शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

‘रेवान्त’ का लोकार्पण:


मूल्यहीनता के इस दौर में
साहित्य जागरण का माध्यम बने

कौशल किशोर

कला और साहित्य दुनिया में सामाजिक
बदलाव के लिए चले राजनीतिक व सामाजिक आंदोलन का न सिर्फ आईना रहा है बल्कि वह बेहतर समाज के निर्माण के संघर्ष में
प्रेरक भी बनता रहा है। इतिहास में उदाहरणों की कमी नहीं है। फ्रांस की राज्य क्रान्ति हो या रूसी क्रान्ति, इस संदर्भ में साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। रूसी क्राति के संदर्भ में हम देखते हैं कि टाॅल्सटाय, गोर्की, चेखव के साहित्य ने जागरण का काम किया। टाॅल्सटाय के साहित्य को स्वयं लेनिन ने रूसी क्रान्ति का दर्पण कहा था। हमारा साहित्य भी राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ा रहा है तथा इस दौर में निकलने वाली ‘हंस’, ‘सरस्वती’, ‘विशाल भारत’, ‘चाँद’, ‘माधुरी’ आदि पत्रिकाओं की राष्ट्रीय जागरण में अग्रणी भूमिका रही है। यह उसकी भूमिका ही थी कि प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे च
लने वाली मशाल कहा था।

यह विचार साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के लोकार्पण के अवसर पर उभर कर आया। उŸार प्रदेश की राजधानी लखनऊ से डाॅ अनीता श्रीवस्तव के सम्पादन में अभी हाल में एक नई पत्रिका ‘रेवान्त’ का प्रकाशन शुरू हुआ हैै जिसके प्रवेशांक का लोकार्पण बीते दिनों यहाँ हिन्दी संस्थान में वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने किया। ‘निष्कर्ष’ के संपादक गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव इस पत्रिका के सलाहकार संपादक हैं। ‘रेवान्त’ की खासियत यह
है कि पत्रिका के सम्पादन से लेकर प्रबन्ध तक में महिलाओं की भूमिका है तथा यह उनके संयुक्त प्रयास का नतीजा है।

वैसे मौका तो लोकार्पण का था लेकिन साहित्य के सरोकार, उसके सामने चुनौतियाँ व संकट, आज के दौर में पत्र पत्रिकाओं की भूमिका - जैसे विषयों पर गंभीर चर्चा हुई। चर्चा में भाग लेने वालों में गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, वीरेन्द्र यादव, चन्द्रेश्वर, डाॅ स्वरूप कुमारी बख्शी, डाॅ शान्तिदेव बाला, शैलेन्द्र सागर और शिवमूर्ति प्रमुख थे।

वक्ताओं का कहना था कि आजादी के बाद सŸार के दशक में हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत हुई थी। सेठाश्रयी पत्रिकाओं के वर्चस्व तथा साहित्य में व्यवसायिकता के विरुद्ध यह आंदोलन था जिसका मुख्य स्वर व्यवस्था विरोध का था। उस दौर में निकलने वाली उŸारार्द्ध, समारम्भ, वाम, पहल, युगपरिबोध, आमुख आदि पत्रिकाओं ने न सिर्फ साहित्य को सोद्देश्य बनाया बल्कि नई रचनाशी
लता को भी सामने लाने का काम किया। ये पत्रिकाएँ आन्दोलन से जुड़ी थीं तथा इनकी वैचारिक दिशा स्पष्ट थी।

इस मौके पर लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं की भी चर्चा हुई। यशपाल जी द्वारा शुरू की गई ‘विप्लव’ को लोगों ने खास तौर से याद किया। सŸार के दशक में शेषमणि पाण्डेय और शरद ने ‘अर्थ’ तथा विनोद भरद्वाज ने ‘आरम्भ’ निकाली थीं। इमरजेन्सी के दौरान ही लखनऊ से ‘परिपत्र’ का प्रकाशन शुरू हुआ था। गोपाल उपाध्याय ने ‘उत्कर्ष’ तथा मुद्राराक्षस ने ‘बेहतर’ निकाल कर कुछ बेहतर करने की कोशिश की थी। वीरेन्द्र यादव ने ‘प्रयोजन’ तथा अजय सिंह व कौशल किशोर ने आठवें दशक में ‘जन संस्कृति’ का प्रकाशन शुरू किया था। इन दोनों पत्रिकाओं ने संगठक का काम भी किया तथा लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ तथा जन संस्कृति मंच को संगठित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

वक्ताओं का कहना था कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में हमारे समाज पर बाजारवाद व उपभोक्तावाद का प्रभाव है। साहित्य को भी इसी नजरिये से देखने की प्रवृति बढ़ी है। वर्तमान में कोई सशक्त आंदोलन भी नहीं है जो साहित्य को प्रेरित कर रहा हो। आज लघुु पत्रिका जैसा आन्दोलन भी नहीं है। इसीलिए आज के दौर में निकल रही साहित्यिक पत्रिकाओं को लघु पत्रिकाओं की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता लेकिन आज की रचनाशीलता तथा उत्कृष्ट साहित्य इन्हीं पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आ रहा है। प्रकाशन व वितरण के ढ़ांचे को इसने ज्यादा व्यवस्थित किया है।
यह बात भी उभर कर आई कि पत्रिका निकालना तथा उसकी निरन्तरता को बनाये रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। पत्रिका के लिए संसाधन जुट जाते हैं तो अगली समस्या अच्छी व बेहतर रचना की आती है। आज राजनीति के क्षेत्र में जिस तरह मूल्यहीनता व अवसरवाद बढ़ा है, उससे समाज में दिशाहीनता व विकल्पहीनता आई हैे। ऐसे में साहित्यिक पत्रकारिता की भूमिका ज्यादा कारगर हो सकती है और वह सांस्कृतिक जागरण का माध्यम बन सकता है।

वक्ताओं का यह भी कहना था कि आज लखनऊ से ‘तदभव’, ‘निष्कर्ष’, ‘लमही’, ‘कथाक्रम’ आदि कई पत्रिकाएँ निकल रही हैं। ‘रेवान्त’ को उस क्षेत्र पर केन्द्रित करना चाहिए जो क्षेत्र इनसे छूट रहे हैं। इस संदर्भ में यह सुझाव भी आया कि इसे मात्र कविता, कहानी व साहित्य के विषयों तक अपने को सीमित न रखकर राष्ट्रीय जीवन और समाज पर असर डालने वाले विषयों पर भी फोकस करना चाहिए जैसे दलित उत्पीड़न, महिलाओं पर बढ़ती हिंसा, भ्रष्टाचार, नागरिक व लोकतांत्रिक अधिकरों पर बढ़ते हमले आदि। वैसे आज महिलाओं की साहित्यिक पत्रिका का अभाव है। ‘रेवान्त’ की सम्पादक इस दिशा में भी सोच सकती हंै।

‘रेवान्त’ की सम्पादक अनीता श्रीवास्तव ने लोकार्पण के अवसर पर पत्रिका के सम्बन्ध में आये सुझाावों का स्वागत किया और कहा कि इसी आलोक में पत्रिका को बेहतर बनाने की वे कोशिश करेंगी। कार्यक्रम का संचालन कवि कौशल किशोर ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन दिया कवयित्री सुशीला पुरी ने।

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मो - 09807519227


शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

सीमा आजाद कब होगी आजाद ?


कौशल किशोर

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन केः जहाँ
चली है रस्म केः कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नजर चुरा के चले वो जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

आज मुल्क की हालत कमोबेश ऐसी ही है, जैसा फैज अपनी इस नज्म में बयान कर रहे हैं। करीब साठ साल पहले हमने संविधान लागू किया था। उसके कुछ मूलभूत आधार तय किये गये थे। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवाद की राह पर चलने का वायदा तथा इसी राह पर चलकर समतामूलक समाज बनाना लक्ष्य था। परन्तु इस संविधान में ऐसे भी कानून मौजूद थे तथा आजादी के बाद के सŸााधारियों ने लगातार ऐसे कानून बनाते चले गये जो हमारे लोकतंत्र की राह को तंग करने वाले थे। हमारा लोकतंत्र और देश आज इसी तंग गली में फँस चुका है। यह गली तानाशाही और फासीवाद की ओर जाती है। यहाँ सर उठाकर चलने की मनाही है। असहमति की जगहें सिमटती जा रही हैं। विरोध को सुनने.समझने की सहिष्णुता खत्म होती जा रही है। बर्दाश्त करिये और चुप रहिए, अपने को बचाकर चलिए और दुम हिलाइये - इसी संस्कृति की वकालत की जा रही है।

हकीकत तो यह है कि हमारे शासकों ने जिन नीतियों पर अमल किया है, उनसे अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। सŸाा और सम्पति से बेदखल गरीबों का कोई पुरसाहाल नहीं है। अपने हक और अधिकार से वंचित ये वो सताये हुए लोग है जिनके श्रम से देश चलता है। पर यदि ये अपने हक की बात करें तो इनके विरुद्ध शासन की बन्दूकें हैं, सŸाा का जुल्मों-सितम है। आज ऐसी व्यवस्था है जहाँ साम्प्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कॉरपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी, बाहुबली व माफिया सŸाा की शोभा बढ़ा रहे हैं, सम्मानित हो रहे हैं, देशभक्ति का तमगा पा रहे हैं, वहीं इनका विरोध करने वाले, सर उठाकर चलने वालों को देशद्रोही कहा जा रहा है, उनके लिए उम्रकैद है, जेल की काल कोठरी है। उŸार प्रदेश की जेल की ऐसी ही काल कोठरी में लेखक, पत्रकार व मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद अपने पति विश्वविजय के साथ कैद हैं। इस साल 6 फरवरी को इनकी कैद का एक साल पूरा हो गया। ये कब आजाद होंगे, इस काल कोठरी से कब बाहर आयेंगे, कोई नहीं बता सकता।

पिछले साल 6 फरवरी के दिन सीमा आजाद को विश्वविजय और उनकी साथी आशा के साथ इलाहाबाद में गिरफ्तार किया गया था। वे दिल्ली पुस्तक मेले से लौट रही थीं। उनके पास मार्क्सवादी व वामपंथी साहित्य था। अभी वे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरी ही थीं कि उन्हें उŸार प्रदेश पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स ने हिरासत में ले लिया। उनकी यह गिरफ्तारी गैरकानूनी गतिविधि ;निरोधकद्ध कानून के तहत की गई। पुलिस का आरोप था कि इनके माओवादियों से सम्बन्ध हैं तथा ‘राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध’ भड़काने जैसी गैरकानूनी गतिविधियों व क्रियाकलाप में लिप्त हैं। इसी आधार पर पुलिस अपनी कार्रवाई को सही ठहराती है। न्यायालय भी कहीं न कही पुलिस के आरोप से सहमत है क्योंकि उसने भी सीमा आजाद की याचिका को नामंजूर कर दिया है।

तब हमारे लिए यह स्वाभाविक सवाल है कि क्या सीमा आजाद की गतिविधियाँं व क्रियाकलाप गैरकानूनी व संविधान विरुद्ध हैं ? पुलिस के जो आरोप हैं तथा न्यायालय भी जिनसे सहमत दिखता है, उनका आधार क्या है ? इनकी सच्चाई क्या है ? पुलिस और न्यायालय द्वारा जो कार्रवाई की गई है, वह कहाँ तक न्यायसंगत है या फिर क्या पुलिस द्वारा मात्र बदले की भावना से की गई कार्रवाई है ?

इस सम्बन्ध में जो तथ्य सामने आये हैं, उनका उल्लेख करना जरूरी है। सीमा आजाद द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ की सम्पादक तथा पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी ;पी यू सी एलद्ध उŸार प्रदेश के संगठन सचिव के बतौर नागरिक अधिकार आंदोलनों से जुड़ी समाजिक कार्यकर्ता रही हैं। सीमा आजाद के पति छात्र आंदोलन और इंकलाबी छात्र मोर्चा के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं। ये लोकतांत्रिक संगठन हैं जिनसे ये जुड़े हैं। सीमा आजाद के लिए लेखन व पत्रकारिता शौकिया न होकर अन्याय व जुल्म के खिलाफ लड़ने का हथियार रहा है। उनकी पत्रिका ‘दस्तक’ का मकसद भी यही रहा है। सीमा आजाद ने जिन विषयों को अपने लेखन, पत्रकारिता, अध्ययन तथा जाँच का आधार बनाया है, वे पूर्वी उŸार प्रदेश में मानवाधिकारों पर हो रहे हमले, दलितों खासतौर से मुसहर जाति की दयनीय स्थिति, पूर्वी उŸार प्रदेश में इन्सेफलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारी से हो रही मौतों व इस सम्बन्ध में प्रदेश सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति, औद्योगिक नगरी कानपुर के कपड़ा मजदूरों की दुर्दशा, प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी योजना गंगा एक्सप्रेस द्वारा लाखों किसान जनता का विस्थापन आदि रहे हैं।

गौरतलब है कि सीमा आजाद और विश्वविजय का कार्यक्षेत्र इलाहाबाद व कौसाम्बी जिले का कछारी क्षेत्र रहा है जहाँ माफिया, राजनेता व पुलिस की मिलीभगत से अवैध तरीके से बालू खनन किया जा रहा है तथा इनके द्वारा काले धन की अच्छी.खासी कमाई की जा रही है। इस गठजोड़ द्वारा खनन कार्यों में लगे मजदूरों का शोषण व दमन यहाँ का यथार्थ है तथा इस गठजोड़ के विरोध में मजदूरों का आन्दोलन इसका स्वाभाविक नतीजा है। मजदूरों के इस आंदोलन को दबाने के लिए उनके नेताओं पर पुलिस.प्रशासन द्वारा ढ़ेर सारे फर्जी मुकदमें कायम किये गये, नेताओं की गिरफ्तारियाँ हुईं और इन पर तरह तरह के दमन ढ़ाये गये। सीमा आजाद इस आन्दोलन से जुड़ी थीं। उन्होंने न सिर्फ इस अवैध खनन का विरोध किया बल्कि यहाँ हो रहे मानवाधिकार के उलंघन पर जोरदार तरीके से आवाज उठाया।

इसी दौरान एक घटना और हुई। नवम्बर 2009 में नक्सली नेता कमलेश चौधरी की पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई थी। सीमा आजाद अपने पति विश्वविजय के साथ मिलकर इस हत्या के खिलाफ विरोध संगठित किया और मानवाधिकार कार्यकर्ता की हैसियत से उन्होंने सरकार से इसकी जाँच की माँग की। पी यू सी एल की उŸार प्रदेश शाखा की संगठन मंत्री की हैसियत से सीमा आजाद ने अपने साथी के0 के0 राय के सहयोग से कौसाम्बी के नन्दा का पुरा गाँव में मानवाधिकार हनन पर रिपोर्ट जारी किया था। इस गाँव में पुलिस व पीएसी द्वारा ग्रामीणों पर बर्बर लाठी चार्ज किया गया था जिसमें सैकड़ों मजदूर घायल हुए थे। सीमा आजाद और विश्वविजय उन लोगों में रहे हैं जिन्होंने सेज से से लेकर ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ का लगातार विरोध किया और वैश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण के खिलाफ मोर्चा खोला। अपनी गिरफ्तारी से कुछ ही दिन पूर्व उन्होंने ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ के विरुद्ध एक पुस्तिका प्रकाशित किया था जिसमें अरुंधती राय, गौतम नवलखा, प्रणय प्रसून बाजपेई आदि के लेख संकलित हैं।

ये ही सीमा आजाद और उनके साथी विश्वविजय के क्रियाकलाप और उनकी गतिविधियाँ हैं जिन्हे ‘राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध’ की संज्ञा देते हुए पुलिस.प्रशासन द्वारा इन्हें नक्सली व माओवादी होने के आधार के रूप में पेश किया जा रहा है। यही नहीं, इनके माओवादी होने के लिए पुलिस ने कुछ और तर्क दिये हैं। जैसे, पुलिस का कहना है कि ये ‘कामरेड’ तथा ‘लाल सलाम’ का इस्तेमाल करते हैं जबकि यह सर्वविदित सच्चाई है कि सभी कम्युनिस्ट र्पािर्टयों तथा उनके संगठनों में ‘कामरेड’ संबोधन तथा ‘लाल सलाम’ अभिवादन के रूप में आमतौर पर इस्तेमाल होता है। यदि पुलिस.प्रशासन के इस तर्क को माओवादी होने का आधार बना दिया जाय तो सारे वामपंथी संगठन माओवादियों की परिधि में आ जायेंगे। इसी तरह का तर्क सीमा आजाद के पास से मिले वामपंथी व क्रान्तिकारी साहित्य को लेकर भी दिया गया। उल्लेखनीय है कि ऐसा साहित्य आमतौर पर सारे कम्युनिस्ट नेताओं.कार्यकर्ताओं से लेकर वामपंथी बुद्धिजीवियों के यहाँ मिलेंगे। पुलिस यह बताने में असफल रही है कि वहाँ बरामद साहित्य में कौन सा साहित्य प्रतिबंधित है।

ऐसे ही आरोप पुलिस द्वारा डॉ विनायक सेन पर भी लगाये गये थे तथा इनके पक्ष में पुलिस की ओर से जो तर्क पेश किये गये, वे बहुत मिलते.जुलते हैं। माओवादियों से सम्बन्ध, राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध तथा राजद्रोह जैसे आरोपों के तहत ही विनायक सेन को 14 मई 2007 को गिरफ्तार किया गया था। करीब दो साल तक साधारण कैदियों से भी बदतर हालत में जेल में रखा गया। छŸाीसगढ़ की उच्च न्यायालय तक ने उनकी जमानत को नामंजूर कर दिया था। यह तो सर्वाेच्च न्यायालय है, जिसके हस्तक्षेप से उन्हें जमानत दी गई। उन पर सितम्बर 2008 से मुकदमा चला और बीते साल के 24 दिसम्बर को उस मुकदमें के तहत छŸाीसगढ़ की निचली अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई। सीमा आजाद के सम्बन्ध में भी यही नीति अपनाई जा रही है तथा उनके मुकदमें की दिशा भी यही है। इसीलिए ऐसा लगता नहीं कि सीमा आजाद को न्यायालय से जल्दी कोई राहत मिलने वाली है।

देखा जा रहा है कि सरकारों द्वारा नक्सलवाद व माओवाद लोकतांत्रिक आवाजों को दबाने.कुचलने का हथकण्डा बन गया है तथा जन आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं पर राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध भड़काने, राजद्रोह, देशद्रोह जैसे आरोप आम होते जा रहे है। छŸाीसगढ़ की भाजपा सरकार द्वारा लोकतांत्रिक व मानवाधिकारों को दबाने का जो प्रयोग शुरू किया गया था, उŸार प्रदेश और अन्य राज्यों की सरकारों द्वारा उसी नुस्खे को अमल में लाया जा रहा है।

ऐसे लोगों की एक लम्बी सूची है जो इस प्रयोग के शिकार हैं। अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ के देहरादून संवाददाता प्रशान्त राही को गिरफ्तार तो उनके निवास से किया गया लेकिन पुलिस द्वारा खबर यह दी गई कि उन्हें हंसपुर खŸाा के जंगलों से पकड़ा गया तथा उनके बारे में यह प्रचारित किया गया कि वे माओवादियों के ‘जोनल कमाण्डर’ हैं। प्रशान्त राही आज भी जेल में हैं। इसी तरह मजदूर किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष तथा ‘प्रेरणा संदेश’ के संपादक प्रताप सिंह को भी ऊधमसिंह नगर में गिरफ्तार किया गया। अपने क्षेत्र में मास्टर साहब के नाम से लोकप्रिय प्रताप सिंह के बारे में पुलिस द्वारा यह आरोप गढ़ा गया कि ये माओवादियों को हथियारों की ट्रेनिंग देते हैं। बाद में ठोस सबूत के अभाव में अवैध तरीके से हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने उन्हें रिहा कर दिया। इसी साल महाराष्ट्र के नक्सल विरोधी दस्तें ने मराठी के प्रमुख संस्कृतिकर्मी और मराठी पत्रिका ‘विद्रोही’ के सम्पादक सुधीर ढावले को उस समय गिरफ्तार किया जब वे अम्बेडकर युवा साहित्य सम्मेलन से वापस लौट रहे थे। उनके ऊपर देशद्रोह का आरोप लगाया गया तथा उनकी यह गिरफ्तारी गैर कानूनी गतिविधि निरोधक कानून के तहत की गई।

सीमा आजाद ऐसे ही लागों में शामिल हैं। सीमा आजाद की जिन गतिविधियों और क्रियाकलाप को गैरकानूनी कहा जा रहा है, वे कहीं से भी भारतीय संविधान द्वारा अपने नागरिकों को दिये गये अधिकारों के दायरे से बाहर नहीं जाती हैं बल्कि इनसे सीमा आजाद की जो छवि उभरती है वह आम जनता के दुख.दर्द से गहरे रूप से जुड़ी और उनके हितों के लिए संघर्ष करने वाली लेखक, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता की है। यह ऐसी छवि है जिस पर शोषित.पीड़ित समाज गर्व करता है। बेशक ये गतिविधियाँ सŸाा और समाज के माफिया सरदारों व बाहुबलियों के हितों के विरुद्ध जाती हैं और इनसे निहित स्वार्थी तत्वों के हितों पर चोट पड़ती है। इसीलिए लोकतांत्रिक समाज, मानवाधिकार संगठन, बुद्धिजीवी, लेखक आदि मानते हैं कि सीमा आजाद पर जो आरोप गढ़े गये हैं तथा गैरकानूनी गतिविधि ;निवारकद्ध कानून के तहत जो गिरफ्तारी की गई है, वह दमन के उद्देश्य से तथा बदले की भावना से की गई कार्रवाई है। इस तरह की कार्रवाई के द्वारा सरकार उन लेखकों, बुद्धिजीवियों व मानवाधिकारवादियों को भी नियंत्रित रहने का संदेश देना चाहती है जो सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों का विरोध करते हैं, दमन.उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाते हैं तथा प्रतिपक्ष का निर्माण करते हैं।

लेकिन यह सŸाा का भ्रम है कि दमन से वह विरोध की आवाज को दबा देगी। देखा यही गया है कि दमन ने हमेशा प्रतिरोध का रूप लिया है तथा प्रतिरोध के अत्मबल को बढ़ाया है। ऐसा हम सीमा आजाद के संदर्भ में भी देखते हैं। पिछले दिनों हिन्दी कवि नीलाभ को लिखे अपने पत्र में सीमा आजाद ने अपने बारे में कहा है - ‘मै और विश्वविजय दोनों सकुशल से हैं तथा जेल से बाहर आने का इंतजार करते हुए हमने अच्छा.खासा अनुभव हसिल किया है। एक बात हमने साफतौर महसूस किया है, वह है कि दमन आदमी को मजबूत, अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ तथा और अधिक संघर्षशील व जुझारू बनाता है। इस सम्बन्ध में दुनिया की सरकारें बड़े भ्रम में जीती हैं और हमारी सरकार भी। हमने महसूस किया है कि सामाजिक परिवर्तन की हमारी इच्छा को सरकार दबा नहीं सकती बल्कि सरकार के उत्पीड़न की इस तरह की कार्रवाई कालिदास की उस कथा की तरह है जिसमें सरकार पेड़ की उस डाल को ही काट रही है जिस पर वह बैठी है।’

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गुरुवार, 6 जनवरी 2011

सफदर की याद में ‘चौराहे पर’ नाटक




कौशल किशोर
नये साल का पहला दिन है। चारो तरफ कोहरा फेैला है। हाड़ कंपाती ठंढ़ी हवा हड्डियों को छेद रही है। गोमती नदी के किनारे शहीद स्मारक पर इस ठंढ व कोहरे का असर कुछ ज्यादा ही है। पर इस क्रूर मौसम की तरफ से बेपरवाह नगाड़े की ढम..ढम.. और ढपली पर थाप देते अमुक अर्टिस्ट ग्रुप के कलाकार अनिल मिश्रा ’गुरूजी’ के नेतृत्व में शहीद स्मारक पर जुटे हैं। इनके द्वारा नुक्कड़ नाटक ‘मुखौटे’ का मंचन होना है। कलाकारों के हाथों में जो बैनर है, उस पर लिखा है ‘हम सब सफदर, हमको मारो’। कलाकार अपने नाट्य प्रदर्शन के माध्यम से हमें याद दिलाते हैं कि पहली जनवरी के दिन ही सफदर हाशमी शहीद हुए थे। सफदर आज नहीं हैं, पर वह सांस्कृतिक संघर्ष आज भी जारी है। अपने नाटक ‘मुखौटे’ के द्वारा कलाकार हमें यह आभास देते हैं कि हम जिस संस्कृतिक अंधेरे में जी रहे हैं, वह मौसम के कोहरे से कही ज्यादा घना है। जरूरत तो कला को मशाल बनाने की है जो इस अंधेरे को चीर सके।

ऐसी ही प्रतिबद्धता और विपरीत परिस्थितियों से जूझने का साहस ही नुक्कड़ नाटकों को अन्य कला विधाओं से अलग करता है। रंगमंचीय तामझाम से दूर, थोड़ी-बहुत साज-सज्जा के साथ बिल्कुल छापामार तरीके से कलाकारों का किसी चौराहे, नुक्कड़, मुहल्ले, स्ट्रीट कार्नर या किसी जन संकुल क्षेत्र में इक्ट्ठा होना और अपने अभिनय द्वारा जन जागृति का संदेश देना - नुक्कड़ नाटक की यही पहचान है। आंदोलनों से ऊर्जा लेना तथा अपनी कला द्वारा आंदोलनों को गति देना, यह नुक्कड़़ नाटक की खासियत है। कहा जाय तो नुक्कड़ नाटकों का जन्म जन आंदोलनों से जुड़ी कला विधा के रूप में तथा नाटक को जनता तक पहुँचाने की जरूरत के रूप में हुआ।

सŸाा और मौजूदा व्यवस्था पर प्रहार, चुटीले व्यंग्य के पुट, चुस्त व छोटे संवाद और गतिशील अभिनय के द्वारा नुक्कड़ नाटक दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ता है। 70 के दशक में हम जन आंदोलनों का उभार देखते हैं और यही वह उर्वर जमीन है जिस पर नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन परवान चढ़ा। इस कला विधा ने शोषक सŸाा, तंत्र, भ्रष्ट राजनीति व नेता, पुलिस-प्रशासन को अपना निशाना बनाया। इसीलिए कलाकारों को मालिकों, नेताओं, उनके गुण्डों और पुलिस-प्रशासन के हमले का शिकार होना पड़ा। करीब दो दशक पहले एक जनवरी 1989 को साहिबाबाद ;गाजियाबादद्ध में नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ का मंचन करते समय राजनीतिक गुण्डों द्वारा सफदर हाशमी और उनके एक कलाकार साथी की हत्या कर दी गई। तब से सफदर शहादतों की परम्परा के ऐसे नायक बनकर उभरे है जिनसे नुक्कड़ नाटक करने वाले कलाकार आज भी प्रेरणा लेते हैं और हर साल की पहली तारीख को नाटक कर यह अहसास दिलाते है कि उनकी याद आज भी हमारे दिलों में जिन्दा है। इसी तरह के हमलों का शिकार नुक्कड़ नाटक के कलाकारों को जगह.जगह होना पड़ा है।

जहाँ तक लखनऊ की बात है, यहाँ नुक्कड़ नाटकों की शुरूआत इमरजेन्सी के ठीक बाद हो गई थी। शहर में कई संस्थाएँ थीं जो नुक्कड़ नाटक करती थीं। कलम, साऊनाप, नवचेतना, जन संस्कृति मंच, इप्टा, मशाल आदि नाट्य संस्थाएँ अस्तित्व में आईं और ‘मशीन’, ‘औरत’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘जनता पागल हो गई है’, ‘रंगा सियार’, ‘हल्ला बोल’, ‘समरथ को नहिं दोष गोंसाई’ जैसे दर्जनों नाटक यहाँ मंचित हुए। शहर का शायद ही कोई चौराहा, मजदूर बस्ती, फैक्ट्री गेट या मोहल्ला बचा हो जहाँ नुक्कड़ नाटक न हुए हों।



लखनऊ में भी कलाकारों को भी दमन का सामना करना पड़ा। भगत सिंह शहादत दिवस की 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर 1981 में ‘नवचेतना’ के कलाकारों - आदियोग, कुमार सौवीर, सुप्रिय लखनपाल आदि के सीने पर निशातगंज में पुलिस के सिपाही ने भरी बन्दूक की नाल रख दी थी। ‘नवचेतना’ के कलाकार गुरुशरण सिंह द्वारा शहीद भगत सिंह के जीवन और विचारधारा पर लिखा नाटक ‘इंकलाब जिंदाबाद’ खेलना चाहते थे। निशातगंज पुलिस की जिद थी कि बिना जिला प्रशासन की अनुमति के वे नाटक नहीं होने देंगे। लेकिन जनता के भारी विरोध के आगे पुलिस को पीछे हटना पड़ा और बड़ी संख्या में लोगों ने उस नाटक को देखा।

इसी तरह की एक घटना लखनऊ महोत्सव के दौरान हुई। महिफल संस्था द्वारा आयोजित लघु नाटक समारोह में जब जन संस्कृति मंच के कलाकार ‘जनता पागल हो गई है’ का मंचन कर रहे थे, तत्कालीन लखनऊ पुलिस अधीक्षक ब्रज लाल ने कलाकारों को गिरफ्फ्तार कर लिया। उन्हे रातभर हजरतगंज कोतवाली में रखा गया। उन्हीं दिनों एक घटना स्कूटर्स इण्डिया गेट पर हुई थी। वहाँ के मजदूर आंदोलन के समर्थन में ‘मशाल’ के कलाकार ‘रंगा सियार’ नाटक कर रहे थे। उसी दौरान कुछ विरोधी व अराजक तत्वों द्वारा कलाकारों व दर्शकों पर पथराव किया गया जिसमें कई कलाकार व दर्शक घायल हो गये।

यहाँ इन चन्द घटनाओं का उल्लेख करने के पीछे मकसद मात्र यही बताना है कि लखनऊ जैसे शहर में भी नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन ने आंदोलन का रूप ले लिया था और 80 से लेकर 90 के बीच यह अत्यन्त लोकप्रिय कला माध्यम था जिसे जनता के बीच अच्छी.खासी लोकप्रियता हासिल थी। इसे नुक्कड़ नाट्य आंदोलन का असर ही कहा जायेगा कि रंगमंच से जुड़े कई कलाकार व निर्देशक भी उन दिनों नुक्कड़ नाटक से जुड़ गये जिनमें आतमजीत सिंह प्रमुख थे।
पर आज नुक्कड़ नाटकों की हालत वैसी नहीं है। कोई आंदोलन नहीं है। यहाँ सन्नाटा जैसी स्थिति दिखाई पड़ती है। आमतौर पर नुक्कड़ों पर नाटक के नाम पर जो प्रदर्शन हो रहा है, उसका नुक्कड़ नाटक से कुछ भी लेना देना है। इस लोकप्रिय कला माध्यम का उपयोग आज सरकारी-गैरसरकारी कम्पनियों व संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है जिनका मकसद अपने उत्पाद व कार्यक्रम का प्रचार करना है। जहाँ तक सŸाा व व्यवस्था के चरित्र की बात है, वह कहीं से भी जन पक्षधर नहीं हुई है। बल्कि उसका चरित्र और भी जन विरोधी हुआ है। फिर नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में पसरा ऐसा सन्नाटा क्यों ? यह प्रतिबद्ध कलाकारों के समक्ष सवाल भी है और चुनौती भी।

अनिल मिश्रा ‘गुरूजी’ ऐसे ही कलाकार हैं जो इस चुनौती को साहस पूर्वक स्वीकार करते हैं। जहाँ कई कलाकार नुक्कड़ नाटक की जगह रंगमंच की ओर मुड़ गये या अपनी आजीविका के लिए सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं में चले गये, वहाँ गुरूजी मजबूती के साथ नुक्कड़ नाटक से जुड़े हैं। नुक्कड़ नाटक क्षेत्र में नये नाट्यालेख के अभाव ने उन्हें स्वयं नाट्य लेखन की ओर उन्मुख किया। गुरुशरण सिंह की तरह मंचन के साथ ही नाट्य लेखन का काम भी शुरू कर दिया। उन्होंने कई नाटक लिखे और उसका मंचन किया। उनके इन नाटकों का संग्रह ‘चौराहे पर’ शीर्षक से अभी हाल में प्रकाशित होकर आया है। इसमें उनके लिखे बारह नुक्कड़ नाटक संकलित हैं। इन नाटकों के मुख्य विषय पुलिस जुल्म, भ्रष्टाचार, मंहगाई, बलात्कार, राजनीतिक नेताओं का जनविरोधी चरित्र, संसदीय व्यवस्था का खोखलापन, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, बेरोजगारी आदि हैं। ये नाटक दर्शकों को मात्र समस्याओं से ही रु-ब-रु नहीं कराते बल्कि उन्हंे इनसे संघर्ष करने और इस व्यवस्था को बदलने के लिए भी प्रेरित करते हैं।

अनिल मिश्रा ‘गुरूजी’ के नुक्कड़ नाटकों के इस संग्रह का पिछले सप्ताह लखनऊ के हिन्दी संस्थान में वरिष्ठ कथाकार व नाटककार मुद्राराक्षस ने लोकार्पण किया। इस मौके पर ‘नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन’ विषय पर सेमिनार भी हुआ जिसे सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, आतमजीत सिंह, राजेश कुमार, आदियोग, मृदुला भरद्वाज, अनिल यादव, प्रतुल जोशी, कौशल किशोर आदि ने संबोधित किया। बड़ी संख्या में यहाँ नौजवान कलाकार जुटे थे। इस सेमिनार में नुक्कड़ नाटक को लेकर गंभीर चर्चा हुई और सभी ने माना कि यह विचार का आंदोलन है। यह न तो सरकारी-गैर सरकारी योजनाओं का प्रचार है और न राजनीतिक प्रचार का माध्यम है। यह नुक्कड़ की नई संस्कृति के निर्माण की कोशिश है जहाँ आदमी वर्ग, वर्ण, जाति, संप्रदाय के घेरे से बाहर निकलता है। यह उस जनता की आवाज है जो शोषित-उत्पीड़ित है तथा हाशिए पर डाल दी गई है।

आज का दौर ऐसा है जब दुनिया को युद्धों में झोंका जा रहा है, किसान आत्म हत्या कर रहे हैं, आम आदमी मंहगाई व बेरोजगारी से परेशान है, मानवाधिकारों पर हमले हो रहे हैं और शोषण व अन्याय पर आधारित इस पूँजीवादी व सम्राज्यवादी व्यवस्था को विकल्पहीन बताया जा रहा है तब नये विकल्पों की तलाश संस्कृति की अनिवार्यता बन गई है। नुक्कड़ नाटक जैसी विधा इन्ही विकल्पों को पेश करती है। भले ही यह आंदोलन आज ठहराव का शिकार हो लेकिन आज के हालात ने इस विधा के पुनर्जीवन के लिए फिर से जमीन तैयार कर दी है। अनिल मिश्रा ‘गुरूजी’ द्वारा लिखित नुक्कड़ नाटकों के संग्रह ‘चौराहे पर’ को एक नई शुरुआत माना जा सकता है। संभव है हमें आने वाले दिनों में न सिर्फ रंगमंच पर बल्कि नुक्कड़ों और चौराहों पर भी विचार और आंदोलन के ऐसे नाटक देखने को मिले जो आम आदमी की समस्याओं व संघर्ष की कहानी कहते हांे तथा उन्हें जागरूक बनाने वाले हों।

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मंगलवार, 30 नवंबर 2010

इरोम शर्मिला का संघर्ष : अंधियारे का उजाला

कौशल किशोर

इस साल नवम्बर में मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला की भूख हड़ताल के दस साल पूरे हो गये। तमाम अवरोधों और मुश्किलों के बावजूद उनकी भूख हड़ताल आज भी जारी है। इन दस वर्षों में उनका कृषकाय शरीर और जर्जर व कमजोर हुआ है। लेकिन कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करने वाली उनकी आन्तरिक ताकत और इच्छा-शक्ति बढ़ी है। यह अदम्य साहस से लबरेज मौत को धता बता देने वाली ताकत है। इसीलिए आज वे इस्पात की तरह न झुकने व न टूटने वाली मणिपुर की ‘लौह महिला’ के रूप में जानी जाती हैं।

इरोम शर्मिला सामाजिक कार्यकर्ता और कवयित्री हैं, भावनाओं व संवेदनाओं से भरी। उनके अन्दर खुले गगन में परिन्दों के विचरण जैसी भावना है। यह मात्र भावुकता नहीं है बल्कि यथार्थ की ठोस जमीन पर पका उनका विचार है जिसके मूल में दमन और परतंत्रता के विरुद्ध दमितो-उत्पीड़ितों द्वारा स्वतंत्रता की दावेदारी है: ‘कैदखाने के कपाट पूरे खोल दो/मैं और किसी राह पर नहीं जाऊँगी/ कांटो की बेड़ियाँ खोल दो’। यही वजह है कि आज वह सत्ता के दमन के विरुद्ध सृजन और संघर्ष की ही नहीं बल्कि हमारे जिन्दा समाज की पहचान बन गई हैं।

बात नवम्बर 2000 की है। इरोम शर्मिला मणिपुर की राजधानी इम्फाल से सटे मलोम में शान्ति रैली के आयोजन के सिलसिले में एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैण्ड पर सैनिक बलों द्वारा ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाई गई जिसमें करीब दस निरपराध लोग मारे गये। यह सब इरोम शर्मिला की आँखों के सामने हुआ। यह उनको आहत व व्यथित कर देने वाली घटना थी। वैसे यह कोई पहली घटना नहीं थी जिसमें सुरक्षा बलों ने नागरिकों पर गोलियाँ चलाई हो, दमन ढ़ाया हो पर इरोम शर्मिला के लिए यह दमन का चरम था। इस घटना के बाद इरोम के लिए शान्ति रैली निकाल कर सत्ता की कार्रवाइयों का विरोध अपर्याप्त या अप्रासंगिक लगने लगा। लिहाजा उन्होंने एलान किया कि अब यह सब बर्दाश्त के बाहर है। यह तो निहत्त्थी जनता के विरुद्ध सत्ता का युद्ध है। उन्होंने माँग की कि मणिपुर में लागू कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ्सपा) हटाया जाय। इस एक सूत्री माँग को लेकर उन्होंने नैतिक युद्ध छेड़ दिया और मलोम बस स्टैण्ड पर भूख हड़ताल शुरू कर दी जो आज दस साल बाद भी जारी है।

वैसे इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल का पिछला दस साल अत्यन्त जद्दोजहद से भरा रहा है। आरम्भ में मणिपुर सरकार ने उनकी भूख हड़ताल को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन उनकी भूख हड़ताल की खबर पूरे मणिपुर में जंगल की आग की तरह फैल गई। सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता उनके समर्थन में जुटने लगे। इस भूख हड़ताल की वजह से इरोम शर्मिला की हालत खराब होने लगी। उनकी जान बचाने का सरकार पर दबाव बढ़ने लगा। सरकार ने इरोम शर्मिला को गिरफ्तार कर लिया। उन पर आत्महत्या
करने का आरोप लगाते हुए धारा 309 के तहत कार्रवाई की गई और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। तब से वह लगातार न्यायिक हिरासत में हैं। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल का वह वार्ड जहाँ उन्हें रखा गया है, उसे जेल का रूप दे दिया गया है। वहीं उनकी नाक से जबरन द्रव्य पदार्थ दिया जा रहा है। इस तरह इरोम शर्मिला को जिन्दा रखने का ‘लोकतांत्रिक’ नाटक पिछले दस वर्षों से चल रहा है।

उल्लेखनीय है कि धारा 309 के तहत इरोम शर्मिला को एक साल से ज्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता। इसलिए एक साल पूरा होते ही उन्हे रिहा करने का नाटक किया जाता है। फिर उन्हें गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत के नाम पर उसी सीलन भरे वार्ड में भेज दिया जाता है और जीवन बचाने के नाम पर नाक से द्रव्य देने का सिलसिला चलाया जाता है। यह हमारे लोकतंत्र की विडम्बना ही है कि एक तरफ इरोम शर्मिला की जान बचाने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर उनके नाक से द्रव्य पदार्थ पहुँचाया जा रहा है, वहीं इरोम शर्मिला की माँग कि मणिपुर से आफ्सपा को हटाया जाय, इस कानून की वजह से जो पीड़ित हैं, उन्हें न्याय दिया जाय तथा जिम्मेदार सैनिक अधिकारियों को दण्डित किया जाय - जैसे मुद्दों पर विचार करने तक को सरकार तैयार नहीं।

दरअसल, इरोम शर्मिला जिस ‘आफ्सपा’ को हटाये जाने की माँग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं, उस कानून के प्रावधानों के तहत सेना को ऐसा विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके अन्तर्गत वह सन्देह के आधार पर बगैर वारण्ट कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है, किसी को गिरफ्तार कर सकती है तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकती है। यही नहीं, यह कानून सशस्त्र बलों को किसी भी दण्डात्मक कार्रवाई से बचाती है जब तक कि केन्द्र सरकार उसके लिए मंजूरी न दे। देखा गया है कि जिन राज्यों में ‘आफ्सपा’ लागू है, वहाँ नागरिक प्रशासन दूसरे पायदान पर पहुँच गया है तथा सरकारों का सेना व अर्द्धसैनिक बलों पर निर्भरता बढ़ी है। इन राज्यों में लोकतंत्र सीमित हुआ है, जन आन्दोलनों को दमन का सामना करना पड़ा है तथा सामान्य विरोध को भी विद्रोह के रूप में देखा गया है।

गौरतलब है कि जिन समस्याओं से निबटने के लिए सरकार द्वारा ‘आफ्सपा’ लागू किया गया है, देखने मे यही आया है कि उन राज्यों में इससे समस्याएँ तो हल नहीं हुई, बेशक उनका विस्तार जरूर हुआ है। पूर्वोतर राज्यों से लेकर कश्मीर, जहाँ यह कानून पिछले कई दशकों से लागू है, की कहानी यही सच्चाई बयान कर रही है। 1956 में नगा विद्रोहियों से निबटने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पहली बार सेना भेजी गई थी। तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित नेहरू ने संसद में बयान दिया था कि सेना का इस्तेमाल अस्थाई है तथा छ महीने के अन्दर सेना वहाँ से वापस बुला ली जायेगी। पर वास्तविकता इसके ठीक उलट है। सेना समूचे पूर्वोŸार भारत के चप्पे.चप्पे में पहुँच गई। 1958 में ‘आफ्सपा’ लागू हुआ और 1972 में पूरे पूर्वोŸार राज्यों में इसका विस्तार कर दिया गया। 1990 में जम्मू और कश्मीर भी इस कानून के दायरे में आ गया। आज हालत यह है कि देश के छठे या 16 प्रतिशत हिस्से में यह कानून लागू है।

लोकतांत्रिक और मानवाधिकार संगठनों ने जो तथ्य पेश किया है, उसके अनुसार जिन प्रदेशों में ‘आफ्सपा’ लागू है, वहाँ लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन हुआ है, राज्य का चरित्र ज्यादा दमनकारी होता गया है, जनता का सरकार और व्यवस्था से अलगाव बढ़ा है तथा लोगों में विरोध व स्वतंत्रता की चेतना ने आकार लिया है। द्वन्द्ववाद का नियम है कि जब जनता के अधिकारों का हनन होता है और दमन चरम की ओर बढ़ता है तो प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध की शक्तियाँ भी गोलबन्द होती हैं तथा संघर्ष की चेतना का प्रस्फुटन होता है। एक तरफ अपमान, बलात्कार, गिरफ्तारी व हत्या तो दूसरी तरफ तीव्र घृणा, आत्मदाह, आत्महत्या, असन्तोष व आक्रोश का विस्फोट - मणिपुर के पिछले पाच दशक का यथार्थ यही है। इरोम शर्मिला इसी यथार्थ की मुखर अभिव्यक्ति हैं।

मणिपुर की खासियत यह है कि इस राज्य की महिलाएँ सामाजिक व राजनीतिक संघर्षों में बढ़.चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। इनके अन्दर लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति काफी सजगता है। अतीत में अंग्रेजी साम्राज्य से लोहा लेना हो या सामाजिक अपराध, नशाबन्दी व मंहगाई के खिलाफ संघर्ष हो, मणिपुर की महिलाओं का अपना इतिहास है। आज के दौर में ये मानव अधिकारों की रक्षा के संघर्ष की अगली कतार में हैं। इस संदर्भ में 2004 में उनके द्वारा किये संघर्ष की चर्चा करना प्रासंगिक होगा। उनके आक्रोश और चेतना का विस्फोट हमें देखने को मिला जब असम राइफल्स के जवानों द्वारा थंगजम मनोरमा के साथ किये बलात्कार और हत्या के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने कांगला फोर्ट के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया। उन्होंने जो बैनर ले रखा था, उसमें लिखा था ‘भारतीय सेना आओ, हमारा बलात्कार करो’।

महिलाओं का यह विरोध मणिपुर ही नहीं देश के महिला आंदोलन के इतिहास में अनोखा है जो उनके अन्दर की आग से हमें परिचित कराता है। ये महिलाएँ ‘मीरा पेबिस आन्दोलन’ से जुड़ी थीं। ‘मीरा पेबिस’ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘मशाल थामें औरतें’। इरोम शर्मिला मणिपुर के इसी इतिहास और संघर्ष की परम्परा की कड़ी हैं। दस साल से जारी उनकी भूख हड़ताल वास्तव में जनता के प्रतिरोध की मशालें हैं जो एक तरफ सŸाा की क्रूरता और संवेदनहीनता को सामने लाती है तो दूसरी तरफ प्रतिरोध की उस क्षमता से हमें रु.ब.रु कराती है जो रक्त का एक बून्द भी नहीं बहाती परन्तु जिसकी मारक क्षमता असीमित है। इरोम शर्मिला के शब्दों में कहें तो यह ‘अंधियारे का उजाला’ है क्योंकि ‘इन्सानी जिन्दगी बेशकीमती है/इसके पहले कि मेरा जीवन खत्म हो/ होने दो मुझे अंधियारे का उजाला’।

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शनिवार, 10 जुलाई 2010

कविता

वह औरत नहीं महानद थी

कौशल किशोर

वह जुलूस के पीछे थी
उछलती फुदकती
दूर से बिल्कुल मेढ़क सी नजर आ रही थी

पर वह मेढ़क नहीं स्त्री थी
जुलूस में चलती हुई
नारे लगाती हुई
उसके कंधे से लटक रहा था झोला
जिसमें थीं कुछ मुड़ी तुड़ी रोटियाँ
एक ग्लास
कंघा और पानी की बोतल

पोलियोग्रस्त उसके पैर धड़ से चिपके थे
दो सियामी जुड़वाँ बहनों की तरह
वे धड़ के साथ उठते
उसी के संग बैठते
दोनों हाथ उसके पैर भी थे
इन्हीं पर अपने पूरे शरीर को उठाती
और आगे हवा में झटक देती

इसी तरह वह आगे बढ़ रही थी जुलूस में
इसी तरह उसने रेलवे स्टेशन के पुल को पार किया था
इसी तरह वह शहीद स्मारक की सीढ़ियाँ चढ़ी थी
इसी तरह वह आई थी गोंडा से
इसी तरह वह कहीं भी आ और जा सकती थी
कठिन जिन्दगी को
इसी तरह उसने बना दिया था आसान

प्रदेश की राजधानी में वह आई थी
समानता और सम्मान के
अपने संघर्ष के सौ साल को सलाम करने
वह आई थी
यह इतिहास चक्रव्यूह ही तो रहा है
इसे तोड़ बाहर निकलने की छटपटाहट के साथ
वह आई थी

वह जुलूस में चल रही थी पीछे पीछे
नारे जब हवा में गँूजते
जुलूस के उठते थे हाथ
और उसके उठते थे सिर उर्ध्वाधर दिशा में तने हुए
लहरा उठते बाल
मचलती आवारा लटें
हवा में तरंगित स्वर लहरी
वह बिखेर रही थी सौन्दर्य
खुशबू ऐसी जिसमें रोमांचित हो रहा था
उसका प्रतिरोध

भाप इंजन का फायरमैन बनी
अपना सारा कोयला वह झोके दे रही थी
सड़क की दोनों पटरी पर खड़े लोगों के लिए
वह लग रही थी अलग सी
कुछ अजूबा भी
उनके मन में थोड़ी दया
थोड़ा तरस भी था
और हर भाव से संवाद करती
वह बढ़ रही थी आगे आगे.... और आगे

यह जुलूस रोज रोज की रैली
राजनीतिक खेल और तमाशा
शहरियो के मन में खीझ
नफरत हिकारत भरे भाव
कि जुटाई गई भीड़
पैसे के लालच में आई है यह
अपने पांवो पर चल नहीं सकती
हूँ.......खाक लड़ेगी सरकार से !

इस शहरी अभिजात्य व्यंग्य पर
वह हँस रही थी
क्या जाने लड़ाइयाँ
कहाँ कहाँ और कैसे कैसे लड़ी गई हैं
कितनी गहरी हैं जडं़े
और कितना विशाल है इतिहास

क्या मालूम
कि पैरों से पहले वह दिल दिमाग से लड़ी जाती हैं
और वह सही सलामत है उसके पास
पूरा साबूत

वह जनसभा में सबसे आगे थी
कृष्णा, ताहिरा, विद्या, शोभा, शारदा, विमल, रेणु.......
अपनी असंख्य साथियों में वह थी
और सब थीं उसमें समाई हुई

पहाड़ी नदियाँ उतर रही थीं
चट्टानों से टकराती
उछाल लेती
लहराती मचलती बलखाती
बढ़ती उसी की ओर
अब वह औरत नहीं महानद थी।

( रचना तिथि: 8 मार्च 2010, अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर लखनऊ में हुई महिलाओं की रैली के बीच इस कविता ने जन्म लिया )

शुक्रवार, 4 जून 2010

नागरिक समाज: सुरक्षा में सेंध

कौशल किशोर

हमारा नागरिक समाज सुरक्षा और शान्ति के साथ जीना चाहता है। वह कानून का शासन चाहता है। वह ऐसी सरकार चाहता है जो उसके जान-माल की सुरक्षा प्रदान कर सके। वह ऐसा माहौल चाहता है जिसमें बिना भय के स्वच्छन्द भाव से कही भी आ और जा सके। लकिन आज यह दुर्लभ होता जा रहा है। नागरिक समाज का सरकार के सुरक्षा तंत्र पर से यकीन उठता जा रहा है। देखने में यही आ रहा है कि जहाँ जितनी सुरक्षा प्रदान की जा रही है, वहाँ वारदात भी बढ़ रही है। यह कहना शायद ज्यादा उचित लगता है कि सुरक्षा की व्यवस्था व इन्तजाम जितना पुख्ता किया जा रहा है, वहीं असुरक्षा भी दबे पाँव पहुँच रही है। इस सम्बन्ध में प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अभी हाल में घटी एक घटना की हम चर्चा करेंगे।

पिछले दो-ढ़ाई दशक में लखनऊ का काफी तेजी से विस्तार हुआ है। नई-नई कालोनियाँ और मुहल्ले अस्तित्व में आये हैं। लखनऊ-कानपुर रोड पर तो एक नया टाउनशिप ही बस गया है। इसी कालोनी के सेक्टर ‘जी’ के एक पार्क के चारो तरफ रहने वाले नागरिकों द्वारा सुरक्षा के सम्बन्ध में ली गई पहलकदमी की अवश्य प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने मकान व जान.माल की सुरक्षा के लिए थाना और पुलिस पर निर्भर न रह कर सामूहिक पहल ली और सुरक्षा व्यवस्था स्वयं कायम की। यहाँ करीब पचास मकान होंगे। इनमें रहने वाले अधिकांश नौकरी पेशा लोग हैं।

इस पार्क के चारों तरफ जो सड़क है, वह तीन ओर से बाहर निकलती है। इन तीनों रास्तों पर यहाँ के वाशिन्दों ने लाहे के मजबूत और बड़े फाटक बनवाये हैं। यदि ये फाटक बन्द कर दिये जायँ तो कोई इस पार्क वाले हिस्से में प्रवेश नहीं कर सकता। इन फाटकों में से दो हमेशा बन्द रहता है और एक ही फाटक आने.जाने वालों के लिए खुला रहता है। यहाँ दो गार्डों की व्यवस्था की गई है तथा हर बारह घंटे के बाद उनकी ड्यूटी बदल जाती है। ये गार्ड इस फाटक पर चौबीसो घंटे मौजूद रहते हैं और प्रत्येक आने.जाने वालों पर निगाह रखते हैं। किसी भी अपरिचित को तभी अन्दर जाने देते हैं जब वह उनके उŸार से संतुष्ट हो जाता है। लेकिन सुरक्षा की इस व्यवस्था के बावजूद हाल में यहाँ रहने वाले सुशील कुमार के घर में चोरी व जान.माल को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाने की घटना हो गई।

सुशील कुमार भारत सरकार की कम्पनी स्कूटर्स इण्डिया में मुख्य प्रबन्धक हैं और उनकी पत्नी कॉलेज में शिक्षिका हैं। दो बेटियाँ हैं जिनकी शादी हो चुकी है। घर में पति-पत्नी के अलावा माँ है जो काफी वृद्ध हैं। पति.पत्नी दोनों काम पर निकल जाते हैं, फिर शाम तक लौटते हैं और माँ घर में रह जाती हैं। सुशील कुमार ने अपने घर का निर्माण भी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए कराया है। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए नौकरी पेशा दम्पŸिा के पास यही विकल्प बचता है कि जब वे काम पर जायें तो माँ घर में रहें और बाहर ताला लगा दिया जाय अर्थात मकान का मुख्य दरवाजा बन्द, चैनल गेट पर ताला, उसके बाद मकान के मुख्य गेट पर ताला, बाहर पार्क के दोनों फाटक बन्द और एक फाटक जो खुला है, वहाँ चौबीस घंटे के लिए गार्ड तैनात है। इतनी व्यवस्था के बाद आदमी सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त हो सकता है। लेकिन इस सब के बावजूद घटना हो जाती है।

वारदात को अंजाम देने वाले भरी दोपहर में आते हैं। पहले वे मुख्य गेट का ताला तोड़ते हैं, फिर चैनल पर लगा ताला, उसके बाद मुख्य दरवाजा उनका निशाना बनता है। दरवाजे पर थाप पड़ने पर माँ को लगता है कि बहू या बेटा में से कोई आया है। वे दरवाजा खोलती हैं और अनजान चेहरे को देख अवाक रह जाती हैं। वे कुछ बोलें या शोर मचायें, तभी किसी घातक हथियार से उनके सिर पर वार होता है। वे बेहोश हो फर्श पर गिर पड़ती हैं और उनका खून वहाँ फैल जाता है। मध्य दोपहर में हुई इस घटना की जरा सी भी भनक किसी को नहीं लगती, पास.पड़ोस से लेकर गार्ड तक को कुछ नहीं मालूम। नकदी, जेवर - लाखों का सामान ले चोर चम्पत हो जाते हैं। इस वारदात का भी पता तब चलता है जब बहू कॉलेज से वापस आती हैं। फिर वही हुआ, जो घटना हो जाने के बाद होता है। शोर मचता है। भीड़ जुटती है। जिसे खबर मिलती है, वही दौड़ा चला आता है। लोगों द्वारा आश्चर्य और अफसोस का मिश्रित भाव प्रकट किया जाता है। पुलिस आती है। पहले तो यह विवाद सामने आता है कि सुशील कुमार का मकान किस थाना क्षेत्र में आता है, आशियाना या कृष्णानगर। इस विवाद के निपटारे के बाद पुलिस की पहली गाज घर की साफ.सफाई करने वाली, खाना बनाने वाली नौकरानी तथा बाहर फाटक पर तैनात गार्ड पर गिरती है। इस तरह पुलिस अपनी कर्रवाई की औपचारिकता में जुट जाती है।

यही हमारे नागरिक समाज की हकीकत है कि अपने तई की गई तमाम कोशिशों के बाद भी असुरक्षा ही उनके हाथ आ रही है। नागरिक समाज ही नहीं पूरा राष्ट्र ही अपनी सुरक्षा को लेकर परेशान है। देश की सुरक्षा पर सरकार द्वारा बजट का अच्छा.खासा हिस्सा खर्च किया जाता है। शिक्षा व स्वास्थ की तुलना में रक्षा खर्च हर बजट में बढ़ रहा है। आज तो आन्तिरिक सुरक्षा सरकार के लिए सबसे बड़ा सिर दर्द बन गया है। छŸाीसगढ़ से लेकर पश्चिम बंगाल तक की यह पूरी पट्टी आज ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ के नाम पर अर्द्धसैनिक बलों के हवाले है। यही नहीं, सरकार द्वारा मंत्रियों, नेताओं और माननीय लोगों को भी कई तरह की सुरक्षा प्रदान की जाती है। सुरक्षा के भी कई स्तर हो गये हैं। जितना बड़ा पद या व्यक्ति, उसकी उतने ही उच्च स्तर की सुरक्षा। लेकिन इस सब के बावजूद सेंध लग जाती है और सारी सुरक्षा व्यवस्था धरी की धरी रह जाती है। क्या यह भुलाया जा सकता है कि तमाम सुरक्षा कवच के बावजूद प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी तक हत्यारे पहुँच गये ?

हो यह रहा है कि जब कोई वारदात हो जाती है तब सुरक्षातंत्र की खोज-खबर ली जाती है। कहाँ क्या त्रुटि रह गई, जिसकी वजह से हादसा हुआ, मात्र यही खोज-खबर का विषय बनकर रह जाता है और ले.देकर मामला सुरक्षातंत्र को और चुस्त-दुरुस्त करने तक सिमट जाता है। हादसे के शिकार लोगों के लिए मुआवजे की घोषणा, घटना की जाँच के आदेश, अपने राजनीतिक नफे- नुकसान को ध्यान में रखकर बयानबाजी और ऐसा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली जा रही है। नागरिक समाज की सुरक्षा के साथ यही क्रूर मजाक हो रहा है। कभी घटना के सामाजिक-राजनीतिक कारणों की तह में जाने की गंभीर कोशिश नहीं दिखती।

गाँधीजी की एक बात याद आती है। जब उनसे पूछा गया था कि आपके सपनों का भारत कैसा होगा तो उन्होंने कहा कि स्वराज्य को प्रत्येक गरीब की कुटिया तक पहुँचाना हम सबका काम होगा और मेरे सपनों का भारत ऐसा होगा जिसमें हर आदमी यह महसूस कर सके कि यह देश उसका है, उसके निर्माण में उसकी आवाज का महत्व है। परन्तु सच्चाई यह है कि आज आवाज किसी की गूँज रही है तो वह दबंगों, धनपशुओं, राजनीतिक सौदागरों और अपराधियों की है। ऐसा समाज बन गया है जिसमें गुंडों व अपराधियों का राजतिलक हो रहा है। लोकतंत्र का अपराधीकरण हो गया है। ऐसे में आम नागरिक कहाँ तक सुरक्षित रह सकता है ? इसीलिए सुरक्षा की दिशा में किये गये उसके सामूहिक प्रयास भी बेमानी हो जाते हैं।

आज हमारा नागरिक समाज तो ऐसी जमीन पर खड़ा है जिसके नीचे बारूदी सुरंग है। पता नहीं कब उसका पाँव पड़ जाय और विस्फोट हो जाय। हालात तो ऐसे ही हैं जैसाकि हिन्दी के कवि वीरेन डंगवाल ने अपनी कविता ‘हमारा समाज’ में कहा है:
हमने यह कैसा समाज रच डाला
हैइसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला
हैकालेपन की वे संताने है
बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहींअपना काला जादू हैं हम पर फेर रहीं
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना है ?

बुधवार, 26 मई 2010

सईद का दर्द

कौशल किशोर

कहा जाता है कि समय के साथ मनुष्य के बड़े-से-बड़े जख्म भर जाते हैं। वह उन्हें भूल भी जाता है। लेकिन जिन्दगी के कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो समय के साथ भर जाने का आभास देते हैं पर वे भरते नहीं। कवि, चित्रकार व अनुवादक सईद के दिलो-दिमाग पर पड़े जख्म कुछ ऐसे ही हैं। बाहर से वे दिखते नहीं लेकिन अपने अन्दर कितना दर्द समेटे हुए हैं, यह सईद को लेकर आयोजित गोष्ठी में देखने को मिला।

सईद ने 1972 में देश छोड़ा। फिनलैण्ड गये। वहीं बस गये और वहाँ की नागरिकता भी ले ली। अभी हाल में हिन्दुस्तान आये और मित्रों से मिलने लखनऊ पहुँचे। लखनऊ के राज्य सूचना केन्द्र में उनके कविता पाठ और उनसे संवाद का कार्यक्रम रखा गया था। फिनलैण्ड हमारे लिए बहुत कुछ अपरिचित सा देश है। इसलिए वहाँ का समाज और राजनीतिक व्यवस्था कैसी है ? लोगों के सोचने-समझने का नजरिया कैसा है ? वह समाज कितना हमारे जैसा और कितना हमसे भिन्न हैं ? साहित्य और संस्कृति का माहौल कैसा है ? यह सब जानने की स्वाभाविक उत्सुकता हमारे अन्दर थी।

लेकिन उस वक्त माहौल अत्यंत गंभीर हो गया, जब हममें से किसी ने सईद से पूछा कि आपने देश क्यों छोड़ा ? आखिर ऐसा क्या हुआ जिसकी वजह से आपको यहाँ से जाना पड़ा और फिनलैण्ड की नागरिकता लेनी पड़ी ? हमने महसूस किया कि इन सवालों पर सईद के चेहरे का रंग स्याह पड़ गया है और वे अपने को असहज पा रहे हैं। उन्होंने अपनी आँखें मूँद ली थी और जब खुलीं तो वे आँसूओं से भरी थीं। वे कुछ कह रहे थे। आवाज भर्राई हुई थी और शब्द अस्पष्ट थे.......‘क्या करता, मुझे जेल में डाल दिया गया। गुप्तचर विभाग वालों ने तरह।तरह के सवालों से मुझे मानसिक रूप से परेशान कर दिया था। वे क्या उगलवाना चाहते थे, किस जुर्म की सजा दी जा रही थी, मुझे पता नहीं था। ऐसी हालत थी कि.....मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था। मुझे इस व्यवस्था से नफरत हो गई थी।.......’ और सईद भरी गोष्ठी में रो पड़े। उनकी इस प्रतिक्रिया से हम सभी स्तब्ध थे।

सईद को कविता लिखने और पेंटिग करने का शुरू से शौक रहा। भवाली ;उŸाराखण्डद्ध के रहने वाले सईद विज्ञान के स्नातक थे। जीवन ही नहीं, विज्ञान की बारीकियों को भी जानने।सीखने की जबरदस्त धुन थी। इसी धुन में कभी वे प्रयोगशालाओं तक पहुँच जाते तो कभी अनुसंधान केन्द्रों तक। लेकिन माहौल उनके अनुकूल नहीं था क्योंकि वे ‘सईद’ थे। उन दिनों बांग्ला देश का मुक्ति संग्राम और पाकिस्तान के साथ युद्ध चल रहा था। सईद की खोजी प्रवृŸिा ने उन्हें संकट में डाल दिया। गुप्तचर विभाग की नजर में दुश्मन के ‘जासूस’ लगे। फिर क्या था ? उनसे पूछ.ताछ का दौर चला। जब कुछ नहीं मिला तो यातनाएँ दी जाने लगीं। जेल में डाल दिया गया। और जब जेल से बाहर आये तो दिल.दिमाग बुरी तरह घायल था। अब उनके पास यही विकल्प बचा था कि वे देश से दूर चले जायंे। फिर लौट कर न आयें और वे सुदूर उŸारी ध्रुव के देश फिनलैण्ड पहुँच गये।

पर सईद दिल-दिमाग से दूर नहीं जा पाये। एक से दो साल भी नहीं बीत पाता कि वे हिन्दुस्तान आ जाते। दोस्तों से मिलते। उस शहर, कस्बे, गाँव तक जाते जो अपने थे। उम्र भी साठ के पार हो गई है। शरीर भी भारी-भरकम हो गया है। मधुमेय और साँस फूलने की बीमारी है। चलना, सीढ़ियाँ चढ़ना दूभर सा हो गया है। पर यहाँ आने-जाने का सिलसिला कम नहीं हुआ।

फिनलैण्ड में रहते हुए सईद ने ढ़ेर सारी कविताएँ लिखीं, चित्र बनाये, अनुवाद किये। सईद ने प्रसिद्ध फिनिश उपन्यासकार मिका वाल्तरी के उपन्यास ‘सिनुहे मिश्रवासी’ का हिन्दी में अनुवाद किया है जिसे राजकमल प्रकाशन छाप रहा है। गोष्ठी में सईद ने अपनी कई कविताएँ सुनाईं। कविताओं को सुनते हुए लगा कोई चित्रकार अपनी कूची से कैनवास पर चित्र उकेर रहा है। सईद की कविताओं में ‘भटकती हुई घायल आत्मा’, ‘जलती हुई झाड़ियाँ’, ‘अंधेरे की चादर’, ‘झुलसता हुआ रेगिस्तान’, ‘मृणासन्न ऋतुएँ’, ‘हृदय विदारक चीत्कार’, ‘क्षितिज रक्ताभ’, ‘थके मांदे या मृत मौसम’ जैसे चित्र उभरते हैं। इनसे गुजरते हुए लगता है कि यहाँ गहरी उदासी है, रंग फीके और अवसाद से भरे हैं। बातचीत के क्रम में सईद ने बताया भी कि ये कविताएँ जब पुस्तक के रूप में छपेंगी तो इसका शीर्षक होगा: ‘दूर से आती एक प्रवासी की आवाज’। तब हमें समझते देर नहीं लगी कि यहाँ फैली उदासी और अवसाद क्यों है ? कहीं न कहीं सईद के अर्न्तमन में अपनी जड़ों से कट जाने की व्यथा और उनसे संवाद की छटपटाहट है। वहीं यहाँ अभिव्यक्त हो रही है।

सईद अकेले नहीं हैं। इनके जैसों की पीड़ा, देश छोड़कर जाना और विदेशी नागरिकता लेना, यह सवाल है। मकबूल फिदा हुसैन ने उम्र के इस पड़ाव पर कतर की नागरिकता ली। कुछ लोग इसके लिए हुसैन की आलोचना भी करते हैं। लेकिन क्या हुसैन की पीड़ा को समझने, उनके मन में झाँकने की कोशिश की गई ? हुसैन कहते हैं कि भले मैं हिन्दुस्तान के लिए प्रवासी हो गया हूँ लेकिन मेरी यही पहचान रहेगी कि मैं हिन्दुस्तान का पेन्टर हूँ, यहाँ जन्मा कलाकार हूँ। अर्थात हुसैन के कलाकार की जड़े यहीं है और अपने जड़ो से कटने का जो दर्द होता है, वह यहाँ भी है। कलाकार स्वतंत्रता चाहता है। वह प्रतिबन्धों, असुरक्षा में नहीं जीना चाहता है।

पर व्यवस्था ऐसी है जो कलाकार को न्यूनतम सुरक्षा की गारण्टी नहीं दे सकती। यहाँ लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता है। नागरिकों को अपना पसंदीदा धर्म व पंथ अपनाने की स्वतंत्रता है। ‘वसुधैव ही कुटुम्बकम’ को भारतीय संस्कृति बताते हुए हम थकते नहीं। परन्तु सईद, हुसैन.....जैसे कलाकारों या ऐसे अनगिनत लोगों के लिए इतनी भी जगह क्यों नहीं जहाँ वे स्वतंत्रता से जी सकें, रह सकें ? बड़ी।बड़ी बातों के बीच अक्सरहाँ इन छोटी बातों को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। सईद फिनलैण्ड वापस जा चुके हैं लेकिन सोचने के लिए यह सवाल छोड़ गये हैं।