कौशल किशोर
कहा जाता है कि समय के साथ मनुष्य के बड़े-से-बड़े जख्म भर जाते हैं। वह उन्हें भूल भी जाता है। लेकिन जिन्दगी के कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो समय के साथ भर जाने का आभास देते हैं पर वे भरते नहीं। कवि, चित्रकार व अनुवादक सईद के दिलो-दिमाग पर पड़े जख्म कुछ ऐसे ही हैं। बाहर से वे दिखते नहीं लेकिन अपने अन्दर कितना दर्द समेटे हुए हैं, यह सईद को लेकर आयोजित गोष्ठी में देखने को मिला।
सईद ने 1972 में देश छोड़ा। फिनलैण्ड गये। वहीं बस गये और वहाँ की नागरिकता भी ले ली। अभी हाल में हिन्दुस्तान आये और मित्रों से मिलने लखनऊ पहुँचे। लखनऊ के राज्य सूचना केन्द्र में उनके कविता पाठ और उनसे संवाद का कार्यक्रम रखा गया था। फिनलैण्ड हमारे लिए बहुत कुछ अपरिचित सा देश है। इसलिए वहाँ का समाज और राजनीतिक व्यवस्था कैसी है ? लोगों के सोचने-समझने का नजरिया कैसा है ? वह समाज कितना हमारे जैसा और कितना हमसे भिन्न हैं ? साहित्य और संस्कृति का माहौल कैसा है ? यह सब जानने की स्वाभाविक उत्सुकता हमारे अन्दर थी।
लेकिन उस वक्त माहौल अत्यंत गंभीर हो गया, जब हममें से किसी ने सईद से पूछा कि आपने देश क्यों छोड़ा ? आखिर ऐसा क्या हुआ जिसकी वजह से आपको यहाँ से जाना पड़ा और फिनलैण्ड की नागरिकता लेनी पड़ी ? हमने महसूस किया कि इन सवालों पर सईद के चेहरे का रंग स्याह पड़ गया है और वे अपने को असहज पा रहे हैं। उन्होंने अपनी आँखें मूँद ली थी और जब खुलीं तो वे आँसूओं से भरी थीं। वे कुछ कह रहे थे। आवाज भर्राई हुई थी और शब्द अस्पष्ट थे.......‘क्या करता, मुझे जेल में डाल दिया गया। गुप्तचर विभाग वालों ने तरह।तरह के सवालों से मुझे मानसिक रूप से परेशान कर दिया था। वे क्या उगलवाना चाहते थे, किस जुर्म की सजा दी जा रही थी, मुझे पता नहीं था। ऐसी हालत थी कि.....मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था। मुझे इस व्यवस्था से नफरत हो गई थी।.......’ और सईद भरी गोष्ठी में रो पड़े। उनकी इस प्रतिक्रिया से हम सभी स्तब्ध थे।
सईद को कविता लिखने और पेंटिग करने का शुरू से शौक रहा। भवाली ;उŸाराखण्डद्ध के रहने वाले सईद विज्ञान के स्नातक थे। जीवन ही नहीं, विज्ञान की बारीकियों को भी जानने।सीखने की जबरदस्त धुन थी। इसी धुन में कभी वे प्रयोगशालाओं तक पहुँच जाते तो कभी अनुसंधान केन्द्रों तक। लेकिन माहौल उनके अनुकूल नहीं था क्योंकि वे ‘सईद’ थे। उन दिनों बांग्ला देश का मुक्ति संग्राम और पाकिस्तान के साथ युद्ध चल रहा था। सईद की खोजी प्रवृŸिा ने उन्हें संकट में डाल दिया। गुप्तचर विभाग की नजर में दुश्मन के ‘जासूस’ लगे। फिर क्या था ? उनसे पूछ.ताछ का दौर चला। जब कुछ नहीं मिला तो यातनाएँ दी जाने लगीं। जेल में डाल दिया गया। और जब जेल से बाहर आये तो दिल.दिमाग बुरी तरह घायल था। अब उनके पास यही विकल्प बचा था कि वे देश से दूर चले जायंे। फिर लौट कर न आयें और वे सुदूर उŸारी ध्रुव के देश फिनलैण्ड पहुँच गये।
पर सईद दिल-दिमाग से दूर नहीं जा पाये। एक से दो साल भी नहीं बीत पाता कि वे हिन्दुस्तान आ जाते। दोस्तों से मिलते। उस शहर, कस्बे, गाँव तक जाते जो अपने थे। उम्र भी साठ के पार हो गई है। शरीर भी भारी-भरकम हो गया है। मधुमेय और साँस फूलने की बीमारी है। चलना, सीढ़ियाँ चढ़ना दूभर सा हो गया है। पर यहाँ आने-जाने का सिलसिला कम नहीं हुआ।
फिनलैण्ड में रहते हुए सईद ने ढ़ेर सारी कविताएँ लिखीं, चित्र बनाये, अनुवाद किये। सईद ने प्रसिद्ध फिनिश उपन्यासकार मिका वाल्तरी के उपन्यास ‘सिनुहे मिश्रवासी’ का हिन्दी में अनुवाद किया है जिसे राजकमल प्रकाशन छाप रहा है। गोष्ठी में सईद ने अपनी कई कविताएँ सुनाईं। कविताओं को सुनते हुए लगा कोई चित्रकार अपनी कूची से कैनवास पर चित्र उकेर रहा है। सईद की कविताओं में ‘भटकती हुई घायल आत्मा’, ‘जलती हुई झाड़ियाँ’, ‘अंधेरे की चादर’, ‘झुलसता हुआ रेगिस्तान’, ‘मृणासन्न ऋतुएँ’, ‘हृदय विदारक चीत्कार’, ‘क्षितिज रक्ताभ’, ‘थके मांदे या मृत मौसम’ जैसे चित्र उभरते हैं। इनसे गुजरते हुए लगता है कि यहाँ गहरी उदासी है, रंग फीके और अवसाद से भरे हैं। बातचीत के क्रम में सईद ने बताया भी कि ये कविताएँ जब पुस्तक के रूप में छपेंगी तो इसका शीर्षक होगा: ‘दूर से आती एक प्रवासी की आवाज’। तब हमें समझते देर नहीं लगी कि यहाँ फैली उदासी और अवसाद क्यों है ? कहीं न कहीं सईद के अर्न्तमन में अपनी जड़ों से कट जाने की व्यथा और उनसे संवाद की छटपटाहट है। वहीं यहाँ अभिव्यक्त हो रही है।
सईद अकेले नहीं हैं। इनके जैसों की पीड़ा, देश छोड़कर जाना और विदेशी नागरिकता लेना, यह सवाल है। मकबूल फिदा हुसैन ने उम्र के इस पड़ाव पर कतर की नागरिकता ली। कुछ लोग इसके लिए हुसैन की आलोचना भी करते हैं। लेकिन क्या हुसैन की पीड़ा को समझने, उनके मन में झाँकने की कोशिश की गई ? हुसैन कहते हैं कि भले मैं हिन्दुस्तान के लिए प्रवासी हो गया हूँ लेकिन मेरी यही पहचान रहेगी कि मैं हिन्दुस्तान का पेन्टर हूँ, यहाँ जन्मा कलाकार हूँ। अर्थात हुसैन के कलाकार की जड़े यहीं है और अपने जड़ो से कटने का जो दर्द होता है, वह यहाँ भी है। कलाकार स्वतंत्रता चाहता है। वह प्रतिबन्धों, असुरक्षा में नहीं जीना चाहता है।
पर व्यवस्था ऐसी है जो कलाकार को न्यूनतम सुरक्षा की गारण्टी नहीं दे सकती। यहाँ लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता है। नागरिकों को अपना पसंदीदा धर्म व पंथ अपनाने की स्वतंत्रता है। ‘वसुधैव ही कुटुम्बकम’ को भारतीय संस्कृति बताते हुए हम थकते नहीं। परन्तु सईद, हुसैन.....जैसे कलाकारों या ऐसे अनगिनत लोगों के लिए इतनी भी जगह क्यों नहीं जहाँ वे स्वतंत्रता से जी सकें, रह सकें ? बड़ी।बड़ी बातों के बीच अक्सरहाँ इन छोटी बातों को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। सईद फिनलैण्ड वापस जा चुके हैं लेकिन सोचने के लिए यह सवाल छोड़ गये हैं।
बुधवार, 26 मई 2010
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