शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

‘रेवान्त’ का लोकार्पण:


मूल्यहीनता के इस दौर में
साहित्य जागरण का माध्यम बने

कौशल किशोर

कला और साहित्य दुनिया में सामाजिक
बदलाव के लिए चले राजनीतिक व सामाजिक आंदोलन का न सिर्फ आईना रहा है बल्कि वह बेहतर समाज के निर्माण के संघर्ष में
प्रेरक भी बनता रहा है। इतिहास में उदाहरणों की कमी नहीं है। फ्रांस की राज्य क्रान्ति हो या रूसी क्रान्ति, इस संदर्भ में साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। रूसी क्राति के संदर्भ में हम देखते हैं कि टाॅल्सटाय, गोर्की, चेखव के साहित्य ने जागरण का काम किया। टाॅल्सटाय के साहित्य को स्वयं लेनिन ने रूसी क्रान्ति का दर्पण कहा था। हमारा साहित्य भी राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ा रहा है तथा इस दौर में निकलने वाली ‘हंस’, ‘सरस्वती’, ‘विशाल भारत’, ‘चाँद’, ‘माधुरी’ आदि पत्रिकाओं की राष्ट्रीय जागरण में अग्रणी भूमिका रही है। यह उसकी भूमिका ही थी कि प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे च
लने वाली मशाल कहा था।

यह विचार साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के लोकार्पण के अवसर पर उभर कर आया। उŸार प्रदेश की राजधानी लखनऊ से डाॅ अनीता श्रीवस्तव के सम्पादन में अभी हाल में एक नई पत्रिका ‘रेवान्त’ का प्रकाशन शुरू हुआ हैै जिसके प्रवेशांक का लोकार्पण बीते दिनों यहाँ हिन्दी संस्थान में वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने किया। ‘निष्कर्ष’ के संपादक गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव इस पत्रिका के सलाहकार संपादक हैं। ‘रेवान्त’ की खासियत यह
है कि पत्रिका के सम्पादन से लेकर प्रबन्ध तक में महिलाओं की भूमिका है तथा यह उनके संयुक्त प्रयास का नतीजा है।

वैसे मौका तो लोकार्पण का था लेकिन साहित्य के सरोकार, उसके सामने चुनौतियाँ व संकट, आज के दौर में पत्र पत्रिकाओं की भूमिका - जैसे विषयों पर गंभीर चर्चा हुई। चर्चा में भाग लेने वालों में गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, वीरेन्द्र यादव, चन्द्रेश्वर, डाॅ स्वरूप कुमारी बख्शी, डाॅ शान्तिदेव बाला, शैलेन्द्र सागर और शिवमूर्ति प्रमुख थे।

वक्ताओं का कहना था कि आजादी के बाद सŸार के दशक में हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत हुई थी। सेठाश्रयी पत्रिकाओं के वर्चस्व तथा साहित्य में व्यवसायिकता के विरुद्ध यह आंदोलन था जिसका मुख्य स्वर व्यवस्था विरोध का था। उस दौर में निकलने वाली उŸारार्द्ध, समारम्भ, वाम, पहल, युगपरिबोध, आमुख आदि पत्रिकाओं ने न सिर्फ साहित्य को सोद्देश्य बनाया बल्कि नई रचनाशी
लता को भी सामने लाने का काम किया। ये पत्रिकाएँ आन्दोलन से जुड़ी थीं तथा इनकी वैचारिक दिशा स्पष्ट थी।

इस मौके पर लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं की भी चर्चा हुई। यशपाल जी द्वारा शुरू की गई ‘विप्लव’ को लोगों ने खास तौर से याद किया। सŸार के दशक में शेषमणि पाण्डेय और शरद ने ‘अर्थ’ तथा विनोद भरद्वाज ने ‘आरम्भ’ निकाली थीं। इमरजेन्सी के दौरान ही लखनऊ से ‘परिपत्र’ का प्रकाशन शुरू हुआ था। गोपाल उपाध्याय ने ‘उत्कर्ष’ तथा मुद्राराक्षस ने ‘बेहतर’ निकाल कर कुछ बेहतर करने की कोशिश की थी। वीरेन्द्र यादव ने ‘प्रयोजन’ तथा अजय सिंह व कौशल किशोर ने आठवें दशक में ‘जन संस्कृति’ का प्रकाशन शुरू किया था। इन दोनों पत्रिकाओं ने संगठक का काम भी किया तथा लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ तथा जन संस्कृति मंच को संगठित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

वक्ताओं का कहना था कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में हमारे समाज पर बाजारवाद व उपभोक्तावाद का प्रभाव है। साहित्य को भी इसी नजरिये से देखने की प्रवृति बढ़ी है। वर्तमान में कोई सशक्त आंदोलन भी नहीं है जो साहित्य को प्रेरित कर रहा हो। आज लघुु पत्रिका जैसा आन्दोलन भी नहीं है। इसीलिए आज के दौर में निकल रही साहित्यिक पत्रिकाओं को लघु पत्रिकाओं की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता लेकिन आज की रचनाशीलता तथा उत्कृष्ट साहित्य इन्हीं पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आ रहा है। प्रकाशन व वितरण के ढ़ांचे को इसने ज्यादा व्यवस्थित किया है।
यह बात भी उभर कर आई कि पत्रिका निकालना तथा उसकी निरन्तरता को बनाये रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। पत्रिका के लिए संसाधन जुट जाते हैं तो अगली समस्या अच्छी व बेहतर रचना की आती है। आज राजनीति के क्षेत्र में जिस तरह मूल्यहीनता व अवसरवाद बढ़ा है, उससे समाज में दिशाहीनता व विकल्पहीनता आई हैे। ऐसे में साहित्यिक पत्रकारिता की भूमिका ज्यादा कारगर हो सकती है और वह सांस्कृतिक जागरण का माध्यम बन सकता है।

वक्ताओं का यह भी कहना था कि आज लखनऊ से ‘तदभव’, ‘निष्कर्ष’, ‘लमही’, ‘कथाक्रम’ आदि कई पत्रिकाएँ निकल रही हैं। ‘रेवान्त’ को उस क्षेत्र पर केन्द्रित करना चाहिए जो क्षेत्र इनसे छूट रहे हैं। इस संदर्भ में यह सुझाव भी आया कि इसे मात्र कविता, कहानी व साहित्य के विषयों तक अपने को सीमित न रखकर राष्ट्रीय जीवन और समाज पर असर डालने वाले विषयों पर भी फोकस करना चाहिए जैसे दलित उत्पीड़न, महिलाओं पर बढ़ती हिंसा, भ्रष्टाचार, नागरिक व लोकतांत्रिक अधिकरों पर बढ़ते हमले आदि। वैसे आज महिलाओं की साहित्यिक पत्रिका का अभाव है। ‘रेवान्त’ की सम्पादक इस दिशा में भी सोच सकती हंै।

‘रेवान्त’ की सम्पादक अनीता श्रीवास्तव ने लोकार्पण के अवसर पर पत्रिका के सम्बन्ध में आये सुझाावों का स्वागत किया और कहा कि इसी आलोक में पत्रिका को बेहतर बनाने की वे कोशिश करेंगी। कार्यक्रम का संचालन कवि कौशल किशोर ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन दिया कवयित्री सुशीला पुरी ने।

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