शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

निराशा के दौर में उम्मीद के सपने



कौशल किशोर

‘यह आधी जीत है, आधी बाकी है। अनशन अभी स्थगित हुआ है, छूटा नहीं है।’ मतलब साफ है। न अन्ना जीते हैं और न भ्रष्टाचार हारा है। लड़ाई जारी रहेगी। यह पड़ाव है। अभी जन लोकपाल के मात्र तीन बिन्दुओं के प्रस्ताव को संसद ने पारित किया है, वह भी आंदोलन के दबाव से। स्टैण्डिंग कमेटी क्या रुख लेती है, यह आगे की बात होगी। अन्ना की आगे की राह आसान नहीं। पटाखे फोड़ने और जश्न मनाने का आहवाहन है। पर इससे ज्यादा जरूरी है आगे की तैयारी हो। उस झोल पर भी बात होगी जो जन लोकपाल में है तथा इस आंदोलन में भी देखा गया है। जिनने जन लोकपाल में एन जी ओ तथा निजी व कॉरपोरेट जगत को इसकी परिधि में लाने का मुद्दा उठाया है, अब उनके लिए इन मुद्दों पर मुहिम छेड़ने की बारी है।

लोगों ने मान लिया था कि यहाँ कुछ नहीं हो सकता। महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ नहीं किया जा सकता। इसे स्वीकार कर लेने में ही भलाई है। सरकारें बदल कर भी उन्होंने देख लिया। बकौल धूमिल ‘जिसकी पूँछ उठाई, उसको मादा पाया’। सरकार देश की प्रगति और विकास के आँकड़े पेश करने में लगी रही। विकास का मिथक गढ़ा जाता रहा और देश के विश्व की आर्थिक शक्ति बन जाने का खूब ढ़िंढ़ोरा पीटा जाता रहा। पर सच्चाई तो कुछ और ही कहानी कहती रही। आम आदमी के रोजमर्रा की जिन्दगी में कठिनाइयाँ बढ़ती ही गई। गरीब.गुरबा की क्या कहें, मध्यवर्ग तक की परेशानियां बढ गई। उसके खाने में दाल है तो सब्जी गायब हो गई और सब्जी आ गई तो कुछ और चीजें नदारत। भले ही आम आदमी अपना वोट देकर सरकार बनाता और बदलता रहा, पर राजनीति से उसका विलगाव बढ़ता ही गया। सिविल सोसायटी और अन्ना हजारे इसी राजनीतिक शून्यता की उपज हैं।

अन्ना हजारे के आंदोलन की खासियत यह रही कि यह आंदोलन हमारे नागरिक समाज के उस हिस्से को आंदोलित करने में सफल रहा है जो राजनीति से दूरी बनाकर चलता हैं। मौजूदा राजनीति में बढ़ती सड़ांध ने नागरिक समाज में राजनीति के प्रति उदासीनता पैदा की है और आज हालत यह है कि उसका सभी राजनीतिक दलों से करीब करीब मोहभंग हो चुका है। ऐसे में अन्ना हजारे जैसा स्वच्छ व ईमानदार छवि वाला सुधारवादी, गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता जब उन मुद्दांे को लेकर सामने आता है और आमरण अनशन करता है जिनसे नागरिक समाज त्रस्त है तो इसकी अपील समाज में दूर तक जाती है और उसे गहरे रूप में संवेदित करती है। अन्ना हजारे उसे किसी गाँधी या जेपी का नया अवतार जैसे लगते हैं। इस आंदोलन में यही हुआ और नागरिक समाज ने बढ.़चढ कर इसमें भागीदारी की। बल्कि इसकी कमान भी ऐसे लोगों के हाथों में रही जिनकी छवि आमतौर पर अराजनीतिक रही है ।

युवा शक्ति के बारे में यही कहा जाता रहा है कि वह नवउदारवादी चमक दमक का शिकार हो गया है। बाजारवादी व्यवस्था ने इसके अन्दर के प्रतिरोध की ऊर्जा को सोख लिया है। महानगरों से लेकर कस्बों तक फैली यह युवा शक्ति अमेरिका जैसे उन्नत देशों में अपना भविष्य देखती है। ‘राहुल ब्राँड’ इसके आदर्श हैं। इसी युवा शक्ति को हमने अन्ना के आंदोलन में देखा। यह इस आंदोलन की मजबूत ताकत बनकर उभरी। बेशक कई जगह इसमें लम्पटता व अराजकता भी देखने को मिली। इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि आइसा.इनौस जैसे रेडिकल वामपंथी छात्र.युवा संगठनों तथा ‘स्टूडेन्ट एण्ड यूथ अगेंस्ट करप्शन’ रात दिन आंदोलन की तैयारी में लगे रहे। उन्हें दमन भी झेलना पड़ा। इनके द्वारा जो पिछले तीन महीने से भ्रष्टाचार विरोधी संगठित व जुझारू अभियान संचालित किया गया, उसने युवाओं के बीच भ्रष्टाचार विरोध की वैचारिक जमीन तैयार की।

रही बात भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तो शायद ही कोई दिन हो जब लूट और भ्रष्टाचार के खिलाफ वामपंथी व अन्य दलों व जन संगठनों की ओर से धरना, प्रदर्शन न हुआ हो। छोटे.छोटे शहरों से लेकर दिल्ली तक में बड़ी बड़ी रैलियाँ हुई हैं। यहाँ तक कि गाँव.गाँव से, जंगल व आदिवासियों की ओर से विरोध के प्रबल स्वर उठे हैं। चाहे टाटा का कलिंगनगर हो, पोस्को, नियमगिरि इन तमाम जगहों में किसानों का तीखा प्रतिरोध जारी है। इन आंदोलनों की सीमा यह है कि ये बहुत कुछ वैचारिक अभियान बन कर रह जाते हैं और इस विचार पर केन्द्रित हो जाते हैं कि यह व्यवस्था भ्रष्ट है और इसे बदले बिना भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता है। जन लोकपाल से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। इसलिए हमें व्यवस्था बदलाव पर केन्द्रित करना चाहिए। इस संघर्ष में कोई पड़ाव नहीं है। देखने में यही आया कि इस समझ के संगठन और बुद्धिजीवी इस आंदोलन के दौरान इसके मुखर आलोचक थे। इनकी हालत लहरों से जूझते नाविक की न होकर तट पर बैठे तमाशबीन की बनकर रह गई।

पर अन्ना के आंदोलन की विशेषता यह रही कि इन्होंने जन लोकपाल कानून की माँग पर अपने को केन्द्रित किया जिसकी परिधि में सरकार के प्रधानमंत्री से लेकर सांसद व ऊपर से लेकर नीचे के अधिकारी आ सके। भले ही इससे भ्रष्टाचार खत्म हो या न हो लेकिन जनता में इसकी अपील गई। वे अपने रोजमर्रा के जीवन में रोज ही इनसे सताये जाते रहे हैं। जन लोकपाल उन्हें यह विश्वास दिलाता है कि अब उनका काम होगा और नहीं होता है तो कम से कम न्याय के लिए वे लोकपाल के पास जा तो सकते हैं। इस तरह अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की ठोस मांगों को सूत्रबद्ध करने तथा यह प्रचारित करने में सफल रहे कि जन लोकपाल के बन जाने से उन्हें भ्रष्टाचार से राहत मिल जायेगी। एक अपील यह भी थी कि सरकार भ्रष्ट है। वह अन्ना को अनशन तक करने नही देना चाहती। सरकार के दमन ने आंदोलन के लिए आवेजक का काम किया। 16 अगस्त के बाद से लगातार अन्ना पर तरह तरह के दबाव बनाये जाते रहे लेकिन अन्ना ने जिस दृढता का परिचय दिया, वह आंदोलन की दृढता बन गई।

अन्ना का यह आंदोलन भ्रष्टाचार से शुरू हुआ। लेकिन इसने जनता बनाम संसद, सŸाा के विकेन्द्रीकरण, चुनाव सुधार जैसे कई मुद्दों को उठा दिया है। यह पहलु सामने ला दिया है कि हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था रुग्ण हो चुकी है। इसमें सुधार की जरूरत है। अन्ना इसे ‘व्यवस्था परिवर्तन’ कह रहे हैं। अहिंसा के रास्ते सत्याग्रह, अनशन, जन आन्दोलन आदि इनके हथियार हैं। कुछ लोग इसे दबाव की राजनीति या सरकार के साथ ‘ब्लैकमेल’ कहते हुए इसकी आलोचना करते हैं। इस सम्बन्ध में मुझे गाँधी जी की एक बात याद आती है। जब उनसे पूछा गया था कि आपके सपनों का भारत कैसा होगा तो उन्होंने कहा कि स्वराज को प्रत्येक गरीब की कुटिया तक पहुँचाना हम सबका काम होगा और मेरे सपनों का भारत ऐसा होगा जिसमें हर आदमी यह महसूस कर सके कि यह देश उसका है, उसके निर्माण में उसकी आवाज का महत्व है।

पर सच्चाई यह है कि आज आवाज किसी की गूँज रही है तो वह धनपशुओं, दबंगों, राजनीतिक सौदागरों और अपराधियों की है। क्या हमारी संसदीय व्यवस्था इसी आवाज की प्रतिनिधि नहीं होती जा रही है ? ऐसे में क्या संसदीय तानाशाही की जगह लोकशाही को जाग्रत करना जरूरी नहीं ? अन्ना के आंदोलन ने यही किया है, निराशा के दौर में आशा के सपने जगाये हैं। अभी ये सपने हैं, इसे यथार्थ होना बाकी है। इसे कोई ‘दूसरी आजादी’, ‘अरब का वसन्त’ या ‘अगस्त क्रान्ति’ नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। काले अंग्रेजो के राज में उनका काला शरबत पीते.पीते, तिल.तिल कर मरने की जगह कुछ करने का आहवान है जैसा वीरेन डंगवाल अपनी कविता में कहते हैं:

‘हमने यह कैसा समाज रच डाला है
इसमें जो दमक रहा, वह शर्तिया काला है
कालेपन की वे संतानंे
है बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू है हम पर फेर रहीं
बोलो तो कुछ करना है
या काला शरबत पीते.पीते मरना है।’

बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं

कौशल किशोर

बुद्धिजीवी समुदाय से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाज को दिशा देगा। एक बेहतर, मानवीय और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में उसकी कारगर भूमिका होगी। लेकिन इस समुदाय के एक हिस्से द्वारा ऐसे तर्क और विचार दिये जा रहे हैं जिससे यही बात सामने आ रही है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा जनलोकपाल की मांग बेबुनियाद, गलत तथा संविधान विरुद्ध है। अन्ना के आंदोलन का विरोध ऐसे किया जा रहा है जैसे यह कोई अपराधजन्य कार्रवाई है तथा इसके द्वारा संसद, संविधान, कानून के हमारे भव्य व सर्वोच्च ‘लोकतांत्रिक’ मन्दिर को ढ़हा देने की साजिश रची जा रही है।

ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम इस तर्क व विचार को समझे। सवाल है क्या अन्ना के आन्दोलन ने हमारी संसदीय व्यवस्था के लिए वास्तव में संकट पैदा कर दिया है ? यह लोकतांत्रिक ढ़ांचे में पलीता लगा रहा है ? अगर इतिहास को देखें तो हमारा अनुभव यही कहता है कि जनता की पहल, उसका हस्तक्षेप तथा उसके आंदोलनों ने हमेशा संसदीय जनतंत्र को मजबूत करने का काम किया है। यदि इस व्यवस्था के लिए संकट आया है तो शासक वर्ग की तरफ से ही आया है। यह शासक वर्ग ही है जिसने अपने संकीर्ण हितों के लिए संसद, संविधान, कानून आदि का इस्तेमाल किया है तथा जनता के ऊपर लोकतंत्र की जगह अपनी तानाशाही को थोपा है। इस सम्बन्ध में उदाहरणों कमी नहीं हैं।

कहा जा रहा है कि जिस जन लोकपाल को संसद में पारित कराने को लेकर आन्दोलन किया जा रहा है, वह निर्वाचित लोगों द्वारा तैयार नहीं है जबकि संसद एक निर्वाचित संस्था है। क्या संसद सिविल सोसायटी के ‘अनिर्वाचित’ नुमाइन्दों के सामने घुटने टेक दे। तब रघुरमण और निलकेणी की नियुक्ति के बारे में क्या कहा जायेगा ? इनकी नियुक्ति किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत की गई है ? ये निर्वाचित सांसद नहीं है, यहाँ तक कि ये राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। ये तो कारपोरेट कम्पनियों के सीइओ हैं। ये किनके हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं, यह जगजाहिर है।। सरकार द्वारा रणनीतिक महत्व के पदों पर इनकी नियुक्ति क्या संसदीय व्यवस्था को नष्ट करना तथा कारपोरेट हितों का पक्षपोषण करना नहीं है ? ऐसे अनगिनत मामले हैं। वहीं इसके विपरीत नागरिक समाज के कार्यकर्ता सर्वजनिक व्यक्ति हैं। उनके ड्राफ्ट से हमारी सहमति या असहमति हो सकती है। पर उनके ड्राफ्ट के विचार तो सबके सामने खुलकर आये हैं। देश में इस पर व्यापक चर्चा हुई है, लोग आज भी अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना अपने आमरण अनशन तथा आंदोलन द्वारा दबाव की राजनीति कर रहे हैं। यह ‘ब्लैक मेल’ है। इस नजर से देखा जाय तो अनशन, भूख हड़ताल, हड़ताल, धरना, घेराव आदि सब ‘ब्लैक मेल’ ही कहलायेगा जिसका इस्तेमाल मजदूर, किसान और जनता के विभिन्न तबके अपनी माँगों को लेकर करते हैं। लोकतंत्र में आन्दोलन करना, सरकार पर इसके द्वारा दबाव बनाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। जन आन्दोलनों के प्रति यह नजरिया न सिर्फ अलोकतांत्रिक है बल्कि फासिस्ट भी है।

आज इस बात पर बहस तेज है कि संसद और जनता में सर्वोच्च किसे माना जाय ? जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है। उनका दायित्व बनता है कि वह जनहित के लिए काम करे। क्या लोकतंत्र में जनता का अधिकार मात्र पाच साल में एक बार वोट देने तक सीमित रह जाता है ? उसके बाद पाच साल तक वह चुपचाप इन्तजार करे। मैं समझता हूँ ऐसी व्यवस्था संसदीय तानाशाही कहलायेगी, जनतंत्र नहीं। चूँकि यह जनता ही सांसदों व विधायिका को चुनती है। इसलिए उस पर निगरानी रखने, संसद के विविध क्रियाकलाप पर अपना मत जाहिर करने, उस पर आंदोलन और दूसरे तरीके से दबाव बनाने का काम भी जनता का होता है। ऐसे अधिकार उसे संविधान में प्राप्त भी हैं।

इसीलिए जो लोग संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे हैं, वे जनता को संविधान प्रदत अधिकारों से वचित कर देना चाहते हैं। आखिरकार संसद लोकतंत्र में किसके प्रति जिम्मेदार होता है। जनता के प्रति ही तो। लेकिन आज उसकी जिम्मेदारी क्या है ? भले देश की जनता के बड़े हिस्से को बीस रुपये मजदूरी के रूप में बमुश्किल से मिलते हों, पर हमारे प्रतिनिधियों के खर्चे में कोई कमी नहीं आनी चाहिए और अपना वेतन व भŸाा बढ़ाने के सवाल पर वे आमतौर पर एकजुट दिखते हैं। फिर हमारे सांसदों के चरित्र को भी देखा जाना चाहिए। आज इनका चरित्र बहुत कुछ सामंतों या कहिए राजाओं जैसा हो गया है। जनसेवक की जगह ये जनता के मालिक बन गये हैं। हकीकत तो यह है कि आज चार सांसद जेल में है तथा दर्जनों पर आपराधिक मुकदमें है।

हमारे बुद्धिजीवी दोस्त इरोम शर्मिला के पिछले दस साल से जारी भूख हड़ताल से बड़ी सहानुभूति जाहिर करते हैं तथा अन्ना के आन्दोलन पर चर्चा करते हुए इसके बरक्स वे इरोम की भूख हड़ताल की बात करते हुए अन्ना के द्वारा इस मुद्दे पर कुछ न किये जाने की आलोचना करते हैं। लेकिन ये इस सवाल पर चुप्पी साधे दिखते हैं कि यही संसद है जिसने विशेष शस्त्र बल ;अफ्सपाद्ध जैसा कानून बनाया है जिसके विरुद्ध इरोम संघर्षरत है। यही संसद है जिसने तमाम ऐसे कानूनों को संरक्षित कर रखा है जो अंग्रेजों द्वारा बनाये गये। इनके तहत मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह का मुकदमा कायम किया गया। आजतक संसद ने न जाने कितने काले कानून बनाये है। ऐसे ही कानूनों के तहत विनायक सेन को आजीवन कारावस की सजा दी गई तथा आज भी सीमा आजाद, प्रशान्त राही, सुघीर ढ़ावले जैसे अनगिनत लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा जन आन्दोलनों के कार्यकर्ता जेलों में बन्द हैं। क्या झुठलाया जा सकता है कि हमारी संसद कॉरपोरेट हितों तथा नवउदारवादी नीतियों की सबसे बड़ी रक्षक है जिसकी देन भ्रष्टाचार है ?

कभी गाँधी जी ने इंगलैंड की संसद की आलोचना करते हुए कहा था कि यह ‘बाँझ’ और ‘बेसवा’ है जो उसी का काम करती है जो उसे अपने पास रखे। कभी लेनिन ने जारशाही द्वारा गठित रूसी संसद ‘डयूमा’ को ‘सुअरबाड़ा’ कहा था। जो संसद अपने राष्ट्रहित, जनहित के प्रति जिममेदार न हो उसकी स्थिति क्या ऐसी ही नहीं हो जाती। इस रोशनी में हम अपनी संसद को देख सकते हैं। ऐसे में लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन हो तथा भारतीय समाज भ्रष्टाचार मुक्त बने, यही देश की जनता का सपना है। यह लाखों करोड़ों का सपना ही है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा जन लोकपाल के लिए आन्दोलन के रूप में उमड़ पड़ा है। इसे कोई ‘दूसरी आजादी’, ‘अरब का वसन्त’ या ‘अगस्त क्रान्ति’ नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचाना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। संघर्ष और बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं, इसे जिलाये रखना ही आज बौद्धिकों का दायित्व हो सकता है। संसद, संविधान व कानून के नाम पर इस सपने से खेलने को ‘बौद्धिक मक्कारी’ तथा संसदीय बौनापन ही कहा जायेगा।

बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं

कौशल किशोर

बुद्धिजीवी समुदाय से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाज को दिशा देगा। एक बेहतर, मानवीय और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में उसकी कारगर भूमिका होगी। लेकिन इस समुदाय के एक हिस्से द्वारा ऐसे तर्क और विचार दिये जा रहे हैं जिससे यही बात सामने आ रही है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा जनलोकपाल की मांग बेबुनियाद, गलत तथा संविधान विरुद्ध है। अन्ना के आंदोलन का विरोध ऐसे किया जा रहा है जैसे यह कोई अपराधजन्य कार्रवाई है तथा इसके द्वारा संसद, संविधान, कानून के हमारे भव्य व सर्वोच्च ‘लोकतांत्रिक’ मन्दिर को ढ़हा देने की साजिश रची जा रही है।

ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम इस तर्क व विचार को समझे। सवाल है क्या अन्ना के आन्दोलन ने हमारी संसदीय व्यवस्था के लिए वास्तव में संकट पैदा कर दिया है ? यह लोकतांत्रिक ढ़ांचे में पलीता लगा रहा है ? अगर इतिहास को देखें तो हमारा अनुभव यही कहता है कि जनता की पहल, उसका हस्तक्षेप तथा उसके आंदोलनों ने हमेशा संसदीय जनतंत्र को मजबूत करने का काम किया है। यदि इस व्यवस्था के लिए संकट आया है तो शासक वर्ग की तरफ से ही आया है। यह शासक वर्ग ही है जिसने अपने संकीर्ण हितों के लिए संसद, संविधान, कानून आदि का इस्तेमाल किया है तथा जनता के ऊपर लोकतंत्र की जगह अपनी तानाशाही को थोपा है। इस सम्बन्ध में उदाहरणों कमी नहीं हैं।

कहा जा रहा है कि जिस जन लोकपाल को संसद में पारित कराने को लेकर आन्दोलन किया जा रहा है, वह निर्वाचित लोगों द्वारा तैयार नहीं है जबकि संसद एक निर्वाचित संस्था है। क्या संसद सिविल सोसायटी के ‘अनिर्वाचित’ नुमाइन्दों के सामने घुटने टेक दे। तब रघुरमण और निलकेणी की नियुक्ति के बारे में क्या कहा जायेगा ? इनकी नियुक्ति किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत की गई है ? ये निर्वाचित सांसद नहीं है, यहाँ तक कि ये राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। ये तो कारपोरेट कम्पनियों के सीइओ हैं। ये किनके हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं, यह जगजाहिर है।। सरकार द्वारा रणनीतिक महत्व के पदों पर इनकी नियुक्ति क्या संसदीय व्यवस्था को नष्ट करना तथा कारपोरेट हितों का पक्षपोषण करना नहीं है ? ऐसे अनगिनत मामले हैं। वहीं इसके विपरीत नागरिक समाज के कार्यकर्ता सर्वजनिक व्यक्ति हैं। उनके ड्राफ्ट से हमारी सहमति या असहमति हो सकती है। पर उनके ड्राफ्ट के विचार तो सबके सामने खुलकर आये हैं। देश में इस पर व्यापक चर्चा हुई है, लोग आज भी अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना अपने आमरण अनशन तथा आंदोलन द्वारा दबाव की राजनीति कर रहे हैं। यह ‘ब्लैक मेल’ है। इस नजर से देखा जाय तो अनशन, भूख हड़ताल, हड़ताल, धरना, घेराव आदि सब ‘ब्लैक मेल’ ही कहलायेगा जिसका इस्तेमाल मजदूर, किसान और जनता के विभिन्न तबके अपनी माँगों को लेकर करते हैं। लोकतंत्र में आन्दोलन करना, सरकार पर इसके द्वारा दबाव बनाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। जन आन्दोलनों के प्रति यह नजरिया न सिर्फ अलोकतांत्रिक है बल्कि फासिस्ट भी है।

आज इस बात पर बहस तेज है कि संसद और जनता में सर्वोच्च किसे माना जाय ? जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है। उनका दायित्व बनता है कि वह जनहित के लिए काम करे। क्या लोकतंत्र में जनता का अधिकार मात्र पाच साल में एक बार वोट देने तक सीमित रह जाता है ? उसके बाद पाच साल तक वह चुपचाप इन्तजार करे। मैं समझता हूँ ऐसी व्यवस्था संसदीय तानाशाही कहलायेगी, जनतंत्र नहीं। चूँकि यह जनता ही सांसदों व विधायिका को चुनती है। इसलिए उस पर निगरानी रखने, संसद के विविध क्रियाकलाप पर अपना मत जाहिर करने, उस पर आंदोलन और दूसरे तरीके से दबाव बनाने का काम भी जनता का होता है। ऐसे अधिकार उसे संविधान में प्राप्त भी हैं।

इसीलिए जो लोग संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे हैं, वे जनता को संविधान प्रदत अधिकारों से वचित कर देना चाहते हैं। आखिरकार संसद लोकतंत्र में किसके प्रति जिम्मेदार होता है। जनता के प्रति ही तो। लेकिन आज उसकी जिम्मेदारी क्या है ? भले देश की जनता के बड़े हिस्से को बीस रुपये मजदूरी के रूप में बमुश्किल से मिलते हों, पर हमारे प्रतिनिधियों के खर्चे में कोई कमी नहीं आनी चाहिए और अपना वेतन व भŸाा बढ़ाने के सवाल पर वे आमतौर पर एकजुट दिखते हैं। फिर हमारे सांसदों के चरित्र को भी देखा जाना चाहिए। आज इनका चरित्र बहुत कुछ सामंतों या कहिए राजाओं जैसा हो गया है। जनसेवक की जगह ये जनता के मालिक बन गये हैं। हकीकत तो यह है कि आज चार सांसद जेल में है तथा दर्जनों पर आपराधिक मुकदमें है।

हमारे बुद्धिजीवी दोस्त इरोम शर्मिला के पिछले दस साल से जारी भूख हड़ताल से बड़ी सहानुभूति जाहिर करते हैं तथा अन्ना के आन्दोलन पर चर्चा करते हुए इसके बरक्स वे इरोम की भूख हड़ताल की बात करते हुए अन्ना के द्वारा इस मुद्दे पर कुछ न किये जाने की आलोचना करते हैं। लेकिन ये इस सवाल पर चुप्पी साधे दिखते हैं कि यही संसद है जिसने विशेष शस्त्र बल ;अफ्सपाद्ध जैसा कानून बनाया है जिसके विरुद्ध इरोम संघर्षरत है। यही संसद है जिसने तमाम ऐसे कानूनों को संरक्षित कर रखा है जो अंग्रेजों द्वारा बनाये गये। इनके तहत मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह का मुकदमा कायम किया गया। आजतक संसद ने न जाने कितने काले कानून बनाये है। ऐसे ही कानूनों के तहत विनायक सेन को आजीवन कारावस की सजा दी गई तथा आज भी सीमा आजाद, प्रशान्त राही, सुघीर ढ़ावले जैसे अनगिनत लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा जन आन्दोलनों के कार्यकर्ता जेलों में बन्द हैं। क्या झुठलाया जा सकता है कि हमारी संसद कॉरपोरेट हितों तथा नवउदारवादी नीतियों की सबसे बड़ी रक्षक है जिसकी देन भ्रष्टाचार है ?

कभी गाँधी जी ने इंगलैंड की संसद की आलोचना करते हुए कहा था कि यह ‘बाँझ’ और ‘बेसवा’ है जो उसी का काम करती है जो उसे अपने पास रखे। कभी लेनिन ने जारशाही द्वारा गठित रूसी संसद ‘डयूमा’ को ‘सुअरबाड़ा’ कहा था। जो संसद अपने राष्ट्रहित, जनहित के प्रति जिममेदार न हो उसकी स्थिति क्या ऐसी ही नहीं हो जाती। इस रोशनी में हम अपनी संसद को देख सकते हैं। ऐसे में लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन हो तथा भारतीय समाज भ्रष्टाचार मुक्त बने, यही देश की जनता का सपना है। यह लाखों करोड़ों का सपना ही है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा जन लोकपाल के लिए आन्दोलन के रूप में उमड़ पड़ा है। इसे कोई ‘दूसरी आजादी’, ‘अरब का वसन्त’ या ‘अगस्त क्रान्ति’ नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचाना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। संघर्ष और बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं, इसे जिलाये रखना ही आज बौद्धिकों का दायित्व हो सकता है। संसद, संविधान व कानून के नाम पर इस सपने से खेलने को ‘बौद्धिक मक्कारी’ तथा संसदीय बौनापन ही कहा जायेगा।

राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’


कौशल किशोर

प्रेमचंद ने आज से 75 साल पहले अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ की रचना की थी। यह भारतीय किसान की त्रासदी और उसके संघर्ष की कहानी है। उपन्यास का नायक होरी इसका प्रतिनिधि पात्र है। वह कर्ज और सूदखोरी पर आधारित महाजनी सभ्यता का शिकार होता है। इस व्यवस्था द्वारा वह तबाह.बर्बाद कर दिया जाता है। उसका सब कुछ लूट लिया जाता है। उसकी जमीन, माल मवेशी सब छिन जाते हैं। वह दूसरों के खे पर काम करने वाले मजदूर में तब्दील हो जाता है और अन्त में इस क्रूर व्यवस्था के हाथों मार दिया जाता है।

देश आजाद हुआ, लेकिन होरी आजाद नही ंहुआ। आजादी के चौसठ साल बाद भी होरी मर रहा है, एक नहीं, हजारों.लाखों की तादाद में। साम्राज्यवादी.पूँजीवादी व्यवस्था का वह शिकार है। उसकी जमीनें छीनी जा रही हैं। कर्ज में डूबा वह आत्महत्या करने को मजबूर है। अन्न पैदा करने वाला किसान अन्न के लिए मोहताज हो गया है। भूख से मरना आजाद हिन्दुस्तान में उसकी नियति बन गई। यह व्यवस्था हृदयहीन, क्रूर और पाखण्डी हो गई है। राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ हमारी चौसठ साला आजादी के इसी यथार्थ को सामने लाता है। ‘गाँधी ने कहा’, ‘सŸा भाषे रैदास’, ‘अम्बेडकर और गाँधी’, ‘द लास्ट सैल्यूट’ जैसे व्यवस्था विरोधी और यथार्थवादी नाटकों के लिए चर्चित नाटककार राजेश कुमार का यह नया नाटक है जिसका मंचन अभी हाल में लखनऊ के संत गाडगे प्रेक्षागृह, संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाहजहाँपुर की नाट्य संस्था ‘थर्ड बेल’ द्वारा किया गया। इसका निर्देशन चन्द्रमोहन ‘महेन्द्रू’ ने किया। अलग दुनिया के सौजन्य से इस नाटक का मंचन लखनऊ में संभव हुआ।

‘सुखिया मर गया भूख से’ की कहानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले की है। एक गरीब किसान की भूख से मृत्यु हुई। इस घटना के सच को दबाने और उसे पलटने के लिए नौकरशाही द्वारा जो कुचक्र रचा गया, यह नाटक इसी सच्ची घटना पर आधारित है। सरकार द्वारा यह प्रचारित है कि उसके शासन में किसान चाहे जिस भी वजह से मरे लेकिन उसे भूख से नहीं मरना चाहिए। यदि कोई किसान भूख से मरता है तो इसके लिए उस जिले का प्रशासन खासतौर से डी0 एम0 जिम्मेदार माना जायेगा। मुख्यमंत्री कार्यालय से जिले में यह सूचना आती है कि सुखिया नाम का किसान भूख से मर गया है। कार्यालय को चौबीस घंटे के भीतर इसकी रिपोर्ट चाहिए। फिर क्या ? डी एम से लेकर तहसीलदार, एस पी से लेकर दरोगा, बी डी ओ से लेकर डॉक्टर तथा ग्राम प्रधान सब मिलकर ऊपर से लेकर नीचे तक जिले के सारे अधिकारी मामले को दबाने के कार्य में जुट जाते हैं।

सुखीराम उर्फ सुखिया इस नाटक का केन्द्रीय पात्र है। इसकी कहानी एक गरीब किसान के जीवन और संघर्ष की कहानी है। इस अर्थ में वह आज के गरीब किसान का प्रतिनिधित्व करता है। सुखिया ने खेती के लिए कर्ज क्या लिया, उसके जीवन में आफत आ गई। मूल से कई गुना उसका सूद हो जाता है। इसकी अदायगी में उसका खेत बिक जाता है। पत्नी और चार बच्चों का उसका परिवार कैसे चले ? अन्न पैदा करने वाला सुखीराम स्वयं एक एक दाने के लिए मोहताज हो जाता है। वह भूखा प्यासा काम की तलाश में दर दर भटकता है। उसे काम मिलता है लेकिन कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। इस हालत में उसे चक्कर आता है, बोहोश हो गिर पड़ता है और वहीं दम तोड़ देता है। उसकी पत्नी व बच्चे सब अनाथ हो जाते हैं। उनके पास रोने और आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता है।

सुखिया के भूख से मरने की खबर जिला प्रशासन को मुख्यमंत्री कार्यलय से आती है। फिर जिला प्रशासन द्वारा सुखिया की खोजाई शुरू होती है और सारा तंत्र सुखिया की भूख से हुई मौत को गलत साबित करने में जुट जाता है। उसके घर में अनाज भर ही नहीं दिया जाता है, बल्कि उसे चारो तरफ इस तरह फैला दिया जाता है ताकि यह पता चल सके कि उसके घर में अन्न को कोई किल्लत नहीं है। उसके नाम बी पी एल कार्ड जारी किया जाता है। उसमें यह इन्ट्री दिखाई जाती है कि वह नियमित रूप से अपने कार्ड पर अनाज उठाता रहा है। झटपट उसके नाम नरेगा का जॉब कार्ड बनता है तथा बैंक में खाता खोल दिया जाता है। उसके खाते में बारह हजार रुपये भी जमा कर दिये जाते हैं। सुखिया के मृत शरीर में मुँह के रास्ते अनाज भर दिया जाता है तथा हवा पम्प कर पेट इतना फूला दिया जाता है जिससे यह साबित हो जाय कि सुखाई की मौत भूख से नहीं, अत्यधिक खाने से हुई है। डाक्टर द्वारा पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी यही दिखाया जाता है। इस तरह भूख से हुई मौत की कहानी को अधिक खाने से हुई मौत में बदल दिया जाता है और वे सारे प्रमाण जुटा दिये जाते हैं जिससे साबित किया जा सके कि सुखिया एक सम्पन्न किसान था। उसकी मौत भूख से हो ही नहीं सकती थी।

डी एम का मुआयना होता है। वह मीडिया के सामने आता है और यह घोषित करता है कि सुखीराम की मौत भूख से नहीं हुई है और उनके जिले में इस तरह की कोई घटना हुई ही नहीं है। वह मुआवजे की घोषणा करता है। मीडिया भी सुन्दर व चमकदार वस्त्र पहना कर बच्चों की तस्वीरे उतारता है। इस तरह पूरा तंत्र जिसमें मीडिया तक शामिल हैं किसान की भूख से हुई मौत की सच्ची व दर्दनाक घटना को गलत साबित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देता है और सुखिया की पत्नी इमरती देवी और उसके बच्चों को ऐसी हालत में छोड़ जाता है जहाँ उनके पास अपनी आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता।

यह नाटक सुखिया के माध्यम से आज की सŸाा और व्यवस्था से हमें रु ब रु कराता है। यह ‘जनतांत्रिक’ व्यवस्था कितनी फर्जी, आम आदमी और उसकी समस्याओं से कटी, संवेदनहीन औ अमानवीय हो गई है, नाटक इसके जनविरोधी चरित्र को उजागर करता है। नाटक में इसके विरुद्ध प्रतिरोध भी है और यह किसानों के आक्रोश व गुस्से को भी सामने लाता है। इस प्रतिरोध के लिए नाटक में फैंटेसी की रचना की गई है। इस प्रतिरोध का नायक सुखिया का प्रेत है। सुखिया का प्रेत तंत्र द्वारा गढ़े गये एक एक झूठ का पर्दाफाश करता है। वह यमराज से भी संघर्ष करता है जो इस तंत्र का समर्थक है। उस वक्त सुखिया का प्रतिरोध अपने चरम रूप में अभिव्यक्त होता है जब उसके जीवन की सच्चाई को व्यवस्था द्वारा झूठ साबित कर दिया जाता है और झूठ को सच के रूप में स्थापित किया जाता है। वह झूठ के तंत्र पर अपनी पूरी ताकत से टूट पड़ता है। नाटक कबीर की इस कविता के साथ समाप्त होता है ‘हम ना मरिबे मरिहें संसारा/हमको मिलिहाँ लड़ावनहारा..../हम न मरिबे, अब न तरबे/करके सारे जतन भूख से लड़बै/जब दुनिया से भूख मिटावा/तब मरिके हम सुख पावा’।

संसार भले खत्म हो जाय लेकिन हम नहीं मरेंगे, नाटक किसान के जीने की जबरदस्त इच्छा शक्ति को सामने लाता है और यह संदेश देता है कि भूख पैदा करने वाली व्यवस्था को समाप्त करके ही किसान को सच्चा सुख मिल सकता है। राजेश कुमार का यह नाटक भूख से हुई मौत और किसानों की आत्महत्या के विरुद्ध प्रतीत होता है लेकिन अपने मूल रूप में यह मौजूदा व्यवस्था तथा इस तंत्र के खिलाफ है। आज जब महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तथा व्यवस्था की लूट व दमन के विरुद्ध देश में आन्दोलन तेज है, ऐसे दौर में नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ का महत्व बढ़ जाता है। यह प्रतिरोध की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है जो जन चेतना को आगे बढ़ाता है।

नाटक में अशोक अंजुम और अशोक मिश्र के गीतों का इस्तेमाल हुआ है। चुटीले संवाद, व्यंग्य, एक्शन, गीत.संगीत आदि नाटक को गतिमय बनाये रखता है। लेकिन कई जगह संगीत और वाद्ययंत्र की आवाज लाउड हो गई है जिसकी वजह से गीत के बोल दब जाते हैं। इसी तरह कई जगह व्यंग्य पर हास्य हावी हो जाता है। वैसे ‘थर्ड बेल’ द्वारा इसकी यह पहली प्रस्तुति है। कलाकारों और निर्देशक के परिश्रम और प्रतिबद्धता को देखते हुए आशा की जानी चाहिए कि आगे की इसकी प्रस्तुति और बेहतर और सुगठित होगी।