शुक्रवार, 4 जून 2010

नागरिक समाज: सुरक्षा में सेंध

कौशल किशोर

हमारा नागरिक समाज सुरक्षा और शान्ति के साथ जीना चाहता है। वह कानून का शासन चाहता है। वह ऐसी सरकार चाहता है जो उसके जान-माल की सुरक्षा प्रदान कर सके। वह ऐसा माहौल चाहता है जिसमें बिना भय के स्वच्छन्द भाव से कही भी आ और जा सके। लकिन आज यह दुर्लभ होता जा रहा है। नागरिक समाज का सरकार के सुरक्षा तंत्र पर से यकीन उठता जा रहा है। देखने में यही आ रहा है कि जहाँ जितनी सुरक्षा प्रदान की जा रही है, वहाँ वारदात भी बढ़ रही है। यह कहना शायद ज्यादा उचित लगता है कि सुरक्षा की व्यवस्था व इन्तजाम जितना पुख्ता किया जा रहा है, वहीं असुरक्षा भी दबे पाँव पहुँच रही है। इस सम्बन्ध में प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अभी हाल में घटी एक घटना की हम चर्चा करेंगे।

पिछले दो-ढ़ाई दशक में लखनऊ का काफी तेजी से विस्तार हुआ है। नई-नई कालोनियाँ और मुहल्ले अस्तित्व में आये हैं। लखनऊ-कानपुर रोड पर तो एक नया टाउनशिप ही बस गया है। इसी कालोनी के सेक्टर ‘जी’ के एक पार्क के चारो तरफ रहने वाले नागरिकों द्वारा सुरक्षा के सम्बन्ध में ली गई पहलकदमी की अवश्य प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने मकान व जान.माल की सुरक्षा के लिए थाना और पुलिस पर निर्भर न रह कर सामूहिक पहल ली और सुरक्षा व्यवस्था स्वयं कायम की। यहाँ करीब पचास मकान होंगे। इनमें रहने वाले अधिकांश नौकरी पेशा लोग हैं।

इस पार्क के चारों तरफ जो सड़क है, वह तीन ओर से बाहर निकलती है। इन तीनों रास्तों पर यहाँ के वाशिन्दों ने लाहे के मजबूत और बड़े फाटक बनवाये हैं। यदि ये फाटक बन्द कर दिये जायँ तो कोई इस पार्क वाले हिस्से में प्रवेश नहीं कर सकता। इन फाटकों में से दो हमेशा बन्द रहता है और एक ही फाटक आने.जाने वालों के लिए खुला रहता है। यहाँ दो गार्डों की व्यवस्था की गई है तथा हर बारह घंटे के बाद उनकी ड्यूटी बदल जाती है। ये गार्ड इस फाटक पर चौबीसो घंटे मौजूद रहते हैं और प्रत्येक आने.जाने वालों पर निगाह रखते हैं। किसी भी अपरिचित को तभी अन्दर जाने देते हैं जब वह उनके उŸार से संतुष्ट हो जाता है। लेकिन सुरक्षा की इस व्यवस्था के बावजूद हाल में यहाँ रहने वाले सुशील कुमार के घर में चोरी व जान.माल को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाने की घटना हो गई।

सुशील कुमार भारत सरकार की कम्पनी स्कूटर्स इण्डिया में मुख्य प्रबन्धक हैं और उनकी पत्नी कॉलेज में शिक्षिका हैं। दो बेटियाँ हैं जिनकी शादी हो चुकी है। घर में पति-पत्नी के अलावा माँ है जो काफी वृद्ध हैं। पति.पत्नी दोनों काम पर निकल जाते हैं, फिर शाम तक लौटते हैं और माँ घर में रह जाती हैं। सुशील कुमार ने अपने घर का निर्माण भी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए कराया है। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए नौकरी पेशा दम्पŸिा के पास यही विकल्प बचता है कि जब वे काम पर जायें तो माँ घर में रहें और बाहर ताला लगा दिया जाय अर्थात मकान का मुख्य दरवाजा बन्द, चैनल गेट पर ताला, उसके बाद मकान के मुख्य गेट पर ताला, बाहर पार्क के दोनों फाटक बन्द और एक फाटक जो खुला है, वहाँ चौबीस घंटे के लिए गार्ड तैनात है। इतनी व्यवस्था के बाद आदमी सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त हो सकता है। लेकिन इस सब के बावजूद घटना हो जाती है।

वारदात को अंजाम देने वाले भरी दोपहर में आते हैं। पहले वे मुख्य गेट का ताला तोड़ते हैं, फिर चैनल पर लगा ताला, उसके बाद मुख्य दरवाजा उनका निशाना बनता है। दरवाजे पर थाप पड़ने पर माँ को लगता है कि बहू या बेटा में से कोई आया है। वे दरवाजा खोलती हैं और अनजान चेहरे को देख अवाक रह जाती हैं। वे कुछ बोलें या शोर मचायें, तभी किसी घातक हथियार से उनके सिर पर वार होता है। वे बेहोश हो फर्श पर गिर पड़ती हैं और उनका खून वहाँ फैल जाता है। मध्य दोपहर में हुई इस घटना की जरा सी भी भनक किसी को नहीं लगती, पास.पड़ोस से लेकर गार्ड तक को कुछ नहीं मालूम। नकदी, जेवर - लाखों का सामान ले चोर चम्पत हो जाते हैं। इस वारदात का भी पता तब चलता है जब बहू कॉलेज से वापस आती हैं। फिर वही हुआ, जो घटना हो जाने के बाद होता है। शोर मचता है। भीड़ जुटती है। जिसे खबर मिलती है, वही दौड़ा चला आता है। लोगों द्वारा आश्चर्य और अफसोस का मिश्रित भाव प्रकट किया जाता है। पुलिस आती है। पहले तो यह विवाद सामने आता है कि सुशील कुमार का मकान किस थाना क्षेत्र में आता है, आशियाना या कृष्णानगर। इस विवाद के निपटारे के बाद पुलिस की पहली गाज घर की साफ.सफाई करने वाली, खाना बनाने वाली नौकरानी तथा बाहर फाटक पर तैनात गार्ड पर गिरती है। इस तरह पुलिस अपनी कर्रवाई की औपचारिकता में जुट जाती है।

यही हमारे नागरिक समाज की हकीकत है कि अपने तई की गई तमाम कोशिशों के बाद भी असुरक्षा ही उनके हाथ आ रही है। नागरिक समाज ही नहीं पूरा राष्ट्र ही अपनी सुरक्षा को लेकर परेशान है। देश की सुरक्षा पर सरकार द्वारा बजट का अच्छा.खासा हिस्सा खर्च किया जाता है। शिक्षा व स्वास्थ की तुलना में रक्षा खर्च हर बजट में बढ़ रहा है। आज तो आन्तिरिक सुरक्षा सरकार के लिए सबसे बड़ा सिर दर्द बन गया है। छŸाीसगढ़ से लेकर पश्चिम बंगाल तक की यह पूरी पट्टी आज ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ के नाम पर अर्द्धसैनिक बलों के हवाले है। यही नहीं, सरकार द्वारा मंत्रियों, नेताओं और माननीय लोगों को भी कई तरह की सुरक्षा प्रदान की जाती है। सुरक्षा के भी कई स्तर हो गये हैं। जितना बड़ा पद या व्यक्ति, उसकी उतने ही उच्च स्तर की सुरक्षा। लेकिन इस सब के बावजूद सेंध लग जाती है और सारी सुरक्षा व्यवस्था धरी की धरी रह जाती है। क्या यह भुलाया जा सकता है कि तमाम सुरक्षा कवच के बावजूद प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी तक हत्यारे पहुँच गये ?

हो यह रहा है कि जब कोई वारदात हो जाती है तब सुरक्षातंत्र की खोज-खबर ली जाती है। कहाँ क्या त्रुटि रह गई, जिसकी वजह से हादसा हुआ, मात्र यही खोज-खबर का विषय बनकर रह जाता है और ले.देकर मामला सुरक्षातंत्र को और चुस्त-दुरुस्त करने तक सिमट जाता है। हादसे के शिकार लोगों के लिए मुआवजे की घोषणा, घटना की जाँच के आदेश, अपने राजनीतिक नफे- नुकसान को ध्यान में रखकर बयानबाजी और ऐसा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली जा रही है। नागरिक समाज की सुरक्षा के साथ यही क्रूर मजाक हो रहा है। कभी घटना के सामाजिक-राजनीतिक कारणों की तह में जाने की गंभीर कोशिश नहीं दिखती।

गाँधीजी की एक बात याद आती है। जब उनसे पूछा गया था कि आपके सपनों का भारत कैसा होगा तो उन्होंने कहा कि स्वराज्य को प्रत्येक गरीब की कुटिया तक पहुँचाना हम सबका काम होगा और मेरे सपनों का भारत ऐसा होगा जिसमें हर आदमी यह महसूस कर सके कि यह देश उसका है, उसके निर्माण में उसकी आवाज का महत्व है। परन्तु सच्चाई यह है कि आज आवाज किसी की गूँज रही है तो वह दबंगों, धनपशुओं, राजनीतिक सौदागरों और अपराधियों की है। ऐसा समाज बन गया है जिसमें गुंडों व अपराधियों का राजतिलक हो रहा है। लोकतंत्र का अपराधीकरण हो गया है। ऐसे में आम नागरिक कहाँ तक सुरक्षित रह सकता है ? इसीलिए सुरक्षा की दिशा में किये गये उसके सामूहिक प्रयास भी बेमानी हो जाते हैं।

आज हमारा नागरिक समाज तो ऐसी जमीन पर खड़ा है जिसके नीचे बारूदी सुरंग है। पता नहीं कब उसका पाँव पड़ जाय और विस्फोट हो जाय। हालात तो ऐसे ही हैं जैसाकि हिन्दी के कवि वीरेन डंगवाल ने अपनी कविता ‘हमारा समाज’ में कहा है:
हमने यह कैसा समाज रच डाला
हैइसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला
हैकालेपन की वे संताने है
बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहींअपना काला जादू हैं हम पर फेर रहीं
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना है ?

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