रविवार, 10 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे की आगे की राह आसान नहीं





कौशल किशोर


अन्ना हजारे द्वारा शुरू किये गये आंदोलन के आगे सरकार इतनी जल्दी घुटने टेक देगी, अन्ना अपना अनशन खत्म कर देंगे और जनता जीत जायेगीे, यह सब बड़ा अविश्वसनीय सा लग रहा है। अभी तो आंदोलन अपने आरम्भिक चरण में था। लोग जाग रहे थे, जुड़ रहे थे। लोगों का अन्तर्मन करवट ले रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था कि 1974 अपने को दोहराने जा रहा है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो ‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए’, अभी तो भगीरथ प्रयास शुरू हुए थे। हमें बाबा नागार्जुन की याद आ रही थी। उनकी कविताएँ जबान पर थी - ‘हे देवि, तुम तो काले धन की वैशाखी पर टिकी हुई हो’ या ‘लूट पाट के काले धन की करती रखवाली, पता नहीं दिल्ली की देवी गोरी है या काली’। उस वक्त इंदिरा निरंकुशता जनता के निशाने पर थी और आज मनमोहन सिंह की सरकार व मौजूदा राजनीतिक तंत्र। कल जनता की अगुवाई करते जेपी थे और आज अन्ना हजारे।

ये अन्ना हजारे कौन ?’ जब आंदोलन शुरू हो रहा था, उस वक्त कई मित्रों ने यही सवाल किया था। लोग अन्ना हजारे को ज्यादा नहीं जानते थे। लेकिन आंदोलन का अभी तीन दिन भी नहीं बीता होगा, वे सभी इस अभियान में ंशामिल थे। वे इतने जोश से भरे थे कि अपने सिर पर जो टोपी उन्होंने पहन रखी थी, उस पर लिखा था ‘मैं हूँ अन्ना हजारे’। यहीं नहीं कई मित्रों ने तो अपना सिर तक मुंडन करा उस पर पेंट से यही लिखवा दिया था। ऐसा ही आंदोलनात्मक ताप चारो तरफ महसूस किया जा रहा था। महिलाएँ घरों से बाहर आ रही थीं। छात्र.नौजवान स्कूल कॉलेजों से, वकील, शिक्षक, बौद्धिक, दफ्तर के कर्मचारी, आम आदमी, जिधर से देखो उधर से लोग आ रहे थे और आंदोलन से जुड़ते जा रहे थे। क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत और आई पी एल खबरों से बाहर हो गया था। यदि कही चर्चा थी तो सिर्फ अन्ना की। अन्ना हजारे सरकारी लूट और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रतीक बन गये थे। जो हो रहा था, वह बहुत स्वतः स्फूर्त था और आंदोलन व्यापक व सघन होने की ओर बढ़ रहा था। लेकिन अभी सौ घंटे भी पूरे नहीं हुए थे कि आंदोलन में ब्रेक लग गया। जंतर.मंतर से अन्ना हजारे ने घोषणा की कि सरकार ने उनकी सारी माँगे मान ली है और यह जनता की जीत है। ऐसे में जनता का अपनी जीत के जश्न में डूब जाना स्वाभाविक है। पूरे देश में पटाखे फूटे, नाच.गाना हुआ और इस तरह जीत का जश्न मनाया गया।

यह आंदोलन इतनी जल्दी अपनी मंजिल पर कैसे पहुँच गया ? जहाँ छोटे से छोटे आंदोलन के प्रति सरकार का रुख उपेक्षापूर्ण यहाँ तक कि बर्बर भी रहा है। इरोम शर्मिला का पिछले ग्यारह साल से जारी भूख हड़ताल इसका ताजातरीन उदाहरण है। फिर इस आंदोलन के प्रति इतना दरियादिली कहाँ से ? इस पहेली की गाँठ को खोला जाय तो एक बात समझ में आती है कि इस आंदोलन को लेकर शुरू से ही सरकार अत्यधिक सजग थी। इसके पीछे एक वजह यह हो सकती है कि वह जानती थी कि भ्रष्टाचार को लेकर उसकी काफी बदनामी और छवि धूमिल हो चुकी है। इस छवि को और अधिक खराब न होने दिया जाय। भाजपा जो अवसर की ताक में है, उसे इस आंदोलन से कोई स्पेस न मिले। दूसरी बात कि वह अन्ना हजारे के आंदोलनात्क व्यक्तित्व से अच्छी तरह परिचित थी। वह सरकार के लिए क्या संकट पैदा कर सकते हैं, इसका मूल्यांकन भी था। इसीलिए आंदोलन के पहले दिन से ही सरकार ने बातचीत के दरवाजे खोल दिये थे और जैसे.जैसे आंदोलन बढ़ता रहा, बातचीत भी आगे बढ़ती रही। दोनों तरफ से सुलह.समझौतें की कोशिशें भी चलती रही।

गौरतलब है कि अन्ना हजारे का यह आंदोलन भी मुख्य तौर से एक ही मुद्दे, जन लोकपाल विधेयक पर केन्द्रित था। उनके मुद्दे में हाल के दिनों में हुए घोटालों को लेकर कोई कारगर कार्रवाई करने जैसा मुद्दा शामिल भी नहीं था जिसे मानना सरकार के लिए ज्यादा कठिन होता। यही कारण था कि वार्ता में कोई ज्यादा गतिरोध उत्पन्न नहीं हुआ और दोनों पक्ष बहुत जल्दी समझौते पर पहुँच गये। कहा जा सकता है कि सरकार इस आंदोलन को मैनेज करने में सफल रही है। अन्ना हजारे और स्वामी अग्निवेश भी यह कहते हुए देखे गये कि हमने जो चाहा था, उससे कही ज्यादा सरकार ने दिया है और यह जनता की जीत हैं। वहीं सरकार भी अपना पीठ ठोक रही है और इसे लोकतंत्र की जीत बता रही है। सरकार का भी इस समझौते से प्रमुदित होना लाजमी है क्योंकि उसने भारतीय लोकतंत्र के लचीलेपन का परिचय दिया है। उसने साबित किया है कि भारतीय लोकतंत्र में अब भी अपने विरोध को समायोजित करने की क्षमता मौजूद है।

जहाँ तक लूट और भ्रष्टाचार का सवाल है, यह हमारे देश के लिए कोई नई चीज नहीं है और इसके खिलाफ जन आक्रोश व आंदोलन का होना भी कोई नई बात नहीं है। बेशक आज नई बात यह है कि यह मामला महज सरकारी दफ्तरों में किसी अधिकारी या मंत्री के घूस लेने भर तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि इसने संस्थाबद्ध भ्रष्टाचार का रूप ले लिया है, जो इस व्यवस्था और राजनीतिक तंत्र की देन है और जिसमें तमाम रंग.बिरंगी सरकारें, सेना और प्रशासनिक अधिकारी, मंत्री, मीडिया के लोग शामिल हैं। इससे पूरा राष्ट्रीय जीवन प्रदूषित हो गया है और आम आदमी त्रस्त है। रही बात भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तो शायद ही कोई दिन हो जब लूट और भ्रष्टाचार के खिलाफ धरना, प्रदर्शन न हो रहा हो। छोटे.छोटे शहरों से लेकर दिल्ली तक में बड़ी बड़ी रैलियाँ हो रही हैं। यहाँ तक कि गाँव.गाँव से, जंगल व आदिवासियों की ओर से विरोध के प्रबल स्वर उठे हैं। चाहे टाटा का कलिंगनगर हो, पोस्को, नियमगिरि इन तमाम जगहों में किसानों का तीखा प्रतिरोध जारी है।

पर अन्ना हजारे के आंदोलन की खासियत यह रही कि यह आंदोलन हमारे नागरिक समाज के उस हिस्से को आंदोलित करने में सफल रहा है जो राजनीति से दूरी बनाकर चलता हैं। मौजूदा राजनीति में बढ़ती सड़ांध ने नागरिक समाज में राजनीति के प्रति उदासीनता पैदा की है और आज हालत यह है कि उसका सभी राजनीतिक दलों से करीब करीब मोहभंग हो चुका है। ऐसे में अन्ना हजारे जैसा स्वच्छ व ईमानदार छवि वाला सुधारवादी, गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता जब उन मुद्दांे को लेकर सामने आता है और आमरण अनशन की घोषण करता है जिनसे नागरिक समाज त्रस्त है तो इसकी अपील समाज में दूर तक जाती है और उसे गहरे रूप में संवेदित करती है। अन्ना हजारे उसे किसी गाँधी या जेपी का नया अवतार जैसे लगते हैं। इस आंदोलन में यही हुआ और नागरिक समाज ने बढ.़चढ कर इसमें भागीदारी की। बल्कि इसकी कमान भी ऐसे लोगों के हाथों में रही जिनकी छवि आमतौर पर अराजनीतिक रही है जैसे अन्ना हजारे के साथ बाबा रामदेव, किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश, अरविन्द केजरिवाला आदि।

यही कारण रहा कि इस आंदोलन को जगह.जगह एनजीओ द्वारा संयोजित व संचालित किया गया। बल्कि ये ही इसके मुख्य कर्ता.धर्ता थे। इस पूरे आंदोलन में अराजनीति की राजनीति हावी रही और राजनीतिक दल के समर्थकों को दूर रखा गया, उन्हें पास फटकने तक नहीं दिया गया यहाँ तक कि उन रेडिकल संगठनों को भी जो बड़ी ईमानदारी से लूट व भ्रष्टाचार तथा सरकार की उदारीकरण.निजीकरण.भूमंडलीकरण की नीतियों के खिलाफ जुझारू संघर्ष चला रहे हैं, उनसे भी परहेज किया गया। इस तरह राजनीतिक तंत्र के विरुद्ध आंदोलन को राजनति विरोधी आंदोलन बनाया गया। तब सवाल है कि लूट व भ्रष्टाचार क्या महज आर्थिक व सामाजिक मामला है ? यदि यह मौजूदा राजनीतिक तंत्र व व्यवस्था की उपज है तो इसके विरुद्ध संघर्ष की राजनीति क्या होगी ? यह अराजनीति भी क्या राजनीति नहीं है ?

हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई कानून नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो, इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था की जरूरत का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय। तभी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है। अन्ना हजारे के इस आंदोलन से सरकार का ऐसे लोकपाल विधेयक बनाने के लिए तैयार होना निःसन्देह इस दिशा में जीत की पहली सीढ़ी है।

लेकिन इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि पिछले 42 सालों से ऐसा ही लोकपाल विधेयक सरकार के ठण्ढे बस्ते में पड़ा रहा है और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। सभी जानते है कि मौजूदा शासन काल में एक से बढ़कर एक घोटाले सामने आये हैं और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने की जगह सरकार की दिलचस्पी उन्हें बचाने या मामले की लीपापोती में ही ज्यादा रही है। तब यह स्वाभाविक सवाल है कि क्या इस सरकार के पास भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छा शक्ति मौजूद है ? फिर जो ड्राफ्ट कमेटी बनी है, उसकी अपनी जटिलता है। इसमें आधे सरकार के नुमाइन्दे हैं। कमेटी का अध्यक्ष भी सरकार का है। सरकार के पास अपना एक पुराना ड्राफ्ट है और अन्ना हजारे ने जन लोकपाल का एक अलग मसौदा प्रस्तावित कर रखा है। इन दोनों में मतभेद के बिन्दु ज्यादा हैं और सहमति के बिन्दु नही ंके बराबर हैं। ऐसे में सहमति पर पहुँचना बड़ी कवायद होगी। भले ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने अपने पहले चरण की लड़ाई जीत ली हो लेकिन अन्ना हजारे की आगे की राह आसान नहीं है। इसलिए जीत पर जश्न मनाने से ज्यादा आगे की चुनौतियों के लिए अपने को तैयार करना जरूरी है।

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