पहलकदमी को अवरुद्ध करती है और अन्ततः क्रान्ति को नुकसान ही पहुँचाती है।

सेमिनार का संयोजन करते हुए जन संस्कृति मंच के संयोजक व लेनिन पुस्तक केन्द्र के अध्यक्ष कौशल किशोर ने कहा कि जिनकी व्यवस्था आतंक के बल पर चलती है, उन्हें हमेशा अपने आसपास आतंकवादी ही नजर आते हैं। यह एक राजनीतिक मनोरोग है। अमेरीकी सŸाा प्रतिष्ठान इस मनोरोग का गंभीर रूप से शिकार रहा है। अब भारतीय व्यवस्था के सिद्धान्तकारों व प्रबन्धकों ने इस मनोरोग का ‘आयात’ अमेरीका से कर लिया है। जैसै-जैसे यह व्यवस्था साम्राज्यवादपरस्त हुई है, राज्य का चरित्र दमनकारी व लोकतंत्र विरोधी होता चला गया है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर चलाये जा रहे ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ इसी का ताजा उदाहरण है।

सेमिनार की अध्यक्षता करते हुए कम्युनिस्ट नेता जयप्रकाश नारायण ने कहा कि राज्य व्यवस्था ने विकास का जो मॉडल अपनाया है, उसने विशाल बहुसंख्यक जनता को विस्थापन के लिए मजबूर कर दिया है। हमारी अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा पिछड़ेपन व अर्द्धसामन्ती सम्बन्धों की जकड़न में है। कॉरपोरेट सेक्टर लगातार फल-रहा है, वहीं आम लोगों की दशा दयनीय होती जा रही है। शोषण, दोहन व अत्याचार की इस प्रक्रिया को चुनौतियाँ भी मिल रही हैं। जन उभार और जगह जगह से लोकतांत्रिक संघर्ष फूट रहे हैं। कम्युनिस्ट आन्दोलन को इन संघर्षों का नेतृत्व देने की चुनौती है। माकपा के सामाजिक जनवादी या माओवादियों के अराजकतावादी रास्ते से कम्युनिस्ट आंदोलन इस चुनौती का मुकाबला नहीं कर सकता है।

इस मौके पर मानवाधिकार आन्दोलन से जुड़े एस आर दारापुरी, ट्रेड यूनियन नेता ओ पी सिन्हा, लेखक चन्द्रेश्वर, सामाजिक कार्यकर्ता जानकी प्रसाद गौड़ आदि ने भी अपने विचार रखे। वक्ताओं का कहना था कि जैसे.जैसे राज्य प्रणाली बाजार के साथ जुड़ती जा रही है, वैसे-वैसे व्यापक जनता विकास और लोकतंत्र के दायरे से बाहर ढ़केली जा रही है। बिहार, झारखण्ड, छŸाीसगढ़, ओड़ीशा जैसे राज्यों में बहुसंख्यक जनता गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी की चपेट में है। इसके विरुद्ध जो जन संघर्ष चल रहा है, उसे दबाने में राज्य पूरी तरह से सक्रिय है। जन प्रतिवाद व लोकतांत्रिक संघर्षों के दमन का ‘माओवाद’ हथियार बन गया है। लेनिन पुस्तक केन्द्र के प्रबन्धक गंगा प्रसाद ने धन्यवाद ज्ञापन दिया।

रविवार, 2 मई 2010

दलित अखाड़े में दंगल

कौशल किशोर

अखाड़े में दंगल चल रहा है। दो पहलवान आपस में गुत्थम-गुत्था हैं, एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए जोर आजमाइश करते। पटखनी देने के लिए तरह-तरह के दांव-पेंच का इस्तेमाल होता है। दर्शकों की बड़ी भीड़ है और पहलवानों को इनका समर्थन चाहिए। अखाड़े के बाहर ताल ठोकते कुछ और पहलवान भी हैं।

उत्तर प्रदेश का राजनीतिक रंगमंच इन दिनों बहुत-कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित कर रहा है। पिछले काफी अरसे से इस प्रदेश की राजनीति सपा और बसपा के इर्द-गिर्द घूमती रही है, वह आज कांग्रेस और बसपा की ओर केन्द्रित होती हुई दिखने लगी है। मायावती काग्रेस पर निशाना साध रही हैं, तो कांग्रेस भी उनसे पीछे नहीं। वह भी पूरे हमलावर अन्दाज में उन पर हल्ला बोल रही है। दलितों को लेकर ये दोनों अपने-अपने दांव व दावे पेश कर रहे हैं। इससे यही आभास हो रहा है कि भले विधान सभा चुनाव में अभी दो साल की देरी है लेकिन उसका एजेण्डा इन्होंने अभी से सेट करना शुरू कर दिया है और दलितों पर अपनी दावेदारी के लिए इनके बीच तीखी जंग छिड़ गई है। कांग्रेस की ओर से इस जंग की बागडोर नेहरू परिवार की चौथी पीढ़ी राहुल गाँधी के हाथ में है, वहीं बसपा की ओर से इसकी कमान सुप्रीमो मायावती ने संभाल रखा है।

चार दशक तक प्रदेश में राज करने वाली कांग्रेस के लिए अपने सामाजिक आधार का खिसक जाना उसके लिए सबसे बड़ी चिन्ता का विषय रहा है। लेकिन पिछली लोकसभा के चुनाव की सफलता को कांग्रेस अपने लिए पुनर्जीवन मानती है। इसीलिए वह इस दिशा में काम कर रही है कि अगर केन्द्र में सरकार को बनाये रखना है तो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अपने पाँव का मजबूती से टिके रहना जरूरी है। अपने सामाजिक आधार को पुनः प्राप्त करना और आगामी विधान सभा चुनाव तक उसे कांग्रेस के वोट में बदलते हुए प्रदेश की सरकार तक पहुँचना कांग्रेस का लक्ष्य बन गया है।

इसके लिए कांग्रेस ने सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा के द्वारा मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बनाना शुरू किया है। राहुल गाँधी के द्वारा दलित बस्तियों में जाना, उनके बीच रात गुजारना, उनकी समस्याओं के साथ रु ब रु होना, पिछले साल कांग्रेसी नेताओं का हरिजन बस्तियों में गाँधी जयन्ती मनाना आदि उसी कवायद का हिस्सा माना जा सकता है। कांग्रेस का यह अभियान राहुल गाँधी द्वारा संचालित हैैं और नेहरू परिवार की विरासत और कारपोरेट मीडिया द्वारा स्थापित व प्रचारित युवा की ‘आकर्षक’ छवि का लाभ भी उन्हें एक हद तक मिल रहा है। लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं राहुल गाँधी का राजनीतिक भविष्य भी इससे जुड़ा है।

यह ऐसा दौर है जब कांग्रेस और बसपा जैसे दलों के लिए विचारधारा का महत्व गौण हो गया है। अब तो अवसर का लाभ उठाना और सरकार तक पहुँचना ही मकसद है। इसी के तहत जहाँ बसपा की ‘बहुजन’ से शुरू हुई यात्रा ‘सर्वजन’ तक पहुँच गई है, वहीं कांग्रेस के द्वारा भी ‘अम्बेडकर प्रेम’ का खूब दिखावा किया जा रहा है। कांग्रेस आज अच्छी तरह इस बात को समझती है कि गांधी की ‘हरिजन’ अवधारणा से वह दलितों के बीच अपनी पैठ नहीं बना सकती है। इसीलिए आज चतुर खिलाड़ी की तरह दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए उसके द्वारा अम्बेडकर का इस्तेमाल हो रहा है।

यह कांग्रेस की स्थापना का 125 वां साल है। इस मौके पर राहुल गाँधी के द्वारा दस संदेश यात्राओं को हरी झण्डी दिखाई गई। इसके लिए अम्बेडकर जयन्ती 14 अप्रैल का दिन और स्थान के बतौर अम्बेडकर नगर का चुनाव किया गया। अम्बेडकर नगर, जो मायावती का अभेद्य किला है, यहाँ से बड़ी रैली करके संदेश यात्राओं की रवानगी से राहुल गाँधी ंने जो संदेश दिया है, उसका एक निश्चित राजनीतिक निहितार्थ है। राहुल गाँधी द्वारा मायावती पर सीधा हमला बोला जाता है कि उनकी वजह से केन्द्र सरकार की योजनाओं का लाभ प्रदेश के गरीबों और दलितों को नहीं मिल पा रहा है। केन्द्र का पैसा लखनऊ के आगे नहीं पहुँच पा रहा है। यह मूर्तियों, स्मारकों और पत्थरों पर बर्बाद किया जा रहा है। अपने इस तरह के आरोप के द्वारा राहुल गाँधी का मायावती को उनके गढ़ में जाकर घेरना है।

यही मायावती के लिए चिन्ता का मुख्य विषय है क्योंकि दलित ही बसपा के मुख्य सामाजिक आधार हैं। इस आधार पर एकाधिकार तक का दावा रहा है। इसी के बूते मायावती दूसरे दलों के साथ सौदेबाजी करती रही हैं। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री का दावा भी उनके द्वारा पिछले चुनाव में पेश हुआ था तो आधार यही था। प्रदेश में घटनाक्रम का विकास जिस तरह से हो रहा है, उससे इस एकाधिकार को चुनौती मिली है। यह देखने में आया है कि मायावती के ‘बहुजन’ से ‘सर्वजन’ की यात्रा की वजह से दलितों के अन्दर बहनजी व बसपा के प्रति जो प्रतिबद्धता थी, उसमें ह्रास हुआ है। बसपा की पिछली रैली को लेकर दलितों में बहुत उत्साह नहीं दिखा। बल्कि राजनीतिक हलके में इसे मायावती का फ्लाप शो माना जा रहा है।

इसने मायावती को पुनर्विचार के लिए अवश्य बाध्य किया है। प्रतिक्रियास्वरूप वे अपनी जड़ों की तरफ लौटने का आभास देती जरूर नजर आती हैं। लेकिन वे बहुजन और सर्वजन के जिस भँवरजाल में फँस चुकी हैं, उनके लिए इससे निकलना आसान नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के द्वारा उनके सामाजिक आधार में पैठ बनाना उन्हें कैसे बरदाश्त हो सकता है। इसीलिए वे भी कांग्रेस को महिला आरक्षण विधेयक के वर्तमान स्वरूप को लेकर घेरती हैं और कांग्रेस को दलित विरोधी मानसिकता वाली पार्टी करार देते हुए उस पर प्रहार करती हैं। कांग्रेस पर दलित नायकों को उपेक्षित करने का आरोप लगाते हुए मायावती अपनी सरकार द्वारा दलित नायकों की मूर्तियाँ लगाने और उनके नाम पर स्मारक बनाने को ऐतिहासिक कार्य के रूप में स्थापित करते हुए इसके औचित्य का तर्क पेश करती हैं।

इस तरह कांग्रेस और बसपा के बीच छिड़ी यह जंग आरोप और प्रत्यारोप के दायरे से बाहर नहीं निकल पा रही है। यहाँ दलित सवालों को लेकर न तो तो कोई स्वस्थ व समग्र दृष्टिकोण है और न ही कोई सार्थक बहस है। कुलमिला कर अपने को बड़ा दलित हितैषी और दूसरे को उतना ही दलित-गरीब विरोधी साबित करने में सारी ऊर्जा खत्म की जा रही है। अम्बेडकर भी यहाँ महत्वहीन हैं। कांग्रेस के लिए वे मात्र दिखावे और राजनीतिक इस्तेमाल के लिए हैं तो बसपा के लिए वे मूर्तियों में कैद हैं। उनके रेडिकल विचारों से इनका कोई लेना-देना नहीं है।

हकीकत यह है कि आजादी के बाद के पिछले 63 सालों में तमाम योजनाओं के बावजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में दलित और आदिवासी समाज में सबसे नीचे बने हुए हैं। भूमि सुधार के अधूरे कार्य विषय पर गठित आयोग के अनुसार 80 प्रतिशत दलित और 90 प्रतिशत आदिवासी भूमिहीन हैं। इनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह जिन विकास नीतियों पर केन्द्र की कांग्रेस और प्रदेश की बसपा सरकारों के द्वारा अमल किया गया है, उसकी वजह से गाँव उजड़ रहे हैं और विस्थापितों के पुनर्वास की इन सरकारों के पास कोई योजना नहीं है। किसानों से खेती की जमीन छीनी जा रही है और कारपोरेट जगत को औने-पौने दामों में सौंपा जा रहा है। वन अधिकार कानून के बावजूद इस अधिकार से दलित-आदिवासी वंचित हैं। अपनी ही समितियों की रिपोर्ट को दरकिनार कर सरकार कहती है कि देश में 28 प्रतिशत गरीब हैं और इसी आधार पर गरीबी की रेखा का निर्धारण हो रहा है। गरीबों और दलितों के नाम पर बनी योजनाएँ भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हैं। यहाँ काँग्रेस की उदारवादी आर्थिक नीतियों के सवाल पर बसपा की उससे पूरी एकता है। मायावती उसी रास्ते पर है जिसकी रचनाकार स्वयं कांग्रेस है।

जहाँ तक मायावती के शासन में दलितों, महिलाओं व कमजोर तबकों पर होने वाले हमलों की बात है, आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश अन्य राज्यों की तुलना में आगे है। मायावती सरकार के कार्यकाल के शुरुआती सोलह महीनों में आठ हजार से ज्यादा दलित उत्पीड़न की घटनाएँ दर्ज की गई हैं जिनमें पाच हजार दो सौ मामलों में पुलिस आरोप पत्र भी नहीं दाखिल कर पाई है।

प्रदेश में लोकतांत्रिक अधिकारों की हालत यह है कि मायावती सरकार को अपना विरोध बर्दाश्त नहीं। यहाँ भी कांग्रेस और बसपा में एका है। विरोध जताने और अपनी मांगों को बुलन्द करने के लिए जनता ना तो दिल्ली में संसद मार्ग तक पहुँच सकती है और न लखनऊ की विधान सभा तक। यदि किसी तरह पहुँच भी गयी तो वहाँ स्वागत के लिए लाठी, आंसूगैस, पानी की तेज बौछारें और जेल है। शान्तिपूर्ण धरना देने वालों को कांग्रेस सरकार ने बहुत पहले दिल्ली के वोट क्लब से दूर कर दिया। मायावती ने भी लखनऊ के गोमती तट पर खदेड़ दिया है। केन्द्र सरकार ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ चला रही है, वही मायावती राज में ‘माओवाद’ लोकतांत्रिक आन्दोलनों पर दमन का हथियार बन गया है। ये सारे मुद्दे राहुल गाँधी के ‘मिशन - 2012’ और कांग्रेस की संदेश यात्राओं से बाहर हैं।

दरअसल, हमारे यहाँ बहुजन, सर्वजन, हरिजन, दलित के नाम पर राजनीतिक गोटियाँ बहुत सेंकी गई हैं। बहुसंख्यक वंचित तबका आज भी हाशिए पर है। समाज के वे हिस्से जो प्रभावशाली वर्ग से आते हैं, बसपा के केन्द्र में आ गये हैं। इसमें दलितों में उभरा एक विशिष्ट तबका भी है। ये अपनी आर्थिक स्थिति, वर्ग चरित्र और व्यवहार में ‘अभिजन’ हैं। ये ‘अभिजन’ हमेशा से कांग्रेस की राजनीति के केन्द्र में रहे हैं। कांग्रेस इनकी सबसे बड़ी पोषक ओर संरक्षक रही है। इसीलिए उत्तर प्रदेश में कंग्रेस और बसपा के बीच जो घमासान मचा है, वह मात्र अखाड़े में दो पहलवानों के बीच का दंगल है। इनका दलितों के वास्तविक मुद्दों से कोई सरोकार नहीं है।