कौशल किशोर
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन केः जहाँ
चली है रस्म केः कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नजर चुरा के चले वो जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
आज मुल्क की हालत कमोबेश ऐसी ही है, जैसा फैज अपनी इस नज्म में बयान कर रहे हैं। करीब साठ साल पहले हमने संविधान लागू किया था। उसके कुछ मूलभूत आधार तय किये गये थे। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवाद की राह पर चलने का वायदा तथा इसी राह पर चलकर समतामूलक समाज बनाना लक्ष्य था। परन्तु इस संविधान में ऐसे भी कानून मौजूद थे तथा आजादी के बाद के सŸााधारियों ने लगातार ऐसे कानून बनाते चले गये जो हमारे लोकतंत्र की राह को तंग करने वाले थे। हमारा लोकतंत्र और देश आज इसी तंग गली में फँस चुका है। यह गली तानाशाही और फासीवाद की ओर जाती है। यहाँ सर उठाकर चलने की मनाही है। असहमति की जगहें सिमटती जा रही हैं। विरोध को सुनने.समझने की सहिष्णुता खत्म होती जा रही है। बर्दाश्त करिये और चुप रहिए, अपने को बचाकर चलिए और दुम हिलाइये - इसी संस्कृति की वकालत की जा रही है।
हकीकत तो यह है कि हमारे शासकों ने जिन नीतियों पर अमल किया है, उनसे अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। सŸाा और सम्पति से बेदखल गरीबों का कोई पुरसाहाल नहीं है। अपने हक और अधिकार से वंचित ये वो सताये हुए लोग है जिनके श्रम से देश चलता है। पर यदि ये अपने हक की बात करें तो इनके विरुद्ध शासन की बन्दूकें हैं, सŸाा का जुल्मों-सितम है। आज ऐसी व्यवस्था है जहाँ साम्प्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कॉरपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी, बाहुबली व माफिया सŸाा की शोभा बढ़ा रहे हैं, सम्मानित हो रहे हैं, देशभक्ति का तमगा पा रहे हैं, वहीं इनका विरोध करने वाले, सर उठाकर चलने वालों को देशद्रोही कहा जा रहा है, उनके लिए उम्रकैद है, जेल की काल कोठरी है। उŸार प्रदेश की जेल की ऐसी ही काल कोठरी में लेखक, पत्रकार व मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद अपने पति विश्वविजय के साथ कैद हैं। इस साल 6 फरवरी को इनकी कैद का एक साल पूरा हो गया। ये कब आजाद होंगे, इस काल कोठरी से कब बाहर आयेंगे, कोई नहीं बता सकता।
पिछले साल 6 फरवरी के दिन सीमा आजाद को विश्वविजय और उनकी साथी आशा के साथ इलाहाबाद में गिरफ्तार किया गया था। वे दिल्ली पुस्तक मेले से लौट रही थीं। उनके पास मार्क्सवादी व वामपंथी साहित्य था। अभी वे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरी ही थीं कि उन्हें उŸार प्रदेश पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स ने हिरासत में ले लिया। उनकी यह गिरफ्तारी गैरकानूनी गतिविधि ;निरोधकद्ध कानून के तहत की गई। पुलिस का आरोप था कि इनके माओवादियों से सम्बन्ध हैं तथा ‘राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध’ भड़काने जैसी गैरकानूनी गतिविधियों व क्रियाकलाप में लिप्त हैं। इसी आधार पर पुलिस अपनी कार्रवाई को सही ठहराती है। न्यायालय भी कहीं न कही पुलिस के आरोप से सहमत है क्योंकि उसने भी सीमा आजाद की याचिका को नामंजूर कर दिया है।
तब हमारे लिए यह स्वाभाविक सवाल है कि क्या सीमा आजाद की गतिविधियाँं व क्रियाकलाप गैरकानूनी व संविधान विरुद्ध हैं ? पुलिस के जो आरोप हैं तथा न्यायालय भी जिनसे सहमत दिखता है, उनका आधार क्या है ? इनकी सच्चाई क्या है ? पुलिस और न्यायालय द्वारा जो कार्रवाई की गई है, वह कहाँ तक न्यायसंगत है या फिर क्या पुलिस द्वारा मात्र बदले की भावना से की गई कार्रवाई है ?
इस सम्बन्ध में जो तथ्य सामने आये हैं, उनका उल्लेख करना जरूरी है। सीमा आजाद द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ की सम्पादक तथा पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी ;पी यू सी एलद्ध उŸार प्रदेश के संगठन सचिव के बतौर नागरिक अधिकार आंदोलनों से जुड़ी समाजिक कार्यकर्ता रही हैं। सीमा आजाद के पति छात्र आंदोलन और इंकलाबी छात्र मोर्चा के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं। ये लोकतांत्रिक संगठन हैं जिनसे ये जुड़े हैं। सीमा आजाद के लिए लेखन व पत्रकारिता शौकिया न होकर अन्याय व जुल्म के खिलाफ लड़ने का हथियार रहा है। उनकी पत्रिका ‘दस्तक’ का मकसद भी यही रहा है। सीमा आजाद ने जिन विषयों को अपने लेखन, पत्रकारिता, अध्ययन तथा जाँच का आधार बनाया है, वे पूर्वी उŸार प्रदेश में मानवाधिकारों पर हो रहे हमले, दलितों खासतौर से मुसहर जाति की दयनीय स्थिति, पूर्वी उŸार प्रदेश में इन्सेफलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारी से हो रही मौतों व इस सम्बन्ध में प्रदेश सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति, औद्योगिक नगरी कानपुर के कपड़ा मजदूरों की दुर्दशा, प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी योजना गंगा एक्सप्रेस द्वारा लाखों किसान जनता का विस्थापन आदि रहे हैं।
गौरतलब है कि सीमा आजाद और विश्वविजय का कार्यक्षेत्र इलाहाबाद व कौसाम्बी जिले का कछारी क्षेत्र रहा है जहाँ माफिया, राजनेता व पुलिस की मिलीभगत से अवैध तरीके से बालू खनन किया जा रहा है तथा इनके द्वारा काले धन की अच्छी.खासी कमाई की जा रही है। इस गठजोड़ द्वारा खनन कार्यों में लगे मजदूरों का शोषण व दमन यहाँ का यथार्थ है तथा इस गठजोड़ के विरोध में मजदूरों का आन्दोलन इसका स्वाभाविक नतीजा है। मजदूरों के इस आंदोलन को दबाने के लिए उनके नेताओं पर पुलिस.प्रशासन द्वारा ढ़ेर सारे फर्जी मुकदमें कायम किये गये, नेताओं की गिरफ्तारियाँ हुईं और इन पर तरह तरह के दमन ढ़ाये गये। सीमा आजाद इस आन्दोलन से जुड़ी थीं। उन्होंने न सिर्फ इस अवैध खनन का विरोध किया बल्कि यहाँ हो रहे मानवाधिकार के उलंघन पर जोरदार तरीके से आवाज उठाया।
इसी दौरान एक घटना और हुई। नवम्बर 2009 में नक्सली नेता कमलेश चौधरी की पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई थी। सीमा आजाद अपने पति विश्वविजय के साथ मिलकर इस हत्या के खिलाफ विरोध संगठित किया और मानवाधिकार कार्यकर्ता की हैसियत से उन्होंने सरकार से इसकी जाँच की माँग की। पी यू सी एल की उŸार प्रदेश शाखा की संगठन मंत्री की हैसियत से सीमा आजाद ने अपने साथी के0 के0 राय के सहयोग से कौसाम्बी के नन्दा का पुरा गाँव में मानवाधिकार हनन पर रिपोर्ट जारी किया था। इस गाँव में पुलिस व पीएसी द्वारा ग्रामीणों पर बर्बर लाठी चार्ज किया गया था जिसमें सैकड़ों मजदूर घायल हुए थे। सीमा आजाद और विश्वविजय उन लोगों में रहे हैं जिन्होंने सेज से से लेकर ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ का लगातार विरोध किया और वैश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण के खिलाफ मोर्चा खोला। अपनी गिरफ्तारी से कुछ ही दिन पूर्व उन्होंने ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ के विरुद्ध एक पुस्तिका प्रकाशित किया था जिसमें अरुंधती राय, गौतम नवलखा, प्रणय प्रसून बाजपेई आदि के लेख संकलित हैं।
ये ही सीमा आजाद और उनके साथी विश्वविजय के क्रियाकलाप और उनकी गतिविधियाँ हैं जिन्हे ‘राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध’ की संज्ञा देते हुए पुलिस.प्रशासन द्वारा इन्हें नक्सली व माओवादी होने के आधार के रूप में पेश किया जा रहा है। यही नहीं, इनके माओवादी होने के लिए पुलिस ने कुछ और तर्क दिये हैं। जैसे, पुलिस का कहना है कि ये ‘कामरेड’ तथा ‘लाल सलाम’ का इस्तेमाल करते हैं जबकि यह सर्वविदित सच्चाई है कि सभी कम्युनिस्ट र्पािर्टयों तथा उनके संगठनों में ‘कामरेड’ संबोधन तथा ‘लाल सलाम’ अभिवादन के रूप में आमतौर पर इस्तेमाल होता है। यदि पुलिस.प्रशासन के इस तर्क को माओवादी होने का आधार बना दिया जाय तो सारे वामपंथी संगठन माओवादियों की परिधि में आ जायेंगे। इसी तरह का तर्क सीमा आजाद के पास से मिले वामपंथी व क्रान्तिकारी साहित्य को लेकर भी दिया गया। उल्लेखनीय है कि ऐसा साहित्य आमतौर पर सारे कम्युनिस्ट नेताओं.कार्यकर्ताओं से लेकर वामपंथी बुद्धिजीवियों के यहाँ मिलेंगे। पुलिस यह बताने में असफल रही है कि वहाँ बरामद साहित्य में कौन सा साहित्य प्रतिबंधित है।
ऐसे ही आरोप पुलिस द्वारा डॉ विनायक सेन पर भी लगाये गये थे तथा इनके पक्ष में पुलिस की ओर से जो तर्क पेश किये गये, वे बहुत मिलते.जुलते हैं। माओवादियों से सम्बन्ध, राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध तथा राजद्रोह जैसे आरोपों के तहत ही विनायक सेन को 14 मई 2007 को गिरफ्तार किया गया था। करीब दो साल तक साधारण कैदियों से भी बदतर हालत में जेल में रखा गया। छŸाीसगढ़ की उच्च न्यायालय तक ने उनकी जमानत को नामंजूर कर दिया था। यह तो सर्वाेच्च न्यायालय है, जिसके हस्तक्षेप से उन्हें जमानत दी गई। उन पर सितम्बर 2008 से मुकदमा चला और बीते साल के 24 दिसम्बर को उस मुकदमें के तहत छŸाीसगढ़ की निचली अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई। सीमा आजाद के सम्बन्ध में भी यही नीति अपनाई जा रही है तथा उनके मुकदमें की दिशा भी यही है। इसीलिए ऐसा लगता नहीं कि सीमा आजाद को न्यायालय से जल्दी कोई राहत मिलने वाली है।
देखा जा रहा है कि सरकारों द्वारा नक्सलवाद व माओवाद लोकतांत्रिक आवाजों को दबाने.कुचलने का हथकण्डा बन गया है तथा जन आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं पर राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध भड़काने, राजद्रोह, देशद्रोह जैसे आरोप आम होते जा रहे है। छŸाीसगढ़ की भाजपा सरकार द्वारा लोकतांत्रिक व मानवाधिकारों को दबाने का जो प्रयोग शुरू किया गया था, उŸार प्रदेश और अन्य राज्यों की सरकारों द्वारा उसी नुस्खे को अमल में लाया जा रहा है।
ऐसे लोगों की एक लम्बी सूची है जो इस प्रयोग के शिकार हैं। अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ के देहरादून संवाददाता प्रशान्त राही को गिरफ्तार तो उनके निवास से किया गया लेकिन पुलिस द्वारा खबर यह दी गई कि उन्हें हंसपुर खŸाा के जंगलों से पकड़ा गया तथा उनके बारे में यह प्रचारित किया गया कि वे माओवादियों के ‘जोनल कमाण्डर’ हैं। प्रशान्त राही आज भी जेल में हैं। इसी तरह मजदूर किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष तथा ‘प्रेरणा संदेश’ के संपादक प्रताप सिंह को भी ऊधमसिंह नगर में गिरफ्तार किया गया। अपने क्षेत्र में मास्टर साहब के नाम से लोकप्रिय प्रताप सिंह के बारे में पुलिस द्वारा यह आरोप गढ़ा गया कि ये माओवादियों को हथियारों की ट्रेनिंग देते हैं। बाद में ठोस सबूत के अभाव में अवैध तरीके से हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने उन्हें रिहा कर दिया। इसी साल महाराष्ट्र के नक्सल विरोधी दस्तें ने मराठी के प्रमुख संस्कृतिकर्मी और मराठी पत्रिका ‘विद्रोही’ के सम्पादक सुधीर ढावले को उस समय गिरफ्तार किया जब वे अम्बेडकर युवा साहित्य सम्मेलन से वापस लौट रहे थे। उनके ऊपर देशद्रोह का आरोप लगाया गया तथा उनकी यह गिरफ्तारी गैर कानूनी गतिविधि निरोधक कानून के तहत की गई।
सीमा आजाद ऐसे ही लागों में शामिल हैं। सीमा आजाद की जिन गतिविधियों और क्रियाकलाप को गैरकानूनी कहा जा रहा है, वे कहीं से भी भारतीय संविधान द्वारा अपने नागरिकों को दिये गये अधिकारों के दायरे से बाहर नहीं जाती हैं बल्कि इनसे सीमा आजाद की जो छवि उभरती है वह आम जनता के दुख.दर्द से गहरे रूप से जुड़ी और उनके हितों के लिए संघर्ष करने वाली लेखक, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता की है। यह ऐसी छवि है जिस पर शोषित.पीड़ित समाज गर्व करता है। बेशक ये गतिविधियाँ सŸाा और समाज के माफिया सरदारों व बाहुबलियों के हितों के विरुद्ध जाती हैं और इनसे निहित स्वार्थी तत्वों के हितों पर चोट पड़ती है। इसीलिए लोकतांत्रिक समाज, मानवाधिकार संगठन, बुद्धिजीवी, लेखक आदि मानते हैं कि सीमा आजाद पर जो आरोप गढ़े गये हैं तथा गैरकानूनी गतिविधि ;निवारकद्ध कानून के तहत जो गिरफ्तारी की गई है, वह दमन के उद्देश्य से तथा बदले की भावना से की गई कार्रवाई है। इस तरह की कार्रवाई के द्वारा सरकार उन लेखकों, बुद्धिजीवियों व मानवाधिकारवादियों को भी नियंत्रित रहने का संदेश देना चाहती है जो सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों का विरोध करते हैं, दमन.उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाते हैं तथा प्रतिपक्ष का निर्माण करते हैं।
लेकिन यह सŸाा का भ्रम है कि दमन से वह विरोध की आवाज को दबा देगी। देखा यही गया है कि दमन ने हमेशा प्रतिरोध का रूप लिया है तथा प्रतिरोध के अत्मबल को बढ़ाया है। ऐसा हम सीमा आजाद के संदर्भ में भी देखते हैं। पिछले दिनों हिन्दी कवि नीलाभ को लिखे अपने पत्र में सीमा आजाद ने अपने बारे में कहा है - ‘मै और विश्वविजय दोनों सकुशल से हैं तथा जेल से बाहर आने का इंतजार करते हुए हमने अच्छा.खासा अनुभव हसिल किया है। एक बात हमने साफतौर महसूस किया है, वह है कि दमन आदमी को मजबूत, अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ तथा और अधिक संघर्षशील व जुझारू बनाता है। इस सम्बन्ध में दुनिया की सरकारें बड़े भ्रम में जीती हैं और हमारी सरकार भी। हमने महसूस किया है कि सामाजिक परिवर्तन की हमारी इच्छा को सरकार दबा नहीं सकती बल्कि सरकार के उत्पीड़न की इस तरह की कार्रवाई कालिदास की उस कथा की तरह है जिसमें सरकार पेड़ की उस डाल को ही काट रही है जिस पर वह बैठी है।’
एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 09807519227, 08400208031
"निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन केः जहाँ
जवाब देंहटाएंचली है रस्म केः कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नजर चुरा के चले वो जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले"
सब कुछ इसी में निहित है - बड़ी बात
bahut vicharneey aur sarthak post
जवाब देंहटाएंaabhaar
सीमा जी को न्याय मिलना चाहिए.
जवाब देंहटाएंराजनीति सिर्फ गुंडों की शरणस्थली बनने जा रही है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय,
जवाब देंहटाएंआज हम जिन हालातों में जी रहे हैं, उनमें किसी भी जनहित या राष्ट्रहित या मानव उत्थान से जुड़े मुद्दे पर या मानवीय संवेदना तथा सरोकारों के बारे में सार्वजनिक मंच पर लिखना, बात करना या सामग्री प्रस्तुत या प्रकाशित करना ही अपने आप में बड़ा और उल्लेखनीय कार्य है|
ऐसे में हर संवेदनशील व्यक्ति का अनिवार्य दायित्व बनता है कि नेक कार्यों और नेक लोगों को सहमर्थन एवं प्रोत्साहन दिया जाये|
आशा है कि आप उत्तरोत्तर अपने सकारात्मक प्रयास जारी रहेंगे|
शुभकामनाओं सहित!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
सम्पादक (जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र ‘प्रेसपालिका’) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
(देश के सत्रह राज्यों में सेवारत और 1994 से दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन, जिसमें 4650 से अधिक आजीवन कार्यकर्ता सेवारत हैं)
फोन : 0141-2222225 (सायं सात से आठ बजे के बीच)
मोबाइल : 098285-02666
इस सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंhum sab vact ke mare log hai
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