रविवार, 2 मई 2010

दलित अखाड़े में दंगल

कौशल किशोर

अखाड़े में दंगल चल रहा है। दो पहलवान आपस में गुत्थम-गुत्था हैं, एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए जोर आजमाइश करते। पटखनी देने के लिए तरह-तरह के दांव-पेंच का इस्तेमाल होता है। दर्शकों की बड़ी भीड़ है और पहलवानों को इनका समर्थन चाहिए। अखाड़े के बाहर ताल ठोकते कुछ और पहलवान भी हैं।

उत्तर प्रदेश का राजनीतिक रंगमंच इन दिनों बहुत-कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित कर रहा है। पिछले काफी अरसे से इस प्रदेश की राजनीति सपा और बसपा के इर्द-गिर्द घूमती रही है, वह आज कांग्रेस और बसपा की ओर केन्द्रित होती हुई दिखने लगी है। मायावती काग्रेस पर निशाना साध रही हैं, तो कांग्रेस भी उनसे पीछे नहीं। वह भी पूरे हमलावर अन्दाज में उन पर हल्ला बोल रही है। दलितों को लेकर ये दोनों अपने-अपने दांव व दावे पेश कर रहे हैं। इससे यही आभास हो रहा है कि भले विधान सभा चुनाव में अभी दो साल की देरी है लेकिन उसका एजेण्डा इन्होंने अभी से सेट करना शुरू कर दिया है और दलितों पर अपनी दावेदारी के लिए इनके बीच तीखी जंग छिड़ गई है। कांग्रेस की ओर से इस जंग की बागडोर नेहरू परिवार की चौथी पीढ़ी राहुल गाँधी के हाथ में है, वहीं बसपा की ओर से इसकी कमान सुप्रीमो मायावती ने संभाल रखा है।

चार दशक तक प्रदेश में राज करने वाली कांग्रेस के लिए अपने सामाजिक आधार का खिसक जाना उसके लिए सबसे बड़ी चिन्ता का विषय रहा है। लेकिन पिछली लोकसभा के चुनाव की सफलता को कांग्रेस अपने लिए पुनर्जीवन मानती है। इसीलिए वह इस दिशा में काम कर रही है कि अगर केन्द्र में सरकार को बनाये रखना है तो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अपने पाँव का मजबूती से टिके रहना जरूरी है। अपने सामाजिक आधार को पुनः प्राप्त करना और आगामी विधान सभा चुनाव तक उसे कांग्रेस के वोट में बदलते हुए प्रदेश की सरकार तक पहुँचना कांग्रेस का लक्ष्य बन गया है।

इसके लिए कांग्रेस ने सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा के द्वारा मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बनाना शुरू किया है। राहुल गाँधी के द्वारा दलित बस्तियों में जाना, उनके बीच रात गुजारना, उनकी समस्याओं के साथ रु ब रु होना, पिछले साल कांग्रेसी नेताओं का हरिजन बस्तियों में गाँधी जयन्ती मनाना आदि उसी कवायद का हिस्सा माना जा सकता है। कांग्रेस का यह अभियान राहुल गाँधी द्वारा संचालित हैैं और नेहरू परिवार की विरासत और कारपोरेट मीडिया द्वारा स्थापित व प्रचारित युवा की ‘आकर्षक’ छवि का लाभ भी उन्हें एक हद तक मिल रहा है। लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं राहुल गाँधी का राजनीतिक भविष्य भी इससे जुड़ा है।

यह ऐसा दौर है जब कांग्रेस और बसपा जैसे दलों के लिए विचारधारा का महत्व गौण हो गया है। अब तो अवसर का लाभ उठाना और सरकार तक पहुँचना ही मकसद है। इसी के तहत जहाँ बसपा की ‘बहुजन’ से शुरू हुई यात्रा ‘सर्वजन’ तक पहुँच गई है, वहीं कांग्रेस के द्वारा भी ‘अम्बेडकर प्रेम’ का खूब दिखावा किया जा रहा है। कांग्रेस आज अच्छी तरह इस बात को समझती है कि गांधी की ‘हरिजन’ अवधारणा से वह दलितों के बीच अपनी पैठ नहीं बना सकती है। इसीलिए आज चतुर खिलाड़ी की तरह दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए उसके द्वारा अम्बेडकर का इस्तेमाल हो रहा है।

यह कांग्रेस की स्थापना का 125 वां साल है। इस मौके पर राहुल गाँधी के द्वारा दस संदेश यात्राओं को हरी झण्डी दिखाई गई। इसके लिए अम्बेडकर जयन्ती 14 अप्रैल का दिन और स्थान के बतौर अम्बेडकर नगर का चुनाव किया गया। अम्बेडकर नगर, जो मायावती का अभेद्य किला है, यहाँ से बड़ी रैली करके संदेश यात्राओं की रवानगी से राहुल गाँधी ंने जो संदेश दिया है, उसका एक निश्चित राजनीतिक निहितार्थ है। राहुल गाँधी द्वारा मायावती पर सीधा हमला बोला जाता है कि उनकी वजह से केन्द्र सरकार की योजनाओं का लाभ प्रदेश के गरीबों और दलितों को नहीं मिल पा रहा है। केन्द्र का पैसा लखनऊ के आगे नहीं पहुँच पा रहा है। यह मूर्तियों, स्मारकों और पत्थरों पर बर्बाद किया जा रहा है। अपने इस तरह के आरोप के द्वारा राहुल गाँधी का मायावती को उनके गढ़ में जाकर घेरना है।

यही मायावती के लिए चिन्ता का मुख्य विषय है क्योंकि दलित ही बसपा के मुख्य सामाजिक आधार हैं। इस आधार पर एकाधिकार तक का दावा रहा है। इसी के बूते मायावती दूसरे दलों के साथ सौदेबाजी करती रही हैं। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री का दावा भी उनके द्वारा पिछले चुनाव में पेश हुआ था तो आधार यही था। प्रदेश में घटनाक्रम का विकास जिस तरह से हो रहा है, उससे इस एकाधिकार को चुनौती मिली है। यह देखने में आया है कि मायावती के ‘बहुजन’ से ‘सर्वजन’ की यात्रा की वजह से दलितों के अन्दर बहनजी व बसपा के प्रति जो प्रतिबद्धता थी, उसमें ह्रास हुआ है। बसपा की पिछली रैली को लेकर दलितों में बहुत उत्साह नहीं दिखा। बल्कि राजनीतिक हलके में इसे मायावती का फ्लाप शो माना जा रहा है।

इसने मायावती को पुनर्विचार के लिए अवश्य बाध्य किया है। प्रतिक्रियास्वरूप वे अपनी जड़ों की तरफ लौटने का आभास देती जरूर नजर आती हैं। लेकिन वे बहुजन और सर्वजन के जिस भँवरजाल में फँस चुकी हैं, उनके लिए इससे निकलना आसान नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के द्वारा उनके सामाजिक आधार में पैठ बनाना उन्हें कैसे बरदाश्त हो सकता है। इसीलिए वे भी कांग्रेस को महिला आरक्षण विधेयक के वर्तमान स्वरूप को लेकर घेरती हैं और कांग्रेस को दलित विरोधी मानसिकता वाली पार्टी करार देते हुए उस पर प्रहार करती हैं। कांग्रेस पर दलित नायकों को उपेक्षित करने का आरोप लगाते हुए मायावती अपनी सरकार द्वारा दलित नायकों की मूर्तियाँ लगाने और उनके नाम पर स्मारक बनाने को ऐतिहासिक कार्य के रूप में स्थापित करते हुए इसके औचित्य का तर्क पेश करती हैं।

इस तरह कांग्रेस और बसपा के बीच छिड़ी यह जंग आरोप और प्रत्यारोप के दायरे से बाहर नहीं निकल पा रही है। यहाँ दलित सवालों को लेकर न तो तो कोई स्वस्थ व समग्र दृष्टिकोण है और न ही कोई सार्थक बहस है। कुलमिला कर अपने को बड़ा दलित हितैषी और दूसरे को उतना ही दलित-गरीब विरोधी साबित करने में सारी ऊर्जा खत्म की जा रही है। अम्बेडकर भी यहाँ महत्वहीन हैं। कांग्रेस के लिए वे मात्र दिखावे और राजनीतिक इस्तेमाल के लिए हैं तो बसपा के लिए वे मूर्तियों में कैद हैं। उनके रेडिकल विचारों से इनका कोई लेना-देना नहीं है।

हकीकत यह है कि आजादी के बाद के पिछले 63 सालों में तमाम योजनाओं के बावजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में दलित और आदिवासी समाज में सबसे नीचे बने हुए हैं। भूमि सुधार के अधूरे कार्य विषय पर गठित आयोग के अनुसार 80 प्रतिशत दलित और 90 प्रतिशत आदिवासी भूमिहीन हैं। इनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह जिन विकास नीतियों पर केन्द्र की कांग्रेस और प्रदेश की बसपा सरकारों के द्वारा अमल किया गया है, उसकी वजह से गाँव उजड़ रहे हैं और विस्थापितों के पुनर्वास की इन सरकारों के पास कोई योजना नहीं है। किसानों से खेती की जमीन छीनी जा रही है और कारपोरेट जगत को औने-पौने दामों में सौंपा जा रहा है। वन अधिकार कानून के बावजूद इस अधिकार से दलित-आदिवासी वंचित हैं। अपनी ही समितियों की रिपोर्ट को दरकिनार कर सरकार कहती है कि देश में 28 प्रतिशत गरीब हैं और इसी आधार पर गरीबी की रेखा का निर्धारण हो रहा है। गरीबों और दलितों के नाम पर बनी योजनाएँ भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हैं। यहाँ काँग्रेस की उदारवादी आर्थिक नीतियों के सवाल पर बसपा की उससे पूरी एकता है। मायावती उसी रास्ते पर है जिसकी रचनाकार स्वयं कांग्रेस है।

जहाँ तक मायावती के शासन में दलितों, महिलाओं व कमजोर तबकों पर होने वाले हमलों की बात है, आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश अन्य राज्यों की तुलना में आगे है। मायावती सरकार के कार्यकाल के शुरुआती सोलह महीनों में आठ हजार से ज्यादा दलित उत्पीड़न की घटनाएँ दर्ज की गई हैं जिनमें पाच हजार दो सौ मामलों में पुलिस आरोप पत्र भी नहीं दाखिल कर पाई है।

प्रदेश में लोकतांत्रिक अधिकारों की हालत यह है कि मायावती सरकार को अपना विरोध बर्दाश्त नहीं। यहाँ भी कांग्रेस और बसपा में एका है। विरोध जताने और अपनी मांगों को बुलन्द करने के लिए जनता ना तो दिल्ली में संसद मार्ग तक पहुँच सकती है और न लखनऊ की विधान सभा तक। यदि किसी तरह पहुँच भी गयी तो वहाँ स्वागत के लिए लाठी, आंसूगैस, पानी की तेज बौछारें और जेल है। शान्तिपूर्ण धरना देने वालों को कांग्रेस सरकार ने बहुत पहले दिल्ली के वोट क्लब से दूर कर दिया। मायावती ने भी लखनऊ के गोमती तट पर खदेड़ दिया है। केन्द्र सरकार ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ चला रही है, वही मायावती राज में ‘माओवाद’ लोकतांत्रिक आन्दोलनों पर दमन का हथियार बन गया है। ये सारे मुद्दे राहुल गाँधी के ‘मिशन - 2012’ और कांग्रेस की संदेश यात्राओं से बाहर हैं।

दरअसल, हमारे यहाँ बहुजन, सर्वजन, हरिजन, दलित के नाम पर राजनीतिक गोटियाँ बहुत सेंकी गई हैं। बहुसंख्यक वंचित तबका आज भी हाशिए पर है। समाज के वे हिस्से जो प्रभावशाली वर्ग से आते हैं, बसपा के केन्द्र में आ गये हैं। इसमें दलितों में उभरा एक विशिष्ट तबका भी है। ये अपनी आर्थिक स्थिति, वर्ग चरित्र और व्यवहार में ‘अभिजन’ हैं। ये ‘अभिजन’ हमेशा से कांग्रेस की राजनीति के केन्द्र में रहे हैं। कांग्रेस इनकी सबसे बड़ी पोषक ओर संरक्षक रही है। इसीलिए उत्तर प्रदेश में कंग्रेस और बसपा के बीच जो घमासान मचा है, वह मात्र अखाड़े में दो पहलवानों के बीच का दंगल है। इनका दलितों के वास्तविक मुद्दों से कोई सरोकार नहीं है।

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