मंगलवार, 22 मार्च 2011

भगत सिंह और पाश राजनीति व संस्कृति में नया रंग भरती शहादत




कौशल किशोर

23 मार्च शहीद भगत सिंहए सुखदेव और राजगुरु का शहादत दिवस है। इन तीन नौजवान क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। इस घटना के 57 साल बाद 23 मार्च 1988 को पंजाब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि अवतार सिहं ष्पाशष् को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया। 70 वाले दशक में पंजाब में जो क्रांतिेकारी आंदोलन शुरू हुआ . उसके पक्ष में कविताएं लिखने के कारण भी पाश कई बार जेल गये थे. सरकारी जुल्म के शिकार हुए तथा वर्षोें तक भूमिगत रहे।

यह महज संयोग है कि पंजाब की धरती से पैदा हुए तथा क्रांतिकारी भगत सिंह के शहीदी दिवस के दिन
ही अर्थात 23 मार्च को पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिहं पाश भी शहीद होते हैं। लेकिन इन दोनों क्रांतिकारियों के उददेश्य व विचारों की एकता कोई संयोग नहीं है। यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की क्रांतिकारी परंपरा का न सिर्फ सबसे बेहतरीन विकास है बल्कि राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण भी है।


भगत सिंह और उनके साथियों ने आजादी का जो सपना देखा था, जिस संघर्ष और क्रांति का आहवान किया था, वह अधूरा ही रहा। भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्षों और विश्व पूंजीवाद के आंतरिक संकट के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक आजादी 1947 में मिली, उसका लाभ केवल इस देश के पूंजीपतियोंए सामंतों और उनसे जुडे मुट्ठी भर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने ही उठाया है। सातवां दशक आते-आते आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत के नये शासक वर्ग के खिलाफ जन असंतोष तेज होता है जिसकी सबसे ठोस और मुखर अभिव्यक्ति चौथे राष्ट्रीय आम चुनाव और नक्सलबाडी विद्रोह में होती है। विशेष तौर से नक्सलबाडी विद्रोह ने भारतीय साहित्य को काफी गहराई तक प्रभावित किया तथा व्यक्तिवाद, निषेधवाद, परंपरावाद, अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद जैसी जन विरोधी प्रवृत्तियों को प्रबल चुनौती दी। विकल्प की तलाश कर रही बंाग्ला, तेलुगू, हिन्दी, पंजाबी आदि भाषाओं की नयी पीढी को तो जैसे राह ही मिल गयी। पंजाबी में नये कवियों की एक पूरी पीढी सामने आयी जिसने पंजाबी कविता को नया रंग-रूप प्रदान किया। अवतार सिंह पाश ऐसे कवियों की अगली पांत में थे।

पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। अर्थात पाश ने पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसे दौर में प्रवेश किया जो दूसरी आजादी के क्रांतिकारी राजनीतिक संघर्ष का ही नहीं अपितु नये जनवादी-क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन का भी प्रस्थान बिन्दु था। अमरजीत चंदन के संपादन में निकली भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन तो पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था। पाश की इन कविताआंे की पंजाब के साहित्य-हलके में काफी चर्चा रही। उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संधर्ष अपने उभार पर था। पाश का गांव तथा उनका इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था। इस संघर्ष की गतिविधियों ने पंजाब के साहित्यिक माहौल में नयी ऊर्जा व नया जोश भर दिया था। पाश ने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रचीं और गिरफ्तार हुए और करीब दो वर्षों तक जेल में रहे। सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए जेल में ढेरों कविताएं लिखीं और जेल में रहते उनका पहला कविता संग्रह "लोककथा" प्रकाशित हुआ। इस संग्रह ने पाश को पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी।

1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने "सिआड" साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की। नक्सलबाडी आंदोलन पंजाब में बिखरने लगा था। साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था। ऐसे वक्त में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए पस्ती व निराशा से उबरने की कोशिश की तथा सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएँ की। पंजाब के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को एकजुट व संगठित करने का प्रयास चलाते हुए पाश ने "पंजाबी साहित्य-सभ्याचार मंच" का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर "हेमज्योति" पत्रिका शुरू की। इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी। चर्चित कविता "युद्ध और शांति" पाश ने इसी दौर में लिखी। 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह "उडडदे बाजा मगर" छपा जिसमें उनकी 38 कविताएं संकलित हैं। पाश का तीसरा संग्रह "ष्साडे समियां विच" 1978 में प्रकाशित हुआ। इसमें अपेक्षाकृत कुूछ लम्बी कविताएं भी संग्रहित हैं। उनकी मृत्यु के बाद "लडंेगे साथी" शीर्षक से उनका चौथा संग्रह सामने आया जिसमें उनकी प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएॅँ संकलित हैं।

पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव का अर्थात क्रांति और विद्रोह का है। इनकी कविताएं धारदार हैं। जहाँ एक तरफ सांमती-उत्पीडकों के प्रति जबरदस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति, क्रांतिकारी वर्ग के प्रति अथाह प्यार है। नाजिम हिकमत और ब्रतोल्त ब्रेख्त की तरह इनकी कविताओं में राजनीति व विचार की स्पष्टता व तीखापन है। कविता राजनीतिक नारा नहीं होती लेकिन राजनीति नारे कला व कविता में घुल-मिलकर उसे नया अर्थ प्रदान करते हैं तथा कविता के प्रभाव और पहुंच को आश्चर्यजनक रूप में बढाते हैं.. यह बात पाश की कविताओं में देखी जा सकती हैं। पाश ने कविता को नारा बनाये बिना अपने दौर के तमाम नारों को कविता में बदल दिया।

पाश की कविताओं की नजर में एक तरफ "शांति गॉंधी का जांघिया है जिसका नाड़ा चालीस करोड़ इन्सानों की फाँसी लगाने के काम आ सकता है /और ष्शब्द जो राजाओं की घाटियों में नाचते हैं /ध्जो प्रेमिका की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं जो मेजों पर टेनिस बाल की तरह दौडते हैं और जो मैचों की ऊसर जमीन पर उगते हैं/ ध्कविता नहीं होतें" ...तो दूसरी तरफ " युद्ध हमारे बच्चों के लिए / कपड़े की गेंद बनकर आएगा/ युद्ध हमारी बहनों के लिए कढाई के सुन्दर नमूने लायेगा / युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा / युद्ध बूढी माँ के लिए नजर का चश्मा बनेगा / युद्ध हमारे पुरखों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा" और तुम्हारे इंकलाब मेें शामिल है संगीत और साहस के शब्द / खेतो से खदानं तक युवा कंधों और बलिष्ठ भुजाओं से रचे हुए शब्द/ बर्बर सन्नाटों को चीरते हजार कंठों से निकलकर आज भी एक साथ गूंज रहें शब्द’ हजारों कंठो से निकली हुई आवाज ही पाश की कविता में शब्दबद्ध होती है। पाश की कविताओं में इन्हीं कंठों की उष्मा है। इसीलिए पाश की कविताओं पर लगातार हमले हुए हैं। पाश को अपनी कविताओं के लिए दमित होना पडा है। बर्बर यातनाएं सहनी पडी हैं। यहाँ तक कि अपनी जान भी गवांनी पड़ी हैं। लेकिन चाहे सरकारी जेंलें हों या आतंकवादियों की बन्दूकें.......... पाश ने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया बल्कि हजारों दलित-पीड़ित शोषित कंठों से निकली आवाज को अपनी कविता में पिरोते रहे, रचते रहे, उनका गीत गाते रहे और अपने प्रिय शहीद भगत सिंह की राह पर चलते हुए शहीद हो गये।

23 मार्च के दिन ही अपना खून बहाकर पाश ने राजनीति और संस्कृति के बीच खडी की जाने वाली दीवार को ढहाते हुए यह साबित कर दिया कि बेहतर जीवन मूल्यों व शोषण उत्पीड़न से मुक्त मानव समाज की रचना के संघर्ष में कवि व कलाकार भी उसी तरह का योद्धा है जिस तरह एक राजनीतिककर्मी या राजनीतिक कार्यकर्तां। राजनीति और संस्कृति को एकरूप करते हुए पाश ने यह प्रमाणित कर दिया कि अपनी विशिष्टता के बावजूद मानव समाज के संघर्ष में राजनीति और संस्कृति को अलगाया नहीं जा सकता बल्कि इनकी सक्रिय व जन पक्षधर भूमिका संघर्ष को न सिर्फ नया आवेग प्रदान करती है बल्कि उसे बहुआयामी भी बनाती है।

भगत सिंह मूलत एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। राजनीति उनका मुख्य क्षेत्र था। लेकिन उन्होंने तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक, साहित्यिक सवालों पर भी अपनी सटीक टिप्पणी पेश की थी। अपने दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों, देशी विदेशी प्रतिक्रियावादी शाक्तियों व विचारों, धार्मिक कठमुल्लावादी, सांप्रदायिकता, अस्पृश्यता, जातिवाद जैसे मानव विरोधी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करते हुए भगत सिंह ने जनवादी-समाजवादी विचारों को प्रतिष्ठित किया। पाश की कविता, विचारधाराए पत्रकारिता व सांस्कृतिक सक्रियता से साफ पता चलता है कि उनकी राजनीतिक समझ बहुत स्पष्ट थी।

यही भगत सिंह और पाश की समानता है। भले ही इनकी शहादत के बीच 57 वर्षों का अंतर है। ये दोनों क्रांतिकारी योद्धा राजनीति और संस्कृति की दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित करते हैं साथ ही ये राजनीति और संस्कृति की एकता, पंजाब की धर्मनिरपेक्ष, जनवादी व क्रांतिकारी परंपरा के उत्कृष्ट वाहक हैं तथा अपनी शहादत से ये राजनीति और संस्कृति की एकता में नया रंग भरते हैं।

एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ-226017
मो- 09807519227, 08400208031

२३ मार्च पंजाबी कवि पाश का शहीदी दिवस है . उनकी एक कविता यहाँ पेश है .

कविता

सबसे ख़तरनाक

पाश

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।



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शनिवार, 5 मार्च 2011

साथी अनिल सिन्हा को क्रान्तिकारी सलाम




कौशल किशोर

हमने ऐसा सोचा भी नहीं था कि हमारे अत्यन्त प्रिय साथी अनिल सिन्हा इतना जल्दी हमारा साथ छोड़ देंगे। इस साल की पहली तारीख को हमने उन्हें दिल्ली के लिए विदा किया था। एक दिन पहले डॉ विनायक सेन की उम्रकैद की सजा के खिलाफ लखनऊ में हुए विरोध प्रदर्शन में वे शामिल हुए थे। उनके शरीर पर पिछले दिनों हुए लकवे का असर मौजूद था। चलने में उन्हें दिक्कत हो रही थी। हमने उन्हें मना भी किया। पर उनके लिए इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होना जरूरी था सो वे अपने स्वास्थ्य की परवाह किये बिना आये। उनका इलाज जरूरी था। इसीलिए न चाहते हुए भी हम साथियों ने उन्हें दिल्ली के लिए विदा किया। लेकिन दिल्ली जाकर भी हमसे वे अलग नहीं थे। शायद ही कोई दिन हो जिस दिन हमारी बात न होती हो।

अनिलजी दिल्ली तो इलाज कराने गये थे। लेकिन वहाँ भी कमरे में अपने को बन्द रखने वाले नहीं थे। जसम द्वारा आयोजित शमशेर जन्मशती आयोजन में उन्होंने शमशेर की चित्रकला पर जो व्याख्यान दिया, उससे उनकी कला के सम्बन्ध में गहरी समझ व सूक्ष्म दृष्टि का पता चलता है। फिर 6 फरवरी को दिल्ली केे जमरूदपुर गुरुद्वारा कम्युनिटी हाल में सैकड़ों श्रमिकों के बीच पहुँच गये जहाँ नव सर्वहारा सांस्कृतिक मंच की ओर से नागार्जुन, शमशेर व केदार कविता यात्रा शुरू होनी थी। इस अवसर पर ‘आमजीवन में कविता के महत्व’ पर उन्होंने सारगर्भित व्याख्यान दिया।

मित्र जानते हैं कि अनिल सिन्हा के शरीर में उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, मधुमेह, थायराइड, लकवा जैसी कई बीमारियों ने अपना घर बना लिया था। लेकिन उन्होंने कभी भी इन बीमारियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। अपने काम में अवरोध नहीं बनने दिया। पन्द्रह साल पहले दाहिना हाथ टूट गया था। आपरेशन हुआ। लखनऊ मेडिकल कॉलेज की लापरवाही की वजह से बोन टी वी हो गया। नौबत हाथ काटने तक पहुँच गई। लिखना छूट गया तब बाँये हाथ से लिखने लगे। आखिरकार दिल्ली में हुए इलाज से फायदा हुआ। पिछले साल नवम्बर में लकवा का झटका लगा। चलना व बोलना मुश्किल था। पर जीवटता देखिए। चल नहीं सकते थे, पर चलना नहीं छोड़ा। पैर में फिर चोट लगी। हमलोगों ने मना किया। पर वे मानने वाले कहाँ ? हर बैठक व कार्यक्रम में पहुँचते, सीढ़ियाँ चढ़ते हुए साँस फूलता। बोलते हुए हाफने लगते। आवाज लड़खड़ाने लगती। पर सीढ़ियाँ भी चढ़ते और देर देर तक बतियाते भी। किसी साथी के बीमार होने की खबर मिलते ही तुरन्त पहुँच जाते। अनिलजी के मन में इस बात को लेकर अफसोस जरूर था कि स्वास्थ्य की वजह से वैसी गतिशीलता नहीं बन पा रही है जैसी होनी चाहिए। खासतौर से ‘गोरख स्मृति संकल्प’ समारोह में गोरख पाण्डेय के गाँव ‘पण्डित का मँुडेरवा’ न जा पाने का उन्हें दुख था। फिर भी अप्रैल में सुभाष चन्द्र कुशवाहा के गाँव जोगिया जनूबा पट्टी में आयोजित ‘लोकरंग’ में जाने की उनकी पूरी योजना थी। इस कार्यक्रम में हर साल बिना नागा वे पहुँचते रहे हैं।

अनिलजी के दिमाग में कई योजनाएँ एक साथ चलती रहती थी। शरीर साथ नहीं देता था पर इच्छा शक्ति जबरदस्त थी। 27 फरवरी को लखनऊ में शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह का कार्यक्रम था। इसकी परिकल्पना व योजना अनिलजी ने ही बनाई थी। इस सम्बन्ध में उन्होंने मैनेजर पाण्डेय, राजेन्द्र कुमार व बलराज पाण्डेय से बात कर सब तय किया था। किस विषय पर किसे बोलना है, संचालन से लेकर धन्यवाद ज्ञापन तक की पूरी रूपरेखा तैयार की थी। कौन किस ट्रेन से आयेगा, कहाँ रुकेगा, किस साथी पर किसकी जिम्मेदारी होगी आदि सब उन्होंने तय किया था। पर इस कार्यक्रम के दो दिन पहले ही अनिलजी ने हमारा साथ छोड़ दिया। हमारे लिए इससे बढकर दुख की बात क्या होगी कि जिस सभागार को जन्मशती समारोह के लिए आरक्षित कराया गया था उसमें हमें अनिलजी की स्मृति सभा करनी पड़ी।

अनिल सिन्हा 22 फरवरी को दिल्ली से पटना आ रहे थे। ट्रेन में ही उन्हें मस्तिष्क आघात ;ब्रेन स्ट्रोकद्ध हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझने के बाद 25 फरवरी को सुबह 11.50 बजे उनका निधन हुआ। अनिल सिन्हा की इच्छा मृत्यु उपरान्त देहदान की थी। लेकिन इतना जल्दी वे चल बसेंगे, इसका उन्हें भी आभास नहीं था। इसीलिए देहदान की कानूनी औपचारिकताएँ पूरी नही कर पाये थे। इस हालत में उनका अन्तिम संस्कार पटना के बासघाट विद्युत शवदाह गृह में कर दिया गया और क्रान्तिकारी वाम राजनीति व संस्कृतिकर्म का यह योद्धा ‘अनिल सिन्हा अमर रहे’ की गूँज के साथ हमारे बीच से चला गया। उनको अन्तिम विदाई देने वालों में मेरे साथ आलोक धन्वा, अजय सिंह, भगवान स्वरूप कटियार, भाकपा ;मालेद्ध के कार्यकर्ताओं के साथ उनके परिवार के लोग थे। इस खबर से सब सदमें में थे। आलोक धन्वा ने कहा कि मैं हँसना चाहता हूँ ताकि अपनीे रुलाई और अन्दर के आँसू को रोक सकूँ। कमोबेश यही हालत हमसब की थी।

अनिल सिन्हा के असमय अपने बीच से चले जाने से जो सूनापन पैदा हुआ है, उसे महसूस किया जा सकता है क्योंकि वे ऐसे मजबूत और ऊर्जावान साथी थे जिनसे जन सांस्कृतिक आंदोलन को अभी बहुत कुछ मिलना था। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से नई पीढ़ी को बहुत कुछ सीखना था। अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार, कलाओं के अर्न्तसम्बन्ध पर जनवादी, प्रगतिशील नजरिये से गहन विचार और समझ विकसित करने वाले विरले समीक्षक और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक थे। सिद्धान्तों के साथ कोई समझौता नहीं, ऐसी दृढ़ता थी। वहीं, व्यवहार के धरातल पर ऐसी आत्मीयता, खुलापन व साथीपन था कि वैचारिक रूप से असहमति रखने वाले भी उनसे प्रभावित हुए बिना, उनका मित्र बने बिना नहीं रह सकते। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से प्रगतिशील रचनाकर्म के बाहर के दायरे में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय थे तथा तमाम रचनाकारों को जन संस्कृति मंच से जोड़ने व उन्हें करीब लाने में सफल हुए थे। कई रचनाकारों के लिए तो जन संस्कृति मंच की मानी अनिलजी थे।

अनिल सिन्हा सŸार के दशक और उसके बाद चले सांस्कृतिक आंदोलन के हर पड़ाव के साक्षी ही नहीं, उसके निर्माताओं में थे। उन्होंने रचना, विचार, संगठन और आंदोलन के क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। इस समय वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उŸार प्रदेश के पहले सचिव के रूप में सांस्कृतिक आंदोलन का नेतृत्व किया था। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी जनवादी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। भाकपा ;मालेद्ध से उनका रिश्ता उस वक्त से था जब पार्टी भूमिगत थी। उनका घर पार्टी साथियों का घर हुआ करता था। अखबारी कर्मचारियों व पत्रकारों के आंदोलन में भी वे लगातार सक्रिय थे। कष्ट साध्य जीवन और जन आंदोलनों में तपकर ही उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था।

अनिल सिन्हा का जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्यालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यावर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से भी वे जुड़े रहे।

1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ, वे यहाँ आ गये। वे अमृत प्रभात की उस सम्पादकीय टीम के सदस्य थे जिसमें मंगलेश डबराल, मोहन थपलियाल, अजय सिंह आदि थे। तब से लखनऊ ही उनका स्थाई निवास था। अमृत प्रभात लखनऊ के बन्द होने के बाद वे नवभारत टाइम्स में आ गये। लेकिन जब नवभारत टाइम्स बन्द हुआ तो जीवन ज्यादा ही कठिनाइयों भरा था। जिम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं और स्वतंत्र लेखन से उनका निर्वाह नहीं हो सकता था। इस हालत में उन्होंने दैनिक जागरण, रीवाँ ज्वाइन किया। यहाँ वेे स्थानीय संपादक रहे। इस अखबार के प्रबन्धकों से तालमेल बिठा पाना उनके लिए संभव नहीं हो रहा था और वैचारिक मतभेद की वजह से वह अखबार छोड़ दिया और लखनऊ वापस आ गये। बाद में ‘राष्टीªय सहारा’ के साहित्य पृष्ठ ‘सृजन’ का भी उन्होंने सम्पादन किया था।

अनिल सिन्हा ने कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण, यात्रा वृतांत आदि कई क्षेत्रों में काम किया। फिल्म, संगीत व नाटक आदि में भी उनकी गहरी रुचि थी। लखनऊ में हुए तीनों फिल्म समारोहों की स्मारिका का उन्होंने सम्पादन किया था। ‘मठ’ नाम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। उनके द्वारा मशहूर लेखक आनन्द तेलतुमड़े की अंग्रेजी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया। अनिल सिन्हा का रचना संसार पिछले पांच दशकों में फैला है, वह भी साहित्य की कई विधाओं में और इतना विविधतापूर्ण है कि उनकी प्रकाशित पुस्तकों को देखते हुए यही लगता है कि उनके लेखन का बहुत छोटा हिस्सा ही पुस्तक रूप में प्रकाशित हो सामने आया है। इसलिए हमारे लिए यह जरूरी है कि उनके रचना संसार को सामने लाया जाय, उसे पाठकों तक पहुँचाया जाय ताकि साहित्य व समाज की नई पीढ़ी उस उथल.प.ुथल व संघर्ष भरे दौर से परिचित हो सके जिसकी उपज अनिल सिन्हा जैसे प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी थे।

एक बात गौरतलब है कि अनिल सिन्हा जिस पारिवारिक व सामाजिक परिवेश से आये थे, वह सामंती व धार्मिक जकड़न भरा था। इस जकड़न से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने को आधुनिक व प्रगतिशील ही नहीं बनाया था बल्कि वामपंथ की क्रान्तिकारी धारा की राजनीति व विचार से अपने को लैस किया था। विचारहीनता के इस दौर में जहाँ तमाम वामपंथी लेखकों व साथियों का मार्क्सवाद व वामपंथ पर से विश्वास डगमगा रहा है, उन्हें मौजूदा धक्के में सबकुछ खत्म होता या डूबता.सा नजर आ रहा है तथा हताशा.निराशा के शिकार हैं, वहीं अनिल सिन्हा के लिए एकमात्र उम्मीद मार्क्सवाद और रेडिकल वामपंथ ही था। बेशक वामपंथ में आ रहे झोल व ढ़ीलाढीलापन उन्हंे स्वीकार नहीं था और इन प्रवृतियों की आलोचना करने से वे कभी नहीं चूकते थे।

अनिल सिन्हा बाहर से जरूर शान्त से दिखते थे लेकिन उनके भीतर कितनी आग धधक रही है, इसका दर्शन उनके विचारों से रु.ब.रु होने पर मिलता है। पिछले दिसम्बर के तीन दिनों के अन्दर उन्होंने तीन वैचारिक लेख लिखे। रामकुमार कृषक की पत्रिका ‘अलाव’ के लिए नागार्जुन के गद्य पर लिखा। एन जी ओ के बढ़ते जाल व वामपंथ के एनजीओकरण पर ‘खौफनाक समय में सतर्कता’ में उन्होंने उन खतरों की तरफ इशारा किया कि किस तरह लेफ्ट पार्टियों के बुद्धिजीवी व एक्टिविस्ट भी एन जी ओ के मायाजाल में फँसते जा रहे हैं और सरकारी उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले अपने अभियान में सफल हो रहे हैं। इस सम्बन्ध में अनिल सिन्हा का कहना था ‘सच को साफ.साफ कहें और विभ्रमों की ऐसी व्याख्या पेश करें जो जनता आसानी से समझे और विचार करे कि क्यों हमें एक नई व्यवस्था व सŸाातंत्र चाहिए। अपनी नाव की पतवार अगर खुद संभाली जाय तो नाव काबू में रहती है वर्ना नाव बहक जाती है, अक्सर भँवर में फँस जाती है। इसलिए आज एन जी ओ और वास्तविक वामपंथी पार्टियों के फर्क को सामने लाना जरूरी है पर दिखाई दे रहा है कि एन जी ओ तो अपने काम को अंजाम दे रहा है पर वामपंथी पार्टियाँ अपने उद्देश्य से चूक रही हैं। समय खैफनाक है। सतर्क रहने और जन गोलबंदी में जाने की जरूरत है।’ ;खैफनाक समय में सतर्कता, 10 दिसम्बर 2010द्ध

‘खौफनाक समय में सतर्कता’ लिखने के दूसरे दिन 11 दिसम्बर को उन्होंने लम्बा लेख लिखा ‘प्रतिरोध व संघर्ष की नायिका से सबक लें’। यह लेख उन्होंने इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल के 11 साल पूरा होने पर लिखा था जिसका अन्त उन्होंने इस तरह किया - ‘शर्मिला जैसे योद्धा की मौत नहीं होती जैसे जूलियस फ्यूचिक जैसे योद्धा की मौत नहीं, पर जिन शारीरिक व मानसिक यातनाओं में शर्मिला के दिन गुजर रहे हैं उनमें उसका भौतिक शरीर कभी भी साथ छोड़ सकता है तो चर्चा में आये संगठनों ;लोकतांत्रिक व वामपंथीद्ध की राजनीतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने एक्शन द्वारा शर्मिला को यह अहसास करा दें कि उसके संघर्ष को बढ़ाने वाले लोग मौजूद हैं।........ उनसे ‘‘चिन्तन का विवेक’’ नष्ट नहीं हुआ है।’

प्रतिरोध व संघर्ष के ऐसे ही जज्बे से भरे थे हमारे साथी अनिल सिन्हा। संघर्ष व सपने कभी नहीं मरते। इसीलिए अनिलजी जैसे सांस्कृतिक योद्धा भी कभी नहीं मरते और अपने काम और विचारों के साथ हमेशा हमारे बीच जिन्दा रहते हैं, प्रकाश स्तम्भ की तरह हमें आगे बढ़ने की राह दिखाते हैं। अपनी इस विरासत पर हमें गर्व है। अनिल सिन्हा को क्रान्तिकारी सलाम।

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मो - 09807519227, 08400208031