सोमवार, 18 अप्रैल 2011

यह दलित विरोधी पत्रकारिता है


कौशल किशोर

हमारी पत्रकारिता का हिन्दूवादी.ब्राहमणवादी चेहरा अक्सरहाँ हमें दिख जाता है। सामान्य स्थितियों में तो यह आधुनिक, प्रगतिशील, निष्पक्ष, लोकतांत्रिक होने का स्वाँग करता हुआ हमें दिखता है। लेकिन जब भी इसके अन्तर्मन पर चोट पड़ती है या जब भी इसके अन्दर बैठे किसी ब्रहमण या सवर्ण पर प्रहार होता है तब यह तिलमिला उठता है। ऐसे में इसकी सारी बड़ी बड़ी बातें धरी की धरी रह जाती हैं। लखनऊ में हुए दलित नाट्य महोत्सव में हमें पत्रकारिता का ऐसा ही चेहरा देखने को मिला।
लखनऊ में डॉ अम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल 2011 से यहाँ दलित नाट्य महोत्सव शुरू हुआ जो 16 अप्रैल तक चला। इस महोत्सव का आयोजन शहर की सामाजिक संस्था अलग दुनिया ने किया था। इसके अन्तर्गत तीन नाटक दिखाये गये। 14 अप्रैल को राजेश कुमार का लिखा ‘अम्बेडकर और गाँधी’ का मंचन दिल्ली की संस्था अस्मिता थियेटर ग्रूप ने किया। इसका निर्देशन जाने.माने निर्देशक अरविन्द गौड़ का था। दूसरे दिन मराठी लेखक प्रेमचंद गज्वी का लिखा नाटक ‘महाब्राहमण’ का मंचन मयंक नाट्य संस्था, बरेली ने किया। इसका निर्देशन राकेश श्रीवास्तव ने किया था। समारोह के अन्तिम दिन 16 अप्रैल को राजेश कुमार द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक ‘सत भाषे रैदास’ का मंचन शाहजहाँपुर की संस्था अभिव्यक्ति ने किया। नाट्य प्रर्दशन के दौरान चचा.परिचर्चा भी होती रही जो दलित रंगमंच की जरूरत क्यों है, इस रग आंदोलन की दिशा क्या हो, जन नाट्य आंदोलन से इसका रिश्ता क्या है आदि विषय पर केन्द्रित थी। वरिष्ठ नाट्य निर्देशक सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, आलोचक वीरेन्द्र यादव, दलित चिन्तक अरुण खोटे, राजेश कुमार, कुष्णकांत वत्स आदि ने इस चर्चा में भाग लिया।
इन नाटकों ने धर्म, अस्पृश्यता, वर्णवादी व्यवस्था, गैरबराबरी, समाजिक शोषण, ब्राहमणवाद जैसे मुद्दों को उठाया और इस बात को रेखांकित किया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान व कानून का शासन होने के बावजूद आज भी समाजिक तौर पर ऐसे मूल्य मौजूद हैं जो शोषण व उत्पीड़न पर आधारित हैं तथा मनुष्य विरोधी हैं। आज की सŸाा द्वारा ये संरक्षित भी हैं। इस व्यवस्था को बदले बिना दलितो.शोषितों की मुक्ति संभव नहीं है। चेतना और प्रतिरोध पर केन्द्रित इस नाट्य समारोह का यही मूल सन्देश था। इस आयोजन की एक खासियत यह भी देखने में आई कि नाटकों को देखने बड़ी संख्या में लोग आये। ये दर्शक नाटक देखा और चल दिये से अलग और लखनऊ रंगमंच के पारम्परिक दर्शकों से भिन्न थे। तीन दिनों तक हॉल भरा रहा बल्कि काफी दर्शकों को जगह न मिलने पर वे सीढ़ियों पर बैठकर या खड़े होकर नाटक देखा। नाटक और उसकी थीम से उनका जुड़ाव ही कहा जायेगा कि नाटक खत्म होने के बाद भी विचार विमर्श, बहस.मुबाहिसा, बातचीत का क्रम चलता रहा । यह एक नई बात थी जो इस समारोह में देखने को मिली।
यह नाट्य समारोह लखनऊ में पहली बार आयोजित हो रहा था। हिन्दी प्रदेश में इस तरह का यह पहला दलित नाट्य समारोह का आयोजन था। इस आयोजन के प्रचार के लिए आयोजकों द्वारा प्रेस कान्फ्रेन्स बुलाया गया। उस प्रेस वार्ता में डेढ़ दर्जन से अधिक अखबारों के प्रतिनिधि आये। उन्होंने आयोजकों से दलित नाटकों को लेकर कई सवाल भी किये और उन्होंने प्रेस प्रतिनिधियों को संतुष्ट भी किया। आयोजकों की ओर से प्रेस विज्ञप्ति भी बाँटी गई जिसमें इस आयोजन के पीछे क्या उद्देश्य है से लेकर इस दलित नाट्य महोत्सव में कौन कौन से नाटकों का प्रदर्शन होगा का विस्तार से उल्लेख था। लेकिन दूसरे दिन यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि किसी अखबार ने दलित नाट्य महोत्सव का कोई समाचार नहीं छापा था। आखिर अखबार के इस रवैये के बारे में क्या कहा जाय ? अखबार के इस रुख को देखकर कुछ ही दिन पहले लखनऊ में ‘मीडिया और दलित’ विषय पर आयोजित सेमिनार की याद हो आई। उक्त सेमिनार की खबरें भी अखबार से गायब थीं। यह अनायास नहीं हुआ है बल्कि उस दलित विरोधी मानसिकता की वजह से हुआ है या हो रहा है जो हिन्दी प्रदेशों के समाचार पत्रों में जड़ जमाये बैठा है।
ल्ेकिन तीन दिनों तक चले इस नाट्य समारोह में दर्शकों की भागीदारी और प्रस्तुति की श्रेष्ठता का दबाव ही था कि लखनऊ के अधिकांश अखबारों द्वारा इस समारोह की उपेक्षा नहीं की जा सकी, भले ही इसकी रिपोर्ट छापने के साथ अपनी ओर से उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ भी प्रकाशित की। इस मामले में अंग्रेजी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के लखनऊ ने तो हद ही कर दी। इस अखबार ने नाटकों की कथावस्तु, निर्देशन, अभिनय, संगीत आदि विविध पक्षों पर एक शब्द नहीं लिखा तथा उसकी कोई रिपोर्ट या समीक्षा प्रकाशित नहीं की। बेशक अखबार के रिपोर्टर ने इस नाट्य समारोह को ‘स्टेजिंग ए नेम गेम’ शीर्षक से एक बड़ी सी खबर जरूर प्रकाशित की। इसे खबर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मात्र दलित विरोधियों व सामाजिक सरोकार से दूर कलाकारों के विचार थे। ये विचार जरूर गौरतलब हैं। इनका कहना था कि दलित के नाम पर नाटक समारोह का आयोजन जनता के साथ मजाक है, यह राखी सावंत जैसे सस्ते प्रचार का तरीका है। इसके माध्यम से रंगमंच के क्षेत्र में जातिवाद को बढ़ाना है तथा रंगमंच को विभाजित कर दलित के नाम पर बनी मौजूदा सरकार से लाभ लेना है। आयोजकों के इस तरह के आयोजन के पीछे मात्र निहित स्वार्थ है।
इस दलित नाट्य समारोह पर ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में जिनकी टिप्पणियाँ प्रकाशित की गई, ये वे कलाकार व निर्देशक हैं जो लगातार नाटक में विचार व राजनीति का विरोध करते हैं और नाटक में कलावाद के पक्षपोषक हैं। इनकी इस कलावादी अवधारण के विरुद्ध लखनऊ रंगमंच में विवाद व बहस भी जारी है। इन दक्षिणपंथी कलाकारों का दलित विरोधी होना और दलित नाट्य समारोह का विरोध करना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन जब इप्टा जैसी प्रगतिशील नाट्य संस्था से जुड़े कलाकार व निर्देशक इनके साथ एकताबद्ध हो जाते हैं, तब हमें समझना जरूरी है कि ब्राहमणवादी मानसिकता कितने गहरे हमारे अन्दर जड़ जमाये बैठी हुई है जो हर कठिन समय में प्रगतिशीलों में उभर कर सामने आ जाती है। इस मायने में कहा जाय तो यह दलित नाट्य समारोह की सफलता ही है कि उसने बहुतों की नकली प्रगतिशीलता का पर्दाफाश किया है।
यहाँ इस तथ्य का उल्लेख जरूरी है कि इस नाट्य समारोह में जिस ‘सत भाषै रैदास’ नाटक का मंचन हुआ, उसे प्रदेश सरकार के संस्कृति निदेशालय ने मंचन को पिछले साल प्रदेश सरकार ने रोक दिया था क्योंकि इस नाटक में रैदास का जो सामंतवाद व ब्राहमणवाद विरोधी रूप उजागर किया गया था, उससे प्रदेश की मौजूदा सरकार की समरसता की अवधारणा पर चोट पड़ती थी। इस समारोह में उस नाटक का प्रदर्शन मौजूदा सŸाा के उस संस्कृतिविरोधी रवैये का प्रतिवाद था।
किसी नाटक या किसी नाट्य समारोह को लेकर सवाल उठाना, इसके मुद्दो पर बहस व वाद.विवाद संचालित करना कहीं से गलत नहीं है। यह होना भी चाहिए। लेकिन नाटक को लेकर एक शब्द नहीं, मात्र कुछ लोगों के एकाँगी विचारों को प्रकाशित करना, दूसरे पक्ष के विचारों को सामने न आने देना तथा आयोजनकर्ता संस्था के बारे में गलत तथ्य पेश करना - यह कौन सी पत्रकारिता है ? यह सारा अभियान क्या अस्वस्थ व दलित विरोधी मानसिकता की उपज नहीं है ?
एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ -226017मो - 09807519

रविवार, 10 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे की आगे की राह आसान नहीं





कौशल किशोर


अन्ना हजारे द्वारा शुरू किये गये आंदोलन के आगे सरकार इतनी जल्दी घुटने टेक देगी, अन्ना अपना अनशन खत्म कर देंगे और जनता जीत जायेगीे, यह सब बड़ा अविश्वसनीय सा लग रहा है। अभी तो आंदोलन अपने आरम्भिक चरण में था। लोग जाग रहे थे, जुड़ रहे थे। लोगों का अन्तर्मन करवट ले रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था कि 1974 अपने को दोहराने जा रहा है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो ‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए’, अभी तो भगीरथ प्रयास शुरू हुए थे। हमें बाबा नागार्जुन की याद आ रही थी। उनकी कविताएँ जबान पर थी - ‘हे देवि, तुम तो काले धन की वैशाखी पर टिकी हुई हो’ या ‘लूट पाट के काले धन की करती रखवाली, पता नहीं दिल्ली की देवी गोरी है या काली’। उस वक्त इंदिरा निरंकुशता जनता के निशाने पर थी और आज मनमोहन सिंह की सरकार व मौजूदा राजनीतिक तंत्र। कल जनता की अगुवाई करते जेपी थे और आज अन्ना हजारे।

ये अन्ना हजारे कौन ?’ जब आंदोलन शुरू हो रहा था, उस वक्त कई मित्रों ने यही सवाल किया था। लोग अन्ना हजारे को ज्यादा नहीं जानते थे। लेकिन आंदोलन का अभी तीन दिन भी नहीं बीता होगा, वे सभी इस अभियान में ंशामिल थे। वे इतने जोश से भरे थे कि अपने सिर पर जो टोपी उन्होंने पहन रखी थी, उस पर लिखा था ‘मैं हूँ अन्ना हजारे’। यहीं नहीं कई मित्रों ने तो अपना सिर तक मुंडन करा उस पर पेंट से यही लिखवा दिया था। ऐसा ही आंदोलनात्मक ताप चारो तरफ महसूस किया जा रहा था। महिलाएँ घरों से बाहर आ रही थीं। छात्र.नौजवान स्कूल कॉलेजों से, वकील, शिक्षक, बौद्धिक, दफ्तर के कर्मचारी, आम आदमी, जिधर से देखो उधर से लोग आ रहे थे और आंदोलन से जुड़ते जा रहे थे। क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत और आई पी एल खबरों से बाहर हो गया था। यदि कही चर्चा थी तो सिर्फ अन्ना की। अन्ना हजारे सरकारी लूट और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रतीक बन गये थे। जो हो रहा था, वह बहुत स्वतः स्फूर्त था और आंदोलन व्यापक व सघन होने की ओर बढ़ रहा था। लेकिन अभी सौ घंटे भी पूरे नहीं हुए थे कि आंदोलन में ब्रेक लग गया। जंतर.मंतर से अन्ना हजारे ने घोषणा की कि सरकार ने उनकी सारी माँगे मान ली है और यह जनता की जीत है। ऐसे में जनता का अपनी जीत के जश्न में डूब जाना स्वाभाविक है। पूरे देश में पटाखे फूटे, नाच.गाना हुआ और इस तरह जीत का जश्न मनाया गया।

यह आंदोलन इतनी जल्दी अपनी मंजिल पर कैसे पहुँच गया ? जहाँ छोटे से छोटे आंदोलन के प्रति सरकार का रुख उपेक्षापूर्ण यहाँ तक कि बर्बर भी रहा है। इरोम शर्मिला का पिछले ग्यारह साल से जारी भूख हड़ताल इसका ताजातरीन उदाहरण है। फिर इस आंदोलन के प्रति इतना दरियादिली कहाँ से ? इस पहेली की गाँठ को खोला जाय तो एक बात समझ में आती है कि इस आंदोलन को लेकर शुरू से ही सरकार अत्यधिक सजग थी। इसके पीछे एक वजह यह हो सकती है कि वह जानती थी कि भ्रष्टाचार को लेकर उसकी काफी बदनामी और छवि धूमिल हो चुकी है। इस छवि को और अधिक खराब न होने दिया जाय। भाजपा जो अवसर की ताक में है, उसे इस आंदोलन से कोई स्पेस न मिले। दूसरी बात कि वह अन्ना हजारे के आंदोलनात्क व्यक्तित्व से अच्छी तरह परिचित थी। वह सरकार के लिए क्या संकट पैदा कर सकते हैं, इसका मूल्यांकन भी था। इसीलिए आंदोलन के पहले दिन से ही सरकार ने बातचीत के दरवाजे खोल दिये थे और जैसे.जैसे आंदोलन बढ़ता रहा, बातचीत भी आगे बढ़ती रही। दोनों तरफ से सुलह.समझौतें की कोशिशें भी चलती रही।

गौरतलब है कि अन्ना हजारे का यह आंदोलन भी मुख्य तौर से एक ही मुद्दे, जन लोकपाल विधेयक पर केन्द्रित था। उनके मुद्दे में हाल के दिनों में हुए घोटालों को लेकर कोई कारगर कार्रवाई करने जैसा मुद्दा शामिल भी नहीं था जिसे मानना सरकार के लिए ज्यादा कठिन होता। यही कारण था कि वार्ता में कोई ज्यादा गतिरोध उत्पन्न नहीं हुआ और दोनों पक्ष बहुत जल्दी समझौते पर पहुँच गये। कहा जा सकता है कि सरकार इस आंदोलन को मैनेज करने में सफल रही है। अन्ना हजारे और स्वामी अग्निवेश भी यह कहते हुए देखे गये कि हमने जो चाहा था, उससे कही ज्यादा सरकार ने दिया है और यह जनता की जीत हैं। वहीं सरकार भी अपना पीठ ठोक रही है और इसे लोकतंत्र की जीत बता रही है। सरकार का भी इस समझौते से प्रमुदित होना लाजमी है क्योंकि उसने भारतीय लोकतंत्र के लचीलेपन का परिचय दिया है। उसने साबित किया है कि भारतीय लोकतंत्र में अब भी अपने विरोध को समायोजित करने की क्षमता मौजूद है।

जहाँ तक लूट और भ्रष्टाचार का सवाल है, यह हमारे देश के लिए कोई नई चीज नहीं है और इसके खिलाफ जन आक्रोश व आंदोलन का होना भी कोई नई बात नहीं है। बेशक आज नई बात यह है कि यह मामला महज सरकारी दफ्तरों में किसी अधिकारी या मंत्री के घूस लेने भर तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि इसने संस्थाबद्ध भ्रष्टाचार का रूप ले लिया है, जो इस व्यवस्था और राजनीतिक तंत्र की देन है और जिसमें तमाम रंग.बिरंगी सरकारें, सेना और प्रशासनिक अधिकारी, मंत्री, मीडिया के लोग शामिल हैं। इससे पूरा राष्ट्रीय जीवन प्रदूषित हो गया है और आम आदमी त्रस्त है। रही बात भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तो शायद ही कोई दिन हो जब लूट और भ्रष्टाचार के खिलाफ धरना, प्रदर्शन न हो रहा हो। छोटे.छोटे शहरों से लेकर दिल्ली तक में बड़ी बड़ी रैलियाँ हो रही हैं। यहाँ तक कि गाँव.गाँव से, जंगल व आदिवासियों की ओर से विरोध के प्रबल स्वर उठे हैं। चाहे टाटा का कलिंगनगर हो, पोस्को, नियमगिरि इन तमाम जगहों में किसानों का तीखा प्रतिरोध जारी है।

पर अन्ना हजारे के आंदोलन की खासियत यह रही कि यह आंदोलन हमारे नागरिक समाज के उस हिस्से को आंदोलित करने में सफल रहा है जो राजनीति से दूरी बनाकर चलता हैं। मौजूदा राजनीति में बढ़ती सड़ांध ने नागरिक समाज में राजनीति के प्रति उदासीनता पैदा की है और आज हालत यह है कि उसका सभी राजनीतिक दलों से करीब करीब मोहभंग हो चुका है। ऐसे में अन्ना हजारे जैसा स्वच्छ व ईमानदार छवि वाला सुधारवादी, गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता जब उन मुद्दांे को लेकर सामने आता है और आमरण अनशन की घोषण करता है जिनसे नागरिक समाज त्रस्त है तो इसकी अपील समाज में दूर तक जाती है और उसे गहरे रूप में संवेदित करती है। अन्ना हजारे उसे किसी गाँधी या जेपी का नया अवतार जैसे लगते हैं। इस आंदोलन में यही हुआ और नागरिक समाज ने बढ.़चढ कर इसमें भागीदारी की। बल्कि इसकी कमान भी ऐसे लोगों के हाथों में रही जिनकी छवि आमतौर पर अराजनीतिक रही है जैसे अन्ना हजारे के साथ बाबा रामदेव, किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश, अरविन्द केजरिवाला आदि।

यही कारण रहा कि इस आंदोलन को जगह.जगह एनजीओ द्वारा संयोजित व संचालित किया गया। बल्कि ये ही इसके मुख्य कर्ता.धर्ता थे। इस पूरे आंदोलन में अराजनीति की राजनीति हावी रही और राजनीतिक दल के समर्थकों को दूर रखा गया, उन्हें पास फटकने तक नहीं दिया गया यहाँ तक कि उन रेडिकल संगठनों को भी जो बड़ी ईमानदारी से लूट व भ्रष्टाचार तथा सरकार की उदारीकरण.निजीकरण.भूमंडलीकरण की नीतियों के खिलाफ जुझारू संघर्ष चला रहे हैं, उनसे भी परहेज किया गया। इस तरह राजनीतिक तंत्र के विरुद्ध आंदोलन को राजनति विरोधी आंदोलन बनाया गया। तब सवाल है कि लूट व भ्रष्टाचार क्या महज आर्थिक व सामाजिक मामला है ? यदि यह मौजूदा राजनीतिक तंत्र व व्यवस्था की उपज है तो इसके विरुद्ध संघर्ष की राजनीति क्या होगी ? यह अराजनीति भी क्या राजनीति नहीं है ?

हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई कानून नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो, इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था की जरूरत का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय। तभी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है। अन्ना हजारे के इस आंदोलन से सरकार का ऐसे लोकपाल विधेयक बनाने के लिए तैयार होना निःसन्देह इस दिशा में जीत की पहली सीढ़ी है।

लेकिन इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि पिछले 42 सालों से ऐसा ही लोकपाल विधेयक सरकार के ठण्ढे बस्ते में पड़ा रहा है और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। सभी जानते है कि मौजूदा शासन काल में एक से बढ़कर एक घोटाले सामने आये हैं और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने की जगह सरकार की दिलचस्पी उन्हें बचाने या मामले की लीपापोती में ही ज्यादा रही है। तब यह स्वाभाविक सवाल है कि क्या इस सरकार के पास भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छा शक्ति मौजूद है ? फिर जो ड्राफ्ट कमेटी बनी है, उसकी अपनी जटिलता है। इसमें आधे सरकार के नुमाइन्दे हैं। कमेटी का अध्यक्ष भी सरकार का है। सरकार के पास अपना एक पुराना ड्राफ्ट है और अन्ना हजारे ने जन लोकपाल का एक अलग मसौदा प्रस्तावित कर रखा है। इन दोनों में मतभेद के बिन्दु ज्यादा हैं और सहमति के बिन्दु नही ंके बराबर हैं। ऐसे में सहमति पर पहुँचना बड़ी कवायद होगी। भले ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने अपने पहले चरण की लड़ाई जीत ली हो लेकिन अन्ना हजारे की आगे की राह आसान नहीं है। इसलिए जीत पर जश्न मनाने से ज्यादा आगे की चुनौतियों के लिए अपने को तैयार करना जरूरी है।

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शनिवार, 2 अप्रैल 2011

क्रिकेट: कौन जीता ?


कौशल किशोर

इतिहास अपने को दोहराता है। ऐसा ही हुआ है। 1983 के बाद 2011। हम फिर क्रिकेट विश्व चैम्पियन बने। यह एक बड़ी उपलब्धि है। जो हमारे गुरू थे, जिन्होंने हमें गुलाम बनाया और यह खेल सिखाया, उन्हें बहुत पीछे छोड़ दूसरी बार हमने यह जीत हासिल की है। यह ऐसी जीत है जो मन को रोमांचित कर दे। हमारे खिलाड़ी निःसन्देह बधाई के पात्र हैं। हम जोश से भरे हैं। लेकिन ऐसा जोश भी ठीक नहीं जिसमें हम होश खो दें।

हम खेल का भरपूर आनन्द उठायें, जीत पर खुशियाँ मनायें, खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करें, एक दूसरे को बधाइयाँ दें पर यह भी जरूरी है कि खेल से जुड़े मुद्दों पर चर्चा भी हो। खेल में प्रतिभा को स्थान मिले पैसे को नहीं। हम इस पर भी विचार करें कि कारपोरेट पूँजी और बाजार कैसे हमारे खेल में घुस रहा है, खेल व खिलाड़ी को कैसे अपनी कमाई और व्यवसाय का माध्यम बना रहा है। फिर अन्य खेलों की दुर्दशा क्यों ? हाकी जिसमें हम विश्व चैम्पियन थे, उसमें हम इतना पीछे क्यों ? क्रिकेट कही अन्य भारतीय खेलों को आऊट तो नहीं कर रहा है ? बाजार उन्हीं खेलों को प्रोत्साहित क्यों कर रहा है जहाँ पैसे व व्यवसाय की संभावना अधिक है ? खेल का क्षेत्र हमारी संस्कृति का क्षेत्र है। पर हमने क्या देखा ? राजनीति व भ्रष्टाचार। मंत्री व मंत्रालय से लेकर तमाम खेल समितियाँ भ्रष्टाचार में डूबी इुईं। आई पी एल और कामनवेल्थ गेम में क्या हुआ, सबके सामने है। इससे दुनिया में हमारी क्या छवि बनी ?

एक और बात, यह खेल है युद्ध नहीं। जहाँ क्रिकेट हुआ वह मैदान है, रणक्षेत्र नहीं। पर खेल की भावना युद्ध की भावना में बदल दिया जाय और हमारे राष्ट्रवाद पर अन्धराष्ट्रवाद की मानसिकता हावी हो जाये तो फिर इस भावना व मानसिकता पर जरूर विचार किया जाना चाहिए। मीडिया के रोल पर भी बात होनी चाहिए। ‘फतह पाकिस्तान’, ‘लंका दहन’, ‘रावण दहन’ आखिरकार यह कैसी पत्रकारिता है ? प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया सब जगह जैसे खेल नहीं उन्माद बोल रहा है और पूरे देश को उन्मादी बनाने पर तुला हो। कहते हैं खेल प्रेम व भाईचारा बढ़ाता है, दूरियाँ खत्म कर एक दूसरे को करीब लाता है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री आये। श्रीलंका के राष्ट्रपति आये। पड़ोसी मुल्कों से तमाम लोग आये। खेल हुआ। हम जीते। पर जो उन्माद पैदा किया गया उससे कौन विजयी हुआ ? खेल जीता या पूँजी व बाजार ? किसको खाद पानी मिला खेल की निर्मल भावना को या संघी मानसिकता को ? ये सवाल या इस तरह की बातें जश्न के माहौल में जरूर अटपटी सी लग रही होंगी। पर यही मौका है जिस पर चर्चा की जा सकती है, गलत प्रवृतियों पर चोट की जा सकती है।

3 अप्रैल 2011