शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’


कौशल किशोर

प्रेमचंद ने आज से 75 साल पहले अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ की रचना की थी। यह भारतीय किसान की त्रासदी और उसके संघर्ष की कहानी है। उपन्यास का नायक होरी इसका प्रतिनिधि पात्र है। वह कर्ज और सूदखोरी पर आधारित महाजनी सभ्यता का शिकार होता है। इस व्यवस्था द्वारा वह तबाह.बर्बाद कर दिया जाता है। उसका सब कुछ लूट लिया जाता है। उसकी जमीन, माल मवेशी सब छिन जाते हैं। वह दूसरों के खे पर काम करने वाले मजदूर में तब्दील हो जाता है और अन्त में इस क्रूर व्यवस्था के हाथों मार दिया जाता है।

देश आजाद हुआ, लेकिन होरी आजाद नही ंहुआ। आजादी के चौसठ साल बाद भी होरी मर रहा है, एक नहीं, हजारों.लाखों की तादाद में। साम्राज्यवादी.पूँजीवादी व्यवस्था का वह शिकार है। उसकी जमीनें छीनी जा रही हैं। कर्ज में डूबा वह आत्महत्या करने को मजबूर है। अन्न पैदा करने वाला किसान अन्न के लिए मोहताज हो गया है। भूख से मरना आजाद हिन्दुस्तान में उसकी नियति बन गई। यह व्यवस्था हृदयहीन, क्रूर और पाखण्डी हो गई है। राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ हमारी चौसठ साला आजादी के इसी यथार्थ को सामने लाता है। ‘गाँधी ने कहा’, ‘सŸा भाषे रैदास’, ‘अम्बेडकर और गाँधी’, ‘द लास्ट सैल्यूट’ जैसे व्यवस्था विरोधी और यथार्थवादी नाटकों के लिए चर्चित नाटककार राजेश कुमार का यह नया नाटक है जिसका मंचन अभी हाल में लखनऊ के संत गाडगे प्रेक्षागृह, संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाहजहाँपुर की नाट्य संस्था ‘थर्ड बेल’ द्वारा किया गया। इसका निर्देशन चन्द्रमोहन ‘महेन्द्रू’ ने किया। अलग दुनिया के सौजन्य से इस नाटक का मंचन लखनऊ में संभव हुआ।

‘सुखिया मर गया भूख से’ की कहानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले की है। एक गरीब किसान की भूख से मृत्यु हुई। इस घटना के सच को दबाने और उसे पलटने के लिए नौकरशाही द्वारा जो कुचक्र रचा गया, यह नाटक इसी सच्ची घटना पर आधारित है। सरकार द्वारा यह प्रचारित है कि उसके शासन में किसान चाहे जिस भी वजह से मरे लेकिन उसे भूख से नहीं मरना चाहिए। यदि कोई किसान भूख से मरता है तो इसके लिए उस जिले का प्रशासन खासतौर से डी0 एम0 जिम्मेदार माना जायेगा। मुख्यमंत्री कार्यालय से जिले में यह सूचना आती है कि सुखिया नाम का किसान भूख से मर गया है। कार्यालय को चौबीस घंटे के भीतर इसकी रिपोर्ट चाहिए। फिर क्या ? डी एम से लेकर तहसीलदार, एस पी से लेकर दरोगा, बी डी ओ से लेकर डॉक्टर तथा ग्राम प्रधान सब मिलकर ऊपर से लेकर नीचे तक जिले के सारे अधिकारी मामले को दबाने के कार्य में जुट जाते हैं।

सुखीराम उर्फ सुखिया इस नाटक का केन्द्रीय पात्र है। इसकी कहानी एक गरीब किसान के जीवन और संघर्ष की कहानी है। इस अर्थ में वह आज के गरीब किसान का प्रतिनिधित्व करता है। सुखिया ने खेती के लिए कर्ज क्या लिया, उसके जीवन में आफत आ गई। मूल से कई गुना उसका सूद हो जाता है। इसकी अदायगी में उसका खेत बिक जाता है। पत्नी और चार बच्चों का उसका परिवार कैसे चले ? अन्न पैदा करने वाला सुखीराम स्वयं एक एक दाने के लिए मोहताज हो जाता है। वह भूखा प्यासा काम की तलाश में दर दर भटकता है। उसे काम मिलता है लेकिन कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। इस हालत में उसे चक्कर आता है, बोहोश हो गिर पड़ता है और वहीं दम तोड़ देता है। उसकी पत्नी व बच्चे सब अनाथ हो जाते हैं। उनके पास रोने और आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता है।

सुखिया के भूख से मरने की खबर जिला प्रशासन को मुख्यमंत्री कार्यलय से आती है। फिर जिला प्रशासन द्वारा सुखिया की खोजाई शुरू होती है और सारा तंत्र सुखिया की भूख से हुई मौत को गलत साबित करने में जुट जाता है। उसके घर में अनाज भर ही नहीं दिया जाता है, बल्कि उसे चारो तरफ इस तरह फैला दिया जाता है ताकि यह पता चल सके कि उसके घर में अन्न को कोई किल्लत नहीं है। उसके नाम बी पी एल कार्ड जारी किया जाता है। उसमें यह इन्ट्री दिखाई जाती है कि वह नियमित रूप से अपने कार्ड पर अनाज उठाता रहा है। झटपट उसके नाम नरेगा का जॉब कार्ड बनता है तथा बैंक में खाता खोल दिया जाता है। उसके खाते में बारह हजार रुपये भी जमा कर दिये जाते हैं। सुखिया के मृत शरीर में मुँह के रास्ते अनाज भर दिया जाता है तथा हवा पम्प कर पेट इतना फूला दिया जाता है जिससे यह साबित हो जाय कि सुखाई की मौत भूख से नहीं, अत्यधिक खाने से हुई है। डाक्टर द्वारा पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी यही दिखाया जाता है। इस तरह भूख से हुई मौत की कहानी को अधिक खाने से हुई मौत में बदल दिया जाता है और वे सारे प्रमाण जुटा दिये जाते हैं जिससे साबित किया जा सके कि सुखिया एक सम्पन्न किसान था। उसकी मौत भूख से हो ही नहीं सकती थी।

डी एम का मुआयना होता है। वह मीडिया के सामने आता है और यह घोषित करता है कि सुखीराम की मौत भूख से नहीं हुई है और उनके जिले में इस तरह की कोई घटना हुई ही नहीं है। वह मुआवजे की घोषणा करता है। मीडिया भी सुन्दर व चमकदार वस्त्र पहना कर बच्चों की तस्वीरे उतारता है। इस तरह पूरा तंत्र जिसमें मीडिया तक शामिल हैं किसान की भूख से हुई मौत की सच्ची व दर्दनाक घटना को गलत साबित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देता है और सुखिया की पत्नी इमरती देवी और उसके बच्चों को ऐसी हालत में छोड़ जाता है जहाँ उनके पास अपनी आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता।

यह नाटक सुखिया के माध्यम से आज की सŸाा और व्यवस्था से हमें रु ब रु कराता है। यह ‘जनतांत्रिक’ व्यवस्था कितनी फर्जी, आम आदमी और उसकी समस्याओं से कटी, संवेदनहीन औ अमानवीय हो गई है, नाटक इसके जनविरोधी चरित्र को उजागर करता है। नाटक में इसके विरुद्ध प्रतिरोध भी है और यह किसानों के आक्रोश व गुस्से को भी सामने लाता है। इस प्रतिरोध के लिए नाटक में फैंटेसी की रचना की गई है। इस प्रतिरोध का नायक सुखिया का प्रेत है। सुखिया का प्रेत तंत्र द्वारा गढ़े गये एक एक झूठ का पर्दाफाश करता है। वह यमराज से भी संघर्ष करता है जो इस तंत्र का समर्थक है। उस वक्त सुखिया का प्रतिरोध अपने चरम रूप में अभिव्यक्त होता है जब उसके जीवन की सच्चाई को व्यवस्था द्वारा झूठ साबित कर दिया जाता है और झूठ को सच के रूप में स्थापित किया जाता है। वह झूठ के तंत्र पर अपनी पूरी ताकत से टूट पड़ता है। नाटक कबीर की इस कविता के साथ समाप्त होता है ‘हम ना मरिबे मरिहें संसारा/हमको मिलिहाँ लड़ावनहारा..../हम न मरिबे, अब न तरबे/करके सारे जतन भूख से लड़बै/जब दुनिया से भूख मिटावा/तब मरिके हम सुख पावा’।

संसार भले खत्म हो जाय लेकिन हम नहीं मरेंगे, नाटक किसान के जीने की जबरदस्त इच्छा शक्ति को सामने लाता है और यह संदेश देता है कि भूख पैदा करने वाली व्यवस्था को समाप्त करके ही किसान को सच्चा सुख मिल सकता है। राजेश कुमार का यह नाटक भूख से हुई मौत और किसानों की आत्महत्या के विरुद्ध प्रतीत होता है लेकिन अपने मूल रूप में यह मौजूदा व्यवस्था तथा इस तंत्र के खिलाफ है। आज जब महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तथा व्यवस्था की लूट व दमन के विरुद्ध देश में आन्दोलन तेज है, ऐसे दौर में नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ का महत्व बढ़ जाता है। यह प्रतिरोध की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है जो जन चेतना को आगे बढ़ाता है।

नाटक में अशोक अंजुम और अशोक मिश्र के गीतों का इस्तेमाल हुआ है। चुटीले संवाद, व्यंग्य, एक्शन, गीत.संगीत आदि नाटक को गतिमय बनाये रखता है। लेकिन कई जगह संगीत और वाद्ययंत्र की आवाज लाउड हो गई है जिसकी वजह से गीत के बोल दब जाते हैं। इसी तरह कई जगह व्यंग्य पर हास्य हावी हो जाता है। वैसे ‘थर्ड बेल’ द्वारा इसकी यह पहली प्रस्तुति है। कलाकारों और निर्देशक के परिश्रम और प्रतिबद्धता को देखते हुए आशा की जानी चाहिए कि आगे की इसकी प्रस्तुति और बेहतर और सुगठित होगी।

बुधवार, 6 जुलाई 2011

अन्ना हजारे से सहमत हों या असहमत भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जरूरी है


कौशल किशोर

आज अन्ना हजारे और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को लेकर कई सवाल उठाये जा रहे हैं। साहित्यकार मुद्राराक्षस ने (जनसंदेश टाइम्स, 4 जुलाई 2011) आरोप लगाया है कि अन्ना भाजपा व राष्ट्रीय सेवक संघ का मुखौटा हैं और अन्ना के रूप में इन्हें ‘आसान झंडा’ मिल गया है। जन लोकपाल समिति में ऐसे लोग शामिल हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। अन्ना हजारे की यह माँग कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में ले आया जाय, संविधान के विरुद्ध है। मुद्राराक्षस ने यहाँ तक सवाल उठाया है कि अन्ना और उनकी सिविल सोसायटी पर संसद और संविधान की अवमानना का मुकदमा क्यों न दर्ज किया जाय ? ऐसे में अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पड़ताल जरूरी है क्योंकि आज यह आन्दोलन अपने अगले चरण की ओर अग्रसर है और जन आंदोलन की शक्तियाँ वैचारिक और सांगठनिक तैयारी में जुटी हैं।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि तमाम पार्टियाँ सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं। वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे भरने के लिए सिविल सोसाइटी और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे इसी यथार्थ की उपज हैं।

इस आंदोलन में, अन्ना हजारे के व्यक्तित्व और विचार में कमियाँ और कमजोरियाँ मिल सकती हैं। वे गाँधीवादी हैं। खुद गाँधीजी अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद स्वाधीनता आन्दोलन के बड़े नेता रहे हैं। इसी तरह अन्ना हजारे के विचारों और काम करने के तरीकों में अन्तर्विरोध संभव है लेकिन इसकी वजह से उनके आन्दोलन के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। इस आन्दोलन का सबसे बड़ा महत्व यही है कि इनके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद््दा आज केन्दीय मुद्दा बन गया है जिसने समाज के हर तबके को काफी गहरे संवेदित किया है और इसे खत्म करने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं। अन्ना हजारे और उनके आंदोलन की इस उपलब्धि को क्या अनदेखा किया जा सकता है कि 42 सालों से सरकार के ठंढ़े बस्ते में पड़ा लोकपाल विधेयक बाहर आया, उसे मजबूत और प्रभावकारी बनाने की चर्चा हो रही है, और इस पर सर्वदलीय बैठक आयोजित हुई।

हमारे यहाँ ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं जो हर आन्दोलनों से रहते तो दूर हैं, पर सूँघने की इनकी नाक बड़ी लम्बी होती है। हर ओर इन्हें साजिश ही नजर आती है। ये अन्ना द्वारा नरेन्द्र मोदी की तारीफ पर तो खूब शोर मचाते हैं, लेकिन इस सम्बन्ध में अन्ना ने जो सफाई दी, वह इन्हें सुनाई नहीं देता है। किसानों की आत्म हत्या, बहुराष्ट्रीय निगमों का शोषण, चालीस करोड़ से ज्यादा लोगों का गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन के लिए बाध्य किया जाना जैसे मुद्दे तो इन्हें संवेदित करते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जब प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात आती है तो वह उन्हें देश में आजादी के बाद पहली बार अल्पसंख्यक सिख समुदाय के प्रधानमंत्री को अपमानित करने का षडयंत्र नजर आता है। अपनी बौखलाहट में ये अन्ना और सिविल सोसाइटी पर जाँच बैठा कर मुकदमा चलाने की माँग करते हैं। ये इस सच्चाई को भुला बैठते हैं कि प्रधानमंत्री किसी समुदाय विशेष का न होकर वह सरकार का प्रतिनिधि होता है। हमारे इन बौद्धिकों को अन्ना द्वारा किसान आत्महत्याओं पर भूख हड़ताल न करने पर शिकायत है लेकिन किसान आंदोलनों पर सरकार के दमन पर ये चुप्पी साध लेते हैं।

हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार पूँजीवाद की देन है और खासतौर से 1990 के बाद सरकार ने जिन उदारवादी आर्थिक नीतियों पर अमल किया है, उसी का परिणाम है। यह पूँजीवाद लूट और दमन की व्यवस्था है। इसलिए अगर भ्रष्टाचार मिटाना है तो हमें पूँजीवाद और अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के विरुद्ध व्यापक आंदोलन और जागरण का अभियान चलाने की जरूरत है। यही वह जगह है जहाँ भाजपा जैसे दलों के लिए स्पेस नहीं रह जाता है। इस मामले में भाजपा काँग्रेस से बहुत अलग नहीं है। भले ही आज आन्दोलन से तात्कालिक लाभ बटोरने के लिए भाजपा जैसे दल अन्ना को समर्थन दे रहे हों तथा भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलित हों लेकिन जैसे जैसे आंदोलन अपने तीखे रूप में आगे बढ़ेगा, इन्हें हम आंदोलन से बाहर ही देखेंगे।

कहा जा रहा है कि अन्ना हजारे जिस लोकपाल को लाना चाहते हैं, वह संसद और सविधान की अवमानना है। पर सच्चाई क्या है ? हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई मजबूत कानून की व्यवस्था नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो, इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय।

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात को लेकर मतभेद है लेकिन अतीत में प्रधानमंत्री जैसे पद पर जब अंगुली उठती रही है तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है। सर्वदलीय बैठक में कई दलों के प्रवक्ता ने प्रधानमंत्री को इस दायरे में लाने की बात कही है और स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनसे मिलने गये सम्पादकों से कहा कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। फिर समस्या क्या है ? हमारा संविधान भी कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है। अगर भ्रष्टाचार कैसर जैसी असाध्य बीमारी का रूप ले चुका है तो उसका उपाय भी तो उसी स्तर पर करना होगा। ऐसे में सांसदो और राजनीतिक दलों की नैतिकता दांव पर है और सारे देश का ध्यान इस ओर है कि मानसून सत्र में देश का संसद लोकपाल विधेयक पर क्या रुख अपनाता है। इसके पास भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छा शक्ति है या नहीं ?

अन्त में, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लम्बी है। मजबूत और प्रभावकारी लोकपाल का गठन इसका पहला चरण हो सकता है। हम अन्ना हजारे से सहमत हो सकते है, असहमत हो सकते हैं या उनके विरोधी हो सकते है लेकिन यदि हम समझते है कि भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्र, समाज, जीवन, राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहा है तो समय की माँग है कि इस संघर्ष को अन्ना हजारे और उनके चन्द साथियों पर न छोड़कर देश के जगरूक नागरिक, देशभक्त, बुद्धिजीवी, ईमानदार राजनीतिज्ञ, लोकतांत्रिक संस्थाएँं, जन संगठन आगे आयें और इसे व्यापक जन आंदोलन का रूप दें।

एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 09807519227, 08400208031




अन्ना हजारे से सहमत हों या असहमत भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जरूरी है


कौशल किशोर

आज अन्ना हजारे और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को लेकर कई सवाल उठाये जा रहे हैं। साहित्यकार मुद्राराक्षस ने ;जनसंदेश टाइम्स, 4 जुलाई 2011द्ध आरोप लगाया है कि अन्ना भाजपा व राष्ट्रीय सेवक संघ का मुखौटा हैं और अन्ना के रूप में इन्हें ‘आसान झंडा’ मिल गया है। जन लोकपाल समिति में ऐसे लोग शामिल हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। अन्ना हजारे की यह माँग कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में ले आया जाय, संविधान के विरुद्ध है। मुद्राराक्षस ने यहाँ तक सवाल उठाया है कि अन्ना और उनकी सिविल सोसायटी पर संसद और संविधान की अवमानना का मुकदमा क्यों न दर्ज किया जाय ? ऐसे में अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पड़ताल जरूरी है क्योंकि आज यह आन्दोलन अपने अगले चरण की ओर अग्रसर है और जन आंदोलन की शक्तियाँ वैचारिक और सांगठनिक तैयारी में जुटी हैं।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि तमाम पार्टियाँ सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं। वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे भरने के लिए सिविल सोसाइटी और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे इसी यथार्थ की उपज हैं।

इस आंदोलन में, अन्ना हजारे के व्यक्तित्व और विचार में कमियाँ और कमजोरियाँ मिल सकती हैं। वे गाँधीवादी हैं। खुद गाँधीजी अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद स्वाधीनता आन्दोलन के बड़े नेता रहे हैं। इसी तरह अन्ना हजारे के विचारों और काम करने के तरीकों में अन्तर्विरोध संभव है लेकिन इसकी वजह से उनके आन्दोलन के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। इस आन्दोलन का सबसे बड़ा महत्व यही है कि इनके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद््दा आज केन्दीय मुद्दा बन गया है जिसने समाज के हर तबके को काफी गहरे संवेदित किया है और इसे खत्म करने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं। अन्ना हजारे और उनके आंदोलन की इस उपलब्धि को क्या अनदेखा किया जा सकता है कि 42 सालों से सरकार के ठंढ़े बस्ते में पड़ा लोकपाल विधेयक बाहर आया, उसे मजबूत और प्रभावकारी बनाने की चर्चा हो रही है, और इस पर सर्वदलीय बैठक आयोजित हुई।
हमारे यहाँ ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं जो हर आन्दोलनों से रहते तो दूर हैं, पर सूँघने की इनकी नाक बड़ी लम्बी होती है। हर ओर इन्हें साजिश ही नजर आती है। ये अन्ना द्वारा नरेन्द्र मोदी की तारीफ पर तो खूब शोर मचाते हैं, लेकिन इस सम्बन्ध में अन्ना ने जो सफाई दी, वह इन्हें सुनाई नहीं देता है। किसानों की आत्म हत्या, बहुराष्ट्रीय निगमों का शोषण, चालीस करोड़ से ज्यादा लोगों का गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन के लिए बाध्य किया जाना जैसे मुद्दे तो इन्हें संवेदित करते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जब प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात आती है तो वह उन्हें देश में आजादी के बाद पहली बार अल्पसंख्यक सिख समुदाय के प्रधानमंत्री को अपमानित करने का षडयंत्र नजर आता है। अपनी बौखलाहट में ये अन्ना और सिविल सोसाइटी पर जाँच बैठा कर मुकदमा चलाने की माँग करते हैं। ये इस सच्चाई को भुला बैठते हैं कि प्रधानमंत्री किसी समुदाय विशेष का न होकर वह सरकार का प्रतिनिधि होता है। हमारे इन बौद्धिकों को अन्ना द्वारा किसान आत्महत्याओं पर भूख हड़ताल न करने पर शिकायत है लेकिन किसान आंदोलनों पर सरकार के दमन पर ये चुप्पी साध लेते हैं।

हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार पूँजीवाद की देन है और खासतौर से 1990 के बाद सरकार ने जिन उदारवादी आर्थिक नीतियों पर अमल किया है, उसी का परिणाम है। यह पूँजीवाद लूट और दमन की व्यवस्था है। इसलिए अगर भ्रष्टाचार मिटाना है तो हमें पूँजीवाद और अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के विरुद्ध व्यापक आंदोलन और जागरण का अभियान चलाने की जरूरत है। यही वह जगह है जहाँ भाजपा जैसे दलों के लिए स्पेस नहीं रह जाता है। इस मामले में भाजपा काँग्रेस से बहुत अलग नहीं है। भले ही आज आन्दोलन से तात्कालिक लाभ बटोरने के लिए भाजपा जैसे दल अन्ना को समर्थन दे रहे हों तथा भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलित हों लेकिन जैसे जैसे आंदोलन अपने तीखे रूप में आगे बढ़ेगा, इन्हें हम आंदोलन से बाहर ही देखेंगे।

कहा जा रहा है कि अन्ना हजारे जिस लोकपाल को लाना चाहते हैं, वह संसद और सविधान की अवमानना है। पर सच्चाई क्या है ? हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई मजबूत कानून की व्यवस्था नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो, इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय।

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात को लेकर मतभेद है लेकिन अतीत में प्रधानमंत्री जैसे पद पर जब अंगुली उठती रही है तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है। सर्वदलीय बैठक में कई दलों के प्रवक्ता ने प्रधानमंत्री को इस दायरे में लाने की बात कही है और स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनसे मिलने गये सम्पादकों से कहा कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। फिर समस्या क्या है ? हमारा संविधान भी कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है। अगर भ्रष्टाचार कैसर जैसी असाध्य बीमारी का रूप ले चुका है तो उसका उपाय भी तो उसी स्तर पर करना होगा। ऐसे में सांसदो और राजनीतिक दलों की नैतिकता दांव पर है और सारे देश का ध्यान इस ओर है कि मानसून सत्र में देश का संसद लोकपाल विधेयक पर क्या रुख अपनाता है। इसके पास भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छा शक्ति है या नहीं ?

अन्त में, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लम्बी है। मजबूत और प्रभावकारी लोकपाल का गठन इसका पहला चरण हो सकता है। हम अन्ना हजारे से सहमत हो सकते है, असहमत हो सकते हैं या उनके विरोधी हो सकते है लेकिन यदि हम समझते है कि भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्र, समाज, जीवन, राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहा है तो समय की माँग है कि इस संघर्ष को अन्ना हजारे और उनके चन्द साथियों पर न छोड़कर देश के जगरूक नागरिक, देशभक्त, बुद्धिजीवी, ईमानदार राजनीतिज्ञ, लोकतांत्रिक संस्थाएँं, जन संगठन आगे आयें और इसे व्यापक जन आंदोलन का रूप दें।

एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 09807519227, 08400208031




जनतंत्र भ्रम फैलाने का शासन है



कौशल किशोर

बीते रविवार को सर्वदलीय बैठक में एक मजबूत और प्रभावकारी लाकपाल बिल को संसद के मानसून सत्र में लाने के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर की गई है। तेलुगू देशम सहित कई दलों ने इसके दायरे में प्रधानमंत्री को लाने की बात कही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनसे मिलने गये सम्पादकों से कहा कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। यह सब अन्ना हजारे की माँग का ही नैतिक समर्थन है। भले ही यह मनमोहन सिंह के निजी विचार हैं और इसका सरकार के दृष्टिकोण पर ज्यादा असर न पड़े । फिर भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह देश के प्रधानमंत्री के विचार हैं और जिन मुद्दों को लेकर सरकार और अन्ना हजारे के नागरिक समाज के बीच गतिरोध बना हुआ है, उनमें यह प्रमुख है। ऐसे में प्रधानमंत्री के इस कथन को क्या भावुकता में कही बातें समझी जाय या इसका कोई गंभीर निहितार्थ है ? इसे किस रूप में लिया जाय ?

हाल की घटनाओं ने जिन तथ्यों को उजागर किया है, उसे लेकर आम नागरिक काफी संवेदित है। आमतौर पर कहा जा रहा है कि मौजूदा तंत्र व व्यवस्था भ्रष्ट हो चुकी है। यह सरकार स्वयं कई घोटालों में फँसी है। उसके कई मंत्रियो को इन मामलों में जेल के सीखचों के पीछे जाना पड़ा है। भ्रष्टाचार से संघर्ष करने में सरकार द्वारा जो प्रतिबद्धता दिखाई जानी थी, इस सम्बन्ध में वह कमजोर साबित हुई है तथा लोकपाल बिल लाने के लिए भी वह तब तैयार हुई जब नागरिक समाज के आंदोलन का दबाव बना। और अब वह ऐसा लोकपाल लाना चाहती है जो नख दंत विहिन हो। आज ऐसी बातें आम चर्चा में है। इसने सरकार, कांग्रेस पार्टी तथा मंत्रियों की इमेज को धूमिल किया है।

इस सब के बावजूद इस सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व के बारे में अलग राय व्यक्त की जा रही है। इनके बारे में यही कहा जाता है कि वे स्वच्छ व ईमानदार छवि वाले एक अच्छे इन्सान है। वे कमजोर हो सकते हैं। उनका लोगों से संवाद कम हो सकता है। लेकिन उनके ऊपर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता है। अर्थात भले ही सरकार के पाप का घड़ा भर गया हो लेकिन उसका मुखिया पाक साफ है। सरकार, सŸाा प्रतिष्ठान, कांग्रेस पार्टी, मीडिया, राजनेताओं और बौद्धिकों के बड़े हिस्से द्वारा इसे अवधारणा के स्तर पर प्रचारित व स्थापित किया गया है।


आखिरकार राजनीति की इस परिघटना को किस रूप में देखा जाय ? अगर यह मौजूदा राजनीति की विसंगति है, तो इसकी व्याख्या कैसे की जाय ? मनमोहन सिंह एक ईमानदार व्यक्ति हैं और स्वयं इस विचार के हैं कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में आना चाहिए तो क्या यह कुर्सी मोह या मात्र सŸाा का मोह है जो उन्हें कथित ‘भ्रष्टाचार और घोटालों की सरकार’ का मुखिया बने रहने के लिए बाध्य किये हुए है ? उनकी अपनी नैतिकता क्या कठघरे में नहीं खड़ी है ?

बातें तो इससे भी आगे जाकर कही जा रही हैं कि मनमोहन सिंह की सरकार कठपुतली सरकार है और इसका रिमोट कन्ट्रोल दस जनपथ के पास है। इस सरकार में निर्णय लेने की इच्छा शक्ति नहीं है और मनमोहन सिंह कांग्रेस का असली चेहरा नहीं हैं। इस सबके बावजूद मनमोहन सिंह अपने दल और सरकार में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त करते हैं। सŸााधारी दल की इसके पीछे क्या मजबूरी हो सकती है ?

जहाँ तक सŸाा मोह या कुर्सी मोह की बात है, यह कहना इस विसंगति की सरलीकृत व्याख्या होगी। हकीकत तो यह है कि आज हमारी व्यवस्था राजनीतिक संकटों में फँसी है। सरकार ने जिन अमीरपरस्त नीतियों पर अमल किया है, उनसे अमीरी और गरीबी के बीच की खाई चौड़ी हुई है। सŸाा और सम्पति से बेदखल गरीबों का कोई पुरसाहाल नहीं है। वे लोग जिनके श्रम से देश चलता है, अपने हक और अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं। महँगाई और भ्रष्टाचार से हर तबका त्रस्त है। जनता के पास आज इतनी समस्याएँ है कि वह इसके बोझ के नीचे दब सी गई है। जितनी जटिल समस्याएँ हैं, उतने ही तरह के आन्दोलन भी उठ खड़े हुए हैं।

यह सरकार के लिए कठिन स्थिति है जब उसे एक तरफ अपनी नीतियों व एजेण्डे को अमल में लाना है, वहीं उसे इसका भी ख्याल रखना है कि उसकी विश्वसनीयता जनता के बीच कायम रहे। हमारी राजनीतिक प्रणाली संसदीय जनतंात्रिक है। इसकी यही खूबी है कि जिन मतदाताओं के बूते राजनीतिक पार्टी सरकार बनाती है, उसी के ऊपर उसे शासन करना होता है और आगे शासन में बने रहने के लिए उसे उन्हीं मतदाताओं के पास जाना होता है। संकट उस वक्त आता है जब सरकार की घोषित नीतियाँ तो कुछ और होती हैं, पर अघोषित नतियाँ कुछ और हैं जिन पर वह अमल करती है। ऐसे में इस राजनीतिक प्रणाली की वजह से सŸााधारी दलों और उनकी सरकार को दोहरे दबाव में काम करना होता है। यही उनके चरित्र में भी दोहरापन लाता है।

इब्राहिम लिंकन ने जनतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि यह जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है। लेकिन आज के राजनीतिक संकट के युग में यह परिभाषा बहुत प्रासंगिक नहीं रह गई है। बल्कि आज तो जनतंत्र जनता में भ्रम पैदा करने वाला शासन है जो धूर्तता और पाखण्ड के सहारे चलता है। जनता में अपना विश्वास जमाने, भ्रम पैदा करने तथा उसे अपने पक्ष में करने के लिए शासक दल, उनकी सरकारें जनता के हाव.भाव, जीवन शैली, जनता के नारे व मुद्दे अपना लेते हैं। जनतंत्र में शासक वर्ग के लिए यह जरूरी होता है क्योंकि अपनी इन्हीं तरकीबों से वह अपनी सŸाा को स्थिर करता है तथा अपनी वास्तविक नीतियों को बेरोक.टोक लागू करने में सफल हो पाता है। इंदिरा गांधी इस राजनीति की कुशल खिलाड़ी थी। उन्होंने ‘गरीबी हटाओ, समाजवाद लाओ’ के नारे के साथ देश को तानाशाही का ‘तोहफा’ दिया था। बाद के सŸाधारी दलों और उनकी सरकारों ने इसी तरह के भ्रम पर अमल किया है। आज जब मनमोहन सिंह अपने को लोकपाल के दायरे में लाने की बात करते है तो वे उसी भ्रम को फैला रहे होते हैं तथा इसका मकसद भ्रष्टाचार को लेकर जनता में उभर रहे जन असंतोष को अपने में समायोजित कर लेना है।

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शनिवार, 11 जून 2011

यह अघोषित अपातकाल तो नहीं ?


कौशल किशोर

‘वे डरते हैं/किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन दौलत/गोला.बारूद.पुलिस.फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं/कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग/उनसे डरना बंद कर देंगे’

चार जून की मध्यरात्रि में देश की राजधानी दिल्ली में सरकारी दमन का जो कहर बरपाया गया, उसे देखते हुए गोरख पाण्डेय की यह कविता बरबस याद हो आती है। साथ ही यह सवाल उठ रहा है कि क्या 1975 का इतिहास अपने को फिर से दोहराने जा रहा है?

वह भी जून का महीना था। न सिर्फ मौसम का तापमान अपने उच्चतम डिग्री पर था बल्कि जनविक्षोभ की ज्वाला भी अपने चरम रूप में धधक रही थी। ऐसी ही हालत तथा वह भी काली रात थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लागू किया था। उस वक्त इंदिरा गाँधी के हाथ से सत्ता फिसल रही थी और अपनी कुर्सी को बचाने के लिए उनके पास यही विकल्प बचा था कि वे जनता की आजादी छीन लें, उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का अपहरण कर ले।

आज देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी चार जून की रात की घटना पर यही कह रहे हैं कि उनके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था। अर्थात निहत्थी जनता के विरुद्ध रैपीड एक्शन फोर्स। यह जनता अपनी चुनी सरकार से यही तो माँग कर रही थी कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो, भ्रष्टाचारियों को मृत्यंदण्ड मिले, देश से ले जाये गये काले धन की एक.एक पाई देश में वापस आये, उसे राष्ट्रीय सम्पति घोषित किया जाय और इसका इस्तेमाल समाज कल्याण के कार्यों में हो। जनता यही तो जानना चाहती थी कि काली कमाई जमा किये और काला धंधा करने वाले ये देशद्रोही कौन हैं ?

दरअसल जनता के इन सवालों का भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। भ्रष्टाचार, कालेधन आदि के सवाल को लेकर जो जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ है, उससे वह काफी डरी हुई। देखा गया है कि जनता जब जब निडर होकर शासकों के सामने खड़ी हुई हैं, शासकों ने जनता के अधिकारों पर हमले किये हैं और लोकतंत्र को अपना निशाना बनाया है। 1975 में इंदिरा गाँधी द्वारा आपातकाल का लागू किया जाना जन आंदोलनों से डरी सरकार का ही कृत्य था। आज मनमोहन सिंह भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से काफी भयभीत हैं। इसीलिए रामलीला मैदान में रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल लोगों पर दमन को एक डरी हुई सरकार की कायरतापूर्ण कार्रवाई ही कहा जायेगा।

जहाँ तक हाल के भष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात है, इसने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि ये तमाम सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं।

वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे ही भरने के लिए नागरिक समाज और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे से लेकर रामदेव इसी यथार्थ की उपज हैं। इस आंदोलन में कमियाँ और कमजोरियाँ हो सकती हैं। फिर भी इनके द्वारा उठाये गये भ्रष्टाचार व कालेधन की वापसी जैसे मुद्दों ने नागरिक समाज को काफी गहरे संवेदित किया है और यही कारण है कि इनके आहवान पर बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं।

लेकिन बाबा रामदेव का व्यक्तित्व शुरू से ही विवादित रहा है। अन्ना हजारे ने जब अपना आंदोलन जंतर.मंतर पर खतम किया, उसी समय से बाबा रामदेव की राजनीतिक महत्वकाँक्षा सिर चढ़कर बोल रही थी। इसकी अभिव्यक्ति उनके ढ़ुलमुलपन और अवसरवाद में हो रही थी। कभी तो वे सरकार के साथ मोल.तोल करने वाले बनिया जैसे लगते थे तो कभी नागरिक समाज द्वारा प्रस्तावित विधेयक को कमजोर करने वाले सरकारी प्रतिनिधि नजर आते थे। उन्होंने लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री और न्यायाधीशों को जाँच के दायरे में शामिल न किये जाने की बात करके सरकार को खुश करने की कोशिश भी की थी। जहाँ अन्ना हजारे ने अपने आन्दोलन को स्वायत बनाये रखा था तथा स्थापित राजनीतिक दलो से इसकी दूरी थी, वहीं रामदेव ने अपने मुहिम के लिए भाजपा और संघ परिवार के नेटवर्क का इस्तेमाल किया।

इस सबके वावजूद पुलिसिया दमन और आतंक को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर हमले ने एक बात साबित कर दिया है कि यह सरकार कारपोरेट हितों के विरुद्ध किसी भी असली या नकली प्रतिरोध को झेल नहीं सकती। एक और बात, चार जून की कार्रवाई को मात्र रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दमन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। अब तो सरकार ने किसी भी आंदोलन, धरना व प्रदर्शन पर दमन का रास्ता साफ कर दिया है। अपने इस कृत्य के द्वारा वह जन आंदोलनों को संदेश भी देना चाहती है कि उनसे निपटने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।

इसीलिए दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी गयी है और हर तरह के धरना.प्रदर्शन पर रोक लगा दिया गया। अपना विरोध जताने और अपनी मांगों को बुलन्द करने के लिए जनता दिल्ली नहीं पहुँच सकती। यदि किसी तरह पहुँच भी गयी तो वहाँ उसके स्वागत के लिए लाठी, आंसूगैस, पानी की तेज बौछारें और जेल है। बहुत हुआ तो आप राजघाट पर उपवास कर सकते हैं। पर यह भी सरकार की इच्छा पर निर्भर है। देश के कई हिस्सों में चल रहे किसान आंदोलन, आदिवासियों के आंदोलन तथा बड़ी देशी.विदेशी पूँजी के दोहन के खिलाफ चल रहे आंदोलनों पर तो सरकारी दमन पहले से ही जारी है। अब देश की राजधानी दिल्ली इसका अपवाद नहीं बनी रह सकती। उसे देश के अन्दर के भागों में मौजूद ‘लोकतंत्र’ का आईना बनना ही है।

ऐसे में चार जून की रात की घटना के दमनकारी अभिप्राय को कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। क्या यह अघोषित आपातकाल जैसी हालात नहीं है? ऐसा अघोषित आपातकाल जिसमें देश में संविधान, लोकतांत्रिक ढाँचा, संसदीय व्यवस्था, चुनी हुई सरकार हो, पर विरोध और असहमति की जगहें न हो। ऐसा लोकतंत्र जिसका ढ़िढ़ोरा सारी दुनिया में खूब जोर.शोर से पीटा जाय पर जिसकी संस्कृति हो -ं बर्दाश्त करिये और चुप रहिए, अपने को बचाकर चलिए और दुम हिलाइये। जन आंदोलनों से घिरी और दमन पर उतारू सरकार ने क्या यही हालत नहीं पैदा कर दी है ?

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गुरुवार, 12 मई 2011

लोकरंग - 2011 भड़ैती व फूहड़पन के विरुद्ध जन संस्कृति का अभियान





कौशल किशोर

हमारे यहाँ लोक संस्कृति की समृद्ध परम्परा रही है, पर आज इसे शक्तिविहीन कर लोकरुचि को नष्ट. भ्रष्ट करने का माध्यम बनाया जा रहा है। इसे फूहड़पन, अश्लीलता, भड़ैती का पर्याय बनाकर परोसा जा रहा है। उŸार प्रदेश के पूर्वांचल से लेकर इससे सटे बिहार तक फैली पट्टी में इसी से भोजपुरी की पहचान बनाई जा रही है। अश्लील भोजपुरी फिल्मों और गानों की तो जैसे बाढ़ आ गई है। बाजार की शक्तियों ने लोकगीतों को अपने मुनाफे का साधन बना दिया है। सरकार की लोक सांस्कृतिक नीति भी यही है कि इसे बाजार की वस्तु बना दिया जाय, देश व दुनिया के बाजार में माल की तरह या सरकारी आयोजनों में दिखावे व प्रदर्श
न की वस्तु बनाकर पेश किया जाय।

ऐसे में इस अपसंस्कृति का प्रतिरोध व विकल्प के बतौर लोक संस्कृति के जन सांस्कृतिक मूल्यों के संवर्द्धन के लिए ‘लोकरंग’ का आयोजन पूर्वांचल की इस पट्टी में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक घटना है जो गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर से कोई बीस किलोमीटर दूर जोगिया जनूबा पट्टी, फाजिलनगर में पिछले चार सालों से आयोजित हो रहा है। सांस्कृतिक भड़ैती व फूहड़पन के प्रभाव वाले इस क्षेत्र में हिन्दी कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा के संयोजन में लोकरंग सांस्कृतिक समिति के इस अभियान से परिवर्तन की नई लहर को महसूस किया जा सकता है, खासतौर से इसने नौजवानों में नई संस्कृतिक चेतना पैदा की है और देश के संस्कृतिप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित किया है। यही कारण है कि देश के कई प्रान्तों से संस्कृतिकर्मी, लेखक व कलाकार यहाँ जुटते हैं, नाट्य व गायन मंडलियाँ यहाँ आती हैं और इस लोक सांस्कृतिक अभियान में हर साल नया रंग भरती
हैं।

इसी क्रम में बीते 26 व 27 अप्रैल को दो दिवसीय लोकरंग-2011 का आयोजन हुआ जिसमें विविध लोककलाओं, लोकगीतों, नाटकों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रदर्शन किया गया। पूर्वी उŸार प्रदेश के विद्रोही स्वर रामाधार त्रिपाठी ‘जीवन’ (1903-1977) की याद को समर्पित इस बार के ‘लोकरंग’ की खासियत यह थी कि यह आयोजन गाँव में नवनिर्मित परिसर तथा मुक्ताकाशी मंच पर हुआ। यह परिसर कलाकारों के लिए सारी सुविधाओं से सुसज्जित था। यहाँ कलाकारों के ठहरने से लेकर उनके सजने-संवरने की व्यवस्था थी। नये परिसर का निर्माण कोई सामान्य सी घटना नहीं है, यह उस संकल्प व प्रतिबद्धता का प्रतीक है जो अपसंस्कृति के विरुद्ध संघर्ष के जज्बे से पैदा हुआ है। यह इस बात का भी प्रतीक बनकर उभरा है कि कोई चार साल पहले पूर्वांचल में गायन, वादन, नृत्य, नाटक, साहित्य आदि के लोककला रूपों के प्रदर्शन के माध्यम से जो यात्रा शुरू हुई थी, उसने सघनता और स्थाईत्व ग्रहण कर लिया है।

लोकरंग-2011 का उदघाटन हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक व जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ मैनेजर पाण्डेय ने किया। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि लोक संस्कृति में लोक की ताकत, आपस में जोड़ने की श्क्ति, गति और वातावरण को अपने में समेटने की क्षमता होती है। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से लोककलाएँ भाषा व बोलियों की दीवार को तोड़ देती हैं तथा इसकी गूँज दूर.दूर तक सुनी व समझी जाती हैं। विद्यापति मैथिली के कवि हैं, मीरा बाई राजस्थान की हैं लेकिन इन्हें देश के हर हिस्से में सुना व समझा जाता है। लोककलाएँ हमें गतिशील बनाती हैं। जहाँ हम हैं, उससे ऊपर उठाती हैं तथा बेहतर मनुष्य बनाती हैं। अपने इन्हीं मानवीय मूल्यों की वजह से आज भी लोक संस्कृति और लोक कला हमारे लिए प्रेरक व मूल्यवान हैं। लेकिन आज बाजार की शक्तियाँ लोककलाओं को निगल जाना चाहती हैं। ऐसे में ‘लोकरंग’ जैसे कार्यक्रम लोककलाओं को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मैनेजर पाण्डेय ने इस मौके पर प्रकाशित ‘लोकरंग -2’ पुस्तक तथा
लोकरंग-2011 स्मारिका का लोकार्पण भी किया।

मैनेजर पाण्डेय ने लोक संस्कृति की जिन विशेषताओं की चर्चा अपने सम्बोधन में की, उसकी झलक लगातार लोकरंग के कार्यक्रम में मिलती रही। कार्यक्रम की शुरुआत जोगिया जनूबा पट्टी गाँव की महिलाओं के सोहर व कजरी गायन से हुआ। यहाँ परदे में रहने वाली गाँव की महिलाओं के अन्दर कीं दबी.छिपी कला अभिव्यक्त हो रही थी - ‘रिमझिम बरसेला सवनवा, नाहीं अइने मोहनवा ना.....’। मीरा कुशवाहा और उनके साथियों के गीत में जहाँ विरह वेदना थी, वहीं हिरावल, पटना के कलाकार सुमन कुमार और साथियों ने गोरख पाण्डेय के गीत ‘एक दिन राजा मरले आसमान में उड़त मैना...’ और ‘जनता के आवे पलटनिया हिलेला झकझोर दुनिया....’ सुनाकर दुनिया को बदल देने वाली जन की शक्ति से परिचित कराया। जौरा बाजार के चिंतामणि प्रजापति और उनके साथियों द्वारा खजड़ी वादन तथा निर्गुन गायन प्रस्तुत किया गया। अंटू तिवारी ने भोजपुरी गीतों के द्वारा अपनी माटी से श्रोताओं को रु-ब-रु कराया।

जहाँ पिछले साल लोकरंग में छŸाीसगढ़ व बुंदेलखण्ड की लोक संस्कृतियों की छटा बिखरी थी,
वहीं इस बार अवधी लोक समूह, फैजाबाद द्वारा प्रस्तुत फरुवाही नृत्य ने तो सभी को रोमांचित कर दिया। शीतला प्रसाद वर्मा के निर्देशन में तैयार इस नृत्य में कलाकारों की गति व लयबद्धता सभी को मंत्रमुग्ध कर देने वाली थी। गौरतलब है कि यह नृत्य फसल के तैयार होने और कटाई के समय किया जाता है। लोकरंग के इस आयोजन में जहाँ दर्शकों ने महोबा शैली में चन्द्रभान सिंह यादव और उनके साथियों के आल्हा गायन का आस्वादन किया, व
हीं बुन्देली कछवाहा समाज द्वारा अवधूती शब्दों के गायन का आनन्द लिया। देवी दयाल कुशवाहा, रामरती कुशवाहा और उनके साथियों द्वारा पेश किये इस गायन का नेतृत्व डॉ0 रामभजन सिंह ने किया। इस तरह लोकरंग के इस आयोजन में एक साथ न सिर्फ भोजपुरी बल्कि अवघी और बुन्देली लोक गायन व कला का प्रदर्शन हुआ।

लोकरंग के मंच पर लोगों को लोक कलाकर भिखारी ठाकुर का नाटक भी देखने को मिला। अवसर था संजय उपाध्याय के निर्देशन में निर्माण कला मंच पटना की नाट्य प्रस्तुति ‘बिदेसिया’। लोक नाट्य विधा की यही खूबी है कि इसमें सिर्फ कथ्य, संवाद व अभिनय ही नहीं होता, यहाँ गायन, स्वर, नृत्य, एक्शन, भाव आदि का भी समिश्रण होता है। यह सब ‘बिदेसिया’ में था। नाटक खत्म होने के बाद भी लोगों के दिलो-दिमाग
पर बिदेसिया के दृश्य गूँजते रहे। आज भी यह कहानी उन्हें अपनी लग रही थी। भले ही कल युवक अपनी रोजी-रोटी की तलाश में कलकŸाा जैसे शहर जा बिदेसिया बन जाते थे और उसके मायाजाल में फँस जाते थे, पर पलायन की यह प्रवृŸिा आज भी जारी है। युवकों का विदेश की ओर तेजी से पलायन आज भी हो रहा है। ब्रेन माइग्रेशन की यही
कहानी है भिखारी ठाकुर के ‘बदेसिया’ की। कलाकारों के उत्कृष्ट अभिनय, संवाद, नृत्य, गायन ने ऐसा समा बाँधा था कि लोग कह उठे - ‘हमहूँ देखली भिखारी के तमाशा’। लोग जिन्होंने भिखारी ठाकुर का नाम सुन रखा था, पar उनकी कला से परिचय नहीं था, उनके लिए भिखारी और उनकी कला सजीव हो उठी थी।

ऐसा ही भाव निर्माण कला मंच की दूसरी नाट्य प्रस्तुति ‘हरसिंगार’ में भी देखने को मिला। संजय उपाध्याय के निर्देशन में मंचित यह नाटक इस बात को सामने लाता है कि बाजारवाद ने हमारे समाज के हर महत्वपूर्ण पद को, रिश्तों को सतही बना दिया है। यह नाटक अपने बिखरे वितान में इसी पतनशील प्रवृŸिा को टटोलने की कोशिश करता है। पारम्परिक लोक नाट्य ‘डोमकच’ के हरबिसना व हरबिसनी की यह कथा छल-फरेब में फँसती है। ये ठगी का शिकार होते हैं। यह कथा स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के कई अनछुए पहलुओं को उजागर करती है और अंततः जीवन के जीत की गाथा में बदल जाती है।

लोकरंग के आयोजन की खासियत रही है कि यहाँ न सिर्फ लोककलाओं के विविध कार्यक्रम होते हैं बल्कि इनके साथ-साथ लोक संस्कृति की वैचारिकी पर भी चर्चा होती है। जहाँ पिछले साल विचार गोष्ठी का विषय था ‘लोकगीतों की प्रासंगिकता’, वहीं इस बार चर्चा का विषय था ‘लोक संस्कृति में मिथ की प्रासंगिकता’। इस गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि मिथक, लोककथा, लोकगाथा, लोक रीति, लोक विश्वास, लोकरुचि, लोक रीति-रिवाज आदि सब एक नहीं है। इनका अलग-अलग रूप व अर्थ है। मनुष्य का सबसे पहले सामना सूरज से हुआ। इसे लेकर मिथ की रचना हुई, चाहे बोध कृतज्ञता से हुई हो या भय से। इसी तरह तमाम कथाएँ रची गईं। कथा तो स्वाभाव से मिथकीय होती है। मिथकों के आधार पर ही महाकाव्यों की रचना हुई। देवता का बनाना भी मिथकीय क्रिया है।

मैनेजर पाण्डेय ने इतिहास से मिथकों के गहरे रिश्ते को समझने पर जोर देते हुए कहा कि मिथकों को बेवजह महिमा मंडित करने की जरूरत नहीं है। बल्कि ज्यादा जरूरी है कि मिथकों का वर्गीय आधार पर विश्लेषण किया जाय। आधुनिक सŸाा ने भूमण्डलीकरण का मिथक कि इसका कोई विकल्प नहीं, विचारधारा का अंत हो गया है जैसे मिथक गढ़े हैं। देश की सरकार भी आज विकास का मिथक गढ़ रही है और इसका आईना दलाल स्ट्रीट मुम्बई का सूचकांक है। सŸाा लोक की धन सम्पदा का ही अपहरण नहीं करती बल्कि वह संस्कृति और दिमाग पर भी कब्जा करने की कोशिश करती है। इसलिए मिथकों पर कब्जा करने की राजनीति पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। सŸाा ने लोक संस्कृति व मिथकों की पहले उपेक्षा की, विरोध किया और इससे काम नहीं चला तो उन्हें विकृत कर दिया। हमें लोक संस्कृति के प्रति आलोचनात्मक, यथार्थवादी और विवेकपूर्ण नजरिया अपनाने की जरूरत है। जिस ‘लोक’ की चर्चा है, वह वास्तव में अंग्रेजी के ‘फोक’ का अनुवाद है। हमें लोक के बदले जन शब्द पर बल देने की जरूरत है। जन संस्कृति का मुख्य आधार प्रेम, स्वतंत्रता, समता और अन्याय का प्रतिकार रहा है। जन संस्कृति की हर रचनाशीलता में ये तत्व मिलेंगे।

वरिष्ठ लेखक डॉ तैयब हुसैन ने विषय प्रवर्तन किया तथा गोष्ठी को मिथ के समाजशास्त्र पर काम करने वाले डॉ गोरे लाल चंदेल, हिन्दी कवि दिनेश कुशवाहा, युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी, डॉ प्रफुल्ल कुमार सिंह ‘मान’, कथाकार मदन मोहन, पत्रकार अशोक चौधरी, रंगकर्मी सुधांशु कुमार चक्रवर्ती आदि ने भी सम्बोधित किया। वक्ताओं का कहना था कि मिथक चाकू की तरह है। यदि किसी डॉक्टर के हाथ लग जाय जान बचा देगा लेकिन किसी हत्यारे के हाथ में आ जाय तो वह जान ले लेगा। लोक संस्कृति में सबकुछ ठीक नहीं है। इसमें से अपने हित की बात को लेना होगा। अप संस्कृति और जन संस्कृति में सदियों से टकराव रहा है। सबसे ज्यादा मिथकों का निर्माण दलितों ने किया है। मिथक लोकजीवन में ऐसे रचे.बसे हैं कि इनसे छेड़.छाड़ लगभग नामुमकिन है। मिथक जब निर्मित हो जाते हैं तो ये सत्य से भी ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हैं।

वक्ताओं का कहना था कि लोक संस्कृति और मिथ दोनों ‘जल में कुंभ’, कुंभ में जल’ की तरह है। पौराणिक मिथ ज्यों का त्यों लोकमिथ में नहीं आता। लोक संस्कृति में मिथ लोक को ऊर्जा एवं शक्ति देता है। जो मिथ लोक के जीवन के लिए उपयोगी नहीं है, वह मिथ लोक से बाहर हो जायेगा। उदाहरण के लिए ‘गउरा उत्सव’ को लिया जा सकता है। शिव पार्वती विवाह लोक संस्कृति में गउरा उत्सव का रूप लेता है जिसमें समाज के हर हिस्से से अलग अलग वस्तुएँ इक्ट्ठा की जाती है और ‘जागो गौरी, जागो गौरा, जागो लोगा...’ से उत्सव आगे बढ़ता है। लोक संस्कृति की यही विशेषता है कि इसमें सामूहकिता की संस्कृति है। पौराणिक नायक ‘ही मैन’ होता है, वहीं लोक नायक अपने में समह की ताकत को समाहित करके चलता है।

‘लोकरंग’ के दो दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संचालन कवि दिनेश कुशवाहा ने तथा विचार गोष्ठी का संचालन कवि व जसम लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने किया। धन्यवाद ज्ञापन दिया हिन्दी कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा ने। इस अवसर पर लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने कलाकारों, साहित्यकारों आदि को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित भी किया। लेनिन पुस्तक केन्द्र, लखनऊ तथा गोरखपुर ्िफल्म फेस्टिवल की ओर से इस मौके पर बुक स्टॉल भी लगाया गया। जोगिया के स्त्री-पुरुषों ने जिस तरह से गाँव को सजाया था, वह उनके अन्दर अपनी संस्कृति के प्रति लगाव को दिखाता है। पूरे गाँव के रास्तों से लेकर डेहरियों व बखारों को सुन्दर कलाकृतियों से सजाया गया था। नागार्जुन, फैज, शमशेर, केदार, धूमिल, मुक्तिबोध, गोरख पाण्डेय, वीरेन डंगवाल आलोक धन्वा आदि कवियों की कविताओं के पोस्टर हर आने वालों को अपनी ओर बरबस खींच रहे थे। लोकरंग ने जोगिया को लोककला के गाँव में बदल दिया था।

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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

यह दलित विरोधी पत्रकारिता है


कौशल किशोर

हमारी पत्रकारिता का हिन्दूवादी.ब्राहमणवादी चेहरा अक्सरहाँ हमें दिख जाता है। सामान्य स्थितियों में तो यह आधुनिक, प्रगतिशील, निष्पक्ष, लोकतांत्रिक होने का स्वाँग करता हुआ हमें दिखता है। लेकिन जब भी इसके अन्तर्मन पर चोट पड़ती है या जब भी इसके अन्दर बैठे किसी ब्रहमण या सवर्ण पर प्रहार होता है तब यह तिलमिला उठता है। ऐसे में इसकी सारी बड़ी बड़ी बातें धरी की धरी रह जाती हैं। लखनऊ में हुए दलित नाट्य महोत्सव में हमें पत्रकारिता का ऐसा ही चेहरा देखने को मिला।
लखनऊ में डॉ अम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल 2011 से यहाँ दलित नाट्य महोत्सव शुरू हुआ जो 16 अप्रैल तक चला। इस महोत्सव का आयोजन शहर की सामाजिक संस्था अलग दुनिया ने किया था। इसके अन्तर्गत तीन नाटक दिखाये गये। 14 अप्रैल को राजेश कुमार का लिखा ‘अम्बेडकर और गाँधी’ का मंचन दिल्ली की संस्था अस्मिता थियेटर ग्रूप ने किया। इसका निर्देशन जाने.माने निर्देशक अरविन्द गौड़ का था। दूसरे दिन मराठी लेखक प्रेमचंद गज्वी का लिखा नाटक ‘महाब्राहमण’ का मंचन मयंक नाट्य संस्था, बरेली ने किया। इसका निर्देशन राकेश श्रीवास्तव ने किया था। समारोह के अन्तिम दिन 16 अप्रैल को राजेश कुमार द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक ‘सत भाषे रैदास’ का मंचन शाहजहाँपुर की संस्था अभिव्यक्ति ने किया। नाट्य प्रर्दशन के दौरान चचा.परिचर्चा भी होती रही जो दलित रंगमंच की जरूरत क्यों है, इस रग आंदोलन की दिशा क्या हो, जन नाट्य आंदोलन से इसका रिश्ता क्या है आदि विषय पर केन्द्रित थी। वरिष्ठ नाट्य निर्देशक सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, आलोचक वीरेन्द्र यादव, दलित चिन्तक अरुण खोटे, राजेश कुमार, कुष्णकांत वत्स आदि ने इस चर्चा में भाग लिया।
इन नाटकों ने धर्म, अस्पृश्यता, वर्णवादी व्यवस्था, गैरबराबरी, समाजिक शोषण, ब्राहमणवाद जैसे मुद्दों को उठाया और इस बात को रेखांकित किया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान व कानून का शासन होने के बावजूद आज भी समाजिक तौर पर ऐसे मूल्य मौजूद हैं जो शोषण व उत्पीड़न पर आधारित हैं तथा मनुष्य विरोधी हैं। आज की सŸाा द्वारा ये संरक्षित भी हैं। इस व्यवस्था को बदले बिना दलितो.शोषितों की मुक्ति संभव नहीं है। चेतना और प्रतिरोध पर केन्द्रित इस नाट्य समारोह का यही मूल सन्देश था। इस आयोजन की एक खासियत यह भी देखने में आई कि नाटकों को देखने बड़ी संख्या में लोग आये। ये दर्शक नाटक देखा और चल दिये से अलग और लखनऊ रंगमंच के पारम्परिक दर्शकों से भिन्न थे। तीन दिनों तक हॉल भरा रहा बल्कि काफी दर्शकों को जगह न मिलने पर वे सीढ़ियों पर बैठकर या खड़े होकर नाटक देखा। नाटक और उसकी थीम से उनका जुड़ाव ही कहा जायेगा कि नाटक खत्म होने के बाद भी विचार विमर्श, बहस.मुबाहिसा, बातचीत का क्रम चलता रहा । यह एक नई बात थी जो इस समारोह में देखने को मिली।
यह नाट्य समारोह लखनऊ में पहली बार आयोजित हो रहा था। हिन्दी प्रदेश में इस तरह का यह पहला दलित नाट्य समारोह का आयोजन था। इस आयोजन के प्रचार के लिए आयोजकों द्वारा प्रेस कान्फ्रेन्स बुलाया गया। उस प्रेस वार्ता में डेढ़ दर्जन से अधिक अखबारों के प्रतिनिधि आये। उन्होंने आयोजकों से दलित नाटकों को लेकर कई सवाल भी किये और उन्होंने प्रेस प्रतिनिधियों को संतुष्ट भी किया। आयोजकों की ओर से प्रेस विज्ञप्ति भी बाँटी गई जिसमें इस आयोजन के पीछे क्या उद्देश्य है से लेकर इस दलित नाट्य महोत्सव में कौन कौन से नाटकों का प्रदर्शन होगा का विस्तार से उल्लेख था। लेकिन दूसरे दिन यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि किसी अखबार ने दलित नाट्य महोत्सव का कोई समाचार नहीं छापा था। आखिर अखबार के इस रवैये के बारे में क्या कहा जाय ? अखबार के इस रुख को देखकर कुछ ही दिन पहले लखनऊ में ‘मीडिया और दलित’ विषय पर आयोजित सेमिनार की याद हो आई। उक्त सेमिनार की खबरें भी अखबार से गायब थीं। यह अनायास नहीं हुआ है बल्कि उस दलित विरोधी मानसिकता की वजह से हुआ है या हो रहा है जो हिन्दी प्रदेशों के समाचार पत्रों में जड़ जमाये बैठा है।
ल्ेकिन तीन दिनों तक चले इस नाट्य समारोह में दर्शकों की भागीदारी और प्रस्तुति की श्रेष्ठता का दबाव ही था कि लखनऊ के अधिकांश अखबारों द्वारा इस समारोह की उपेक्षा नहीं की जा सकी, भले ही इसकी रिपोर्ट छापने के साथ अपनी ओर से उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ भी प्रकाशित की। इस मामले में अंग्रेजी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के लखनऊ ने तो हद ही कर दी। इस अखबार ने नाटकों की कथावस्तु, निर्देशन, अभिनय, संगीत आदि विविध पक्षों पर एक शब्द नहीं लिखा तथा उसकी कोई रिपोर्ट या समीक्षा प्रकाशित नहीं की। बेशक अखबार के रिपोर्टर ने इस नाट्य समारोह को ‘स्टेजिंग ए नेम गेम’ शीर्षक से एक बड़ी सी खबर जरूर प्रकाशित की। इसे खबर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मात्र दलित विरोधियों व सामाजिक सरोकार से दूर कलाकारों के विचार थे। ये विचार जरूर गौरतलब हैं। इनका कहना था कि दलित के नाम पर नाटक समारोह का आयोजन जनता के साथ मजाक है, यह राखी सावंत जैसे सस्ते प्रचार का तरीका है। इसके माध्यम से रंगमंच के क्षेत्र में जातिवाद को बढ़ाना है तथा रंगमंच को विभाजित कर दलित के नाम पर बनी मौजूदा सरकार से लाभ लेना है। आयोजकों के इस तरह के आयोजन के पीछे मात्र निहित स्वार्थ है।
इस दलित नाट्य समारोह पर ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में जिनकी टिप्पणियाँ प्रकाशित की गई, ये वे कलाकार व निर्देशक हैं जो लगातार नाटक में विचार व राजनीति का विरोध करते हैं और नाटक में कलावाद के पक्षपोषक हैं। इनकी इस कलावादी अवधारण के विरुद्ध लखनऊ रंगमंच में विवाद व बहस भी जारी है। इन दक्षिणपंथी कलाकारों का दलित विरोधी होना और दलित नाट्य समारोह का विरोध करना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन जब इप्टा जैसी प्रगतिशील नाट्य संस्था से जुड़े कलाकार व निर्देशक इनके साथ एकताबद्ध हो जाते हैं, तब हमें समझना जरूरी है कि ब्राहमणवादी मानसिकता कितने गहरे हमारे अन्दर जड़ जमाये बैठी हुई है जो हर कठिन समय में प्रगतिशीलों में उभर कर सामने आ जाती है। इस मायने में कहा जाय तो यह दलित नाट्य समारोह की सफलता ही है कि उसने बहुतों की नकली प्रगतिशीलता का पर्दाफाश किया है।
यहाँ इस तथ्य का उल्लेख जरूरी है कि इस नाट्य समारोह में जिस ‘सत भाषै रैदास’ नाटक का मंचन हुआ, उसे प्रदेश सरकार के संस्कृति निदेशालय ने मंचन को पिछले साल प्रदेश सरकार ने रोक दिया था क्योंकि इस नाटक में रैदास का जो सामंतवाद व ब्राहमणवाद विरोधी रूप उजागर किया गया था, उससे प्रदेश की मौजूदा सरकार की समरसता की अवधारणा पर चोट पड़ती थी। इस समारोह में उस नाटक का प्रदर्शन मौजूदा सŸाा के उस संस्कृतिविरोधी रवैये का प्रतिवाद था।
किसी नाटक या किसी नाट्य समारोह को लेकर सवाल उठाना, इसके मुद्दो पर बहस व वाद.विवाद संचालित करना कहीं से गलत नहीं है। यह होना भी चाहिए। लेकिन नाटक को लेकर एक शब्द नहीं, मात्र कुछ लोगों के एकाँगी विचारों को प्रकाशित करना, दूसरे पक्ष के विचारों को सामने न आने देना तथा आयोजनकर्ता संस्था के बारे में गलत तथ्य पेश करना - यह कौन सी पत्रकारिता है ? यह सारा अभियान क्या अस्वस्थ व दलित विरोधी मानसिकता की उपज नहीं है ?
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