शनिवार, 2 अप्रैल 2011

क्रिकेट: कौन जीता ?


कौशल किशोर

इतिहास अपने को दोहराता है। ऐसा ही हुआ है। 1983 के बाद 2011। हम फिर क्रिकेट विश्व चैम्पियन बने। यह एक बड़ी उपलब्धि है। जो हमारे गुरू थे, जिन्होंने हमें गुलाम बनाया और यह खेल सिखाया, उन्हें बहुत पीछे छोड़ दूसरी बार हमने यह जीत हासिल की है। यह ऐसी जीत है जो मन को रोमांचित कर दे। हमारे खिलाड़ी निःसन्देह बधाई के पात्र हैं। हम जोश से भरे हैं। लेकिन ऐसा जोश भी ठीक नहीं जिसमें हम होश खो दें।

हम खेल का भरपूर आनन्द उठायें, जीत पर खुशियाँ मनायें, खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करें, एक दूसरे को बधाइयाँ दें पर यह भी जरूरी है कि खेल से जुड़े मुद्दों पर चर्चा भी हो। खेल में प्रतिभा को स्थान मिले पैसे को नहीं। हम इस पर भी विचार करें कि कारपोरेट पूँजी और बाजार कैसे हमारे खेल में घुस रहा है, खेल व खिलाड़ी को कैसे अपनी कमाई और व्यवसाय का माध्यम बना रहा है। फिर अन्य खेलों की दुर्दशा क्यों ? हाकी जिसमें हम विश्व चैम्पियन थे, उसमें हम इतना पीछे क्यों ? क्रिकेट कही अन्य भारतीय खेलों को आऊट तो नहीं कर रहा है ? बाजार उन्हीं खेलों को प्रोत्साहित क्यों कर रहा है जहाँ पैसे व व्यवसाय की संभावना अधिक है ? खेल का क्षेत्र हमारी संस्कृति का क्षेत्र है। पर हमने क्या देखा ? राजनीति व भ्रष्टाचार। मंत्री व मंत्रालय से लेकर तमाम खेल समितियाँ भ्रष्टाचार में डूबी इुईं। आई पी एल और कामनवेल्थ गेम में क्या हुआ, सबके सामने है। इससे दुनिया में हमारी क्या छवि बनी ?

एक और बात, यह खेल है युद्ध नहीं। जहाँ क्रिकेट हुआ वह मैदान है, रणक्षेत्र नहीं। पर खेल की भावना युद्ध की भावना में बदल दिया जाय और हमारे राष्ट्रवाद पर अन्धराष्ट्रवाद की मानसिकता हावी हो जाये तो फिर इस भावना व मानसिकता पर जरूर विचार किया जाना चाहिए। मीडिया के रोल पर भी बात होनी चाहिए। ‘फतह पाकिस्तान’, ‘लंका दहन’, ‘रावण दहन’ आखिरकार यह कैसी पत्रकारिता है ? प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया सब जगह जैसे खेल नहीं उन्माद बोल रहा है और पूरे देश को उन्मादी बनाने पर तुला हो। कहते हैं खेल प्रेम व भाईचारा बढ़ाता है, दूरियाँ खत्म कर एक दूसरे को करीब लाता है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री आये। श्रीलंका के राष्ट्रपति आये। पड़ोसी मुल्कों से तमाम लोग आये। खेल हुआ। हम जीते। पर जो उन्माद पैदा किया गया उससे कौन विजयी हुआ ? खेल जीता या पूँजी व बाजार ? किसको खाद पानी मिला खेल की निर्मल भावना को या संघी मानसिकता को ? ये सवाल या इस तरह की बातें जश्न के माहौल में जरूर अटपटी सी लग रही होंगी। पर यही मौका है जिस पर चर्चा की जा सकती है, गलत प्रवृतियों पर चोट की जा सकती है।

3 अप्रैल 2011

मंगलवार, 22 मार्च 2011

भगत सिंह और पाश राजनीति व संस्कृति में नया रंग भरती शहादत




कौशल किशोर

23 मार्च शहीद भगत सिंहए सुखदेव और राजगुरु का शहादत दिवस है। इन तीन नौजवान क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। इस घटना के 57 साल बाद 23 मार्च 1988 को पंजाब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि अवतार सिहं ष्पाशष् को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया। 70 वाले दशक में पंजाब में जो क्रांतिेकारी आंदोलन शुरू हुआ . उसके पक्ष में कविताएं लिखने के कारण भी पाश कई बार जेल गये थे. सरकारी जुल्म के शिकार हुए तथा वर्षोें तक भूमिगत रहे।

यह महज संयोग है कि पंजाब की धरती से पैदा हुए तथा क्रांतिकारी भगत सिंह के शहीदी दिवस के दिन
ही अर्थात 23 मार्च को पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिहं पाश भी शहीद होते हैं। लेकिन इन दोनों क्रांतिकारियों के उददेश्य व विचारों की एकता कोई संयोग नहीं है। यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की क्रांतिकारी परंपरा का न सिर्फ सबसे बेहतरीन विकास है बल्कि राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण भी है।


भगत सिंह और उनके साथियों ने आजादी का जो सपना देखा था, जिस संघर्ष और क्रांति का आहवान किया था, वह अधूरा ही रहा। भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्षों और विश्व पूंजीवाद के आंतरिक संकट के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक आजादी 1947 में मिली, उसका लाभ केवल इस देश के पूंजीपतियोंए सामंतों और उनसे जुडे मुट्ठी भर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने ही उठाया है। सातवां दशक आते-आते आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत के नये शासक वर्ग के खिलाफ जन असंतोष तेज होता है जिसकी सबसे ठोस और मुखर अभिव्यक्ति चौथे राष्ट्रीय आम चुनाव और नक्सलबाडी विद्रोह में होती है। विशेष तौर से नक्सलबाडी विद्रोह ने भारतीय साहित्य को काफी गहराई तक प्रभावित किया तथा व्यक्तिवाद, निषेधवाद, परंपरावाद, अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद जैसी जन विरोधी प्रवृत्तियों को प्रबल चुनौती दी। विकल्प की तलाश कर रही बंाग्ला, तेलुगू, हिन्दी, पंजाबी आदि भाषाओं की नयी पीढी को तो जैसे राह ही मिल गयी। पंजाबी में नये कवियों की एक पूरी पीढी सामने आयी जिसने पंजाबी कविता को नया रंग-रूप प्रदान किया। अवतार सिंह पाश ऐसे कवियों की अगली पांत में थे।

पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। अर्थात पाश ने पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसे दौर में प्रवेश किया जो दूसरी आजादी के क्रांतिकारी राजनीतिक संघर्ष का ही नहीं अपितु नये जनवादी-क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन का भी प्रस्थान बिन्दु था। अमरजीत चंदन के संपादन में निकली भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन तो पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था। पाश की इन कविताआंे की पंजाब के साहित्य-हलके में काफी चर्चा रही। उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संधर्ष अपने उभार पर था। पाश का गांव तथा उनका इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था। इस संघर्ष की गतिविधियों ने पंजाब के साहित्यिक माहौल में नयी ऊर्जा व नया जोश भर दिया था। पाश ने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रचीं और गिरफ्तार हुए और करीब दो वर्षों तक जेल में रहे। सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए जेल में ढेरों कविताएं लिखीं और जेल में रहते उनका पहला कविता संग्रह "लोककथा" प्रकाशित हुआ। इस संग्रह ने पाश को पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी।

1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने "सिआड" साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की। नक्सलबाडी आंदोलन पंजाब में बिखरने लगा था। साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था। ऐसे वक्त में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए पस्ती व निराशा से उबरने की कोशिश की तथा सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएँ की। पंजाब के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को एकजुट व संगठित करने का प्रयास चलाते हुए पाश ने "पंजाबी साहित्य-सभ्याचार मंच" का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर "हेमज्योति" पत्रिका शुरू की। इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी। चर्चित कविता "युद्ध और शांति" पाश ने इसी दौर में लिखी। 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह "उडडदे बाजा मगर" छपा जिसमें उनकी 38 कविताएं संकलित हैं। पाश का तीसरा संग्रह "ष्साडे समियां विच" 1978 में प्रकाशित हुआ। इसमें अपेक्षाकृत कुूछ लम्बी कविताएं भी संग्रहित हैं। उनकी मृत्यु के बाद "लडंेगे साथी" शीर्षक से उनका चौथा संग्रह सामने आया जिसमें उनकी प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएॅँ संकलित हैं।

पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव का अर्थात क्रांति और विद्रोह का है। इनकी कविताएं धारदार हैं। जहाँ एक तरफ सांमती-उत्पीडकों के प्रति जबरदस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति, क्रांतिकारी वर्ग के प्रति अथाह प्यार है। नाजिम हिकमत और ब्रतोल्त ब्रेख्त की तरह इनकी कविताओं में राजनीति व विचार की स्पष्टता व तीखापन है। कविता राजनीतिक नारा नहीं होती लेकिन राजनीति नारे कला व कविता में घुल-मिलकर उसे नया अर्थ प्रदान करते हैं तथा कविता के प्रभाव और पहुंच को आश्चर्यजनक रूप में बढाते हैं.. यह बात पाश की कविताओं में देखी जा सकती हैं। पाश ने कविता को नारा बनाये बिना अपने दौर के तमाम नारों को कविता में बदल दिया।

पाश की कविताओं की नजर में एक तरफ "शांति गॉंधी का जांघिया है जिसका नाड़ा चालीस करोड़ इन्सानों की फाँसी लगाने के काम आ सकता है /और ष्शब्द जो राजाओं की घाटियों में नाचते हैं /ध्जो प्रेमिका की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं जो मेजों पर टेनिस बाल की तरह दौडते हैं और जो मैचों की ऊसर जमीन पर उगते हैं/ ध्कविता नहीं होतें" ...तो दूसरी तरफ " युद्ध हमारे बच्चों के लिए / कपड़े की गेंद बनकर आएगा/ युद्ध हमारी बहनों के लिए कढाई के सुन्दर नमूने लायेगा / युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा / युद्ध बूढी माँ के लिए नजर का चश्मा बनेगा / युद्ध हमारे पुरखों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा" और तुम्हारे इंकलाब मेें शामिल है संगीत और साहस के शब्द / खेतो से खदानं तक युवा कंधों और बलिष्ठ भुजाओं से रचे हुए शब्द/ बर्बर सन्नाटों को चीरते हजार कंठों से निकलकर आज भी एक साथ गूंज रहें शब्द’ हजारों कंठो से निकली हुई आवाज ही पाश की कविता में शब्दबद्ध होती है। पाश की कविताओं में इन्हीं कंठों की उष्मा है। इसीलिए पाश की कविताओं पर लगातार हमले हुए हैं। पाश को अपनी कविताओं के लिए दमित होना पडा है। बर्बर यातनाएं सहनी पडी हैं। यहाँ तक कि अपनी जान भी गवांनी पड़ी हैं। लेकिन चाहे सरकारी जेंलें हों या आतंकवादियों की बन्दूकें.......... पाश ने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया बल्कि हजारों दलित-पीड़ित शोषित कंठों से निकली आवाज को अपनी कविता में पिरोते रहे, रचते रहे, उनका गीत गाते रहे और अपने प्रिय शहीद भगत सिंह की राह पर चलते हुए शहीद हो गये।

23 मार्च के दिन ही अपना खून बहाकर पाश ने राजनीति और संस्कृति के बीच खडी की जाने वाली दीवार को ढहाते हुए यह साबित कर दिया कि बेहतर जीवन मूल्यों व शोषण उत्पीड़न से मुक्त मानव समाज की रचना के संघर्ष में कवि व कलाकार भी उसी तरह का योद्धा है जिस तरह एक राजनीतिककर्मी या राजनीतिक कार्यकर्तां। राजनीति और संस्कृति को एकरूप करते हुए पाश ने यह प्रमाणित कर दिया कि अपनी विशिष्टता के बावजूद मानव समाज के संघर्ष में राजनीति और संस्कृति को अलगाया नहीं जा सकता बल्कि इनकी सक्रिय व जन पक्षधर भूमिका संघर्ष को न सिर्फ नया आवेग प्रदान करती है बल्कि उसे बहुआयामी भी बनाती है।

भगत सिंह मूलत एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। राजनीति उनका मुख्य क्षेत्र था। लेकिन उन्होंने तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक, साहित्यिक सवालों पर भी अपनी सटीक टिप्पणी पेश की थी। अपने दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों, देशी विदेशी प्रतिक्रियावादी शाक्तियों व विचारों, धार्मिक कठमुल्लावादी, सांप्रदायिकता, अस्पृश्यता, जातिवाद जैसे मानव विरोधी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करते हुए भगत सिंह ने जनवादी-समाजवादी विचारों को प्रतिष्ठित किया। पाश की कविता, विचारधाराए पत्रकारिता व सांस्कृतिक सक्रियता से साफ पता चलता है कि उनकी राजनीतिक समझ बहुत स्पष्ट थी।

यही भगत सिंह और पाश की समानता है। भले ही इनकी शहादत के बीच 57 वर्षों का अंतर है। ये दोनों क्रांतिकारी योद्धा राजनीति और संस्कृति की दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित करते हैं साथ ही ये राजनीति और संस्कृति की एकता, पंजाब की धर्मनिरपेक्ष, जनवादी व क्रांतिकारी परंपरा के उत्कृष्ट वाहक हैं तथा अपनी शहादत से ये राजनीति और संस्कृति की एकता में नया रंग भरते हैं।

एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ-226017
मो- 09807519227, 08400208031

२३ मार्च पंजाबी कवि पाश का शहीदी दिवस है . उनकी एक कविता यहाँ पेश है .

कविता

सबसे ख़तरनाक

पाश

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।



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शनिवार, 5 मार्च 2011

साथी अनिल सिन्हा को क्रान्तिकारी सलाम




कौशल किशोर

हमने ऐसा सोचा भी नहीं था कि हमारे अत्यन्त प्रिय साथी अनिल सिन्हा इतना जल्दी हमारा साथ छोड़ देंगे। इस साल की पहली तारीख को हमने उन्हें दिल्ली के लिए विदा किया था। एक दिन पहले डॉ विनायक सेन की उम्रकैद की सजा के खिलाफ लखनऊ में हुए विरोध प्रदर्शन में वे शामिल हुए थे। उनके शरीर पर पिछले दिनों हुए लकवे का असर मौजूद था। चलने में उन्हें दिक्कत हो रही थी। हमने उन्हें मना भी किया। पर उनके लिए इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होना जरूरी था सो वे अपने स्वास्थ्य की परवाह किये बिना आये। उनका इलाज जरूरी था। इसीलिए न चाहते हुए भी हम साथियों ने उन्हें दिल्ली के लिए विदा किया। लेकिन दिल्ली जाकर भी हमसे वे अलग नहीं थे। शायद ही कोई दिन हो जिस दिन हमारी बात न होती हो।

अनिलजी दिल्ली तो इलाज कराने गये थे। लेकिन वहाँ भी कमरे में अपने को बन्द रखने वाले नहीं थे। जसम द्वारा आयोजित शमशेर जन्मशती आयोजन में उन्होंने शमशेर की चित्रकला पर जो व्याख्यान दिया, उससे उनकी कला के सम्बन्ध में गहरी समझ व सूक्ष्म दृष्टि का पता चलता है। फिर 6 फरवरी को दिल्ली केे जमरूदपुर गुरुद्वारा कम्युनिटी हाल में सैकड़ों श्रमिकों के बीच पहुँच गये जहाँ नव सर्वहारा सांस्कृतिक मंच की ओर से नागार्जुन, शमशेर व केदार कविता यात्रा शुरू होनी थी। इस अवसर पर ‘आमजीवन में कविता के महत्व’ पर उन्होंने सारगर्भित व्याख्यान दिया।

मित्र जानते हैं कि अनिल सिन्हा के शरीर में उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, मधुमेह, थायराइड, लकवा जैसी कई बीमारियों ने अपना घर बना लिया था। लेकिन उन्होंने कभी भी इन बीमारियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। अपने काम में अवरोध नहीं बनने दिया। पन्द्रह साल पहले दाहिना हाथ टूट गया था। आपरेशन हुआ। लखनऊ मेडिकल कॉलेज की लापरवाही की वजह से बोन टी वी हो गया। नौबत हाथ काटने तक पहुँच गई। लिखना छूट गया तब बाँये हाथ से लिखने लगे। आखिरकार दिल्ली में हुए इलाज से फायदा हुआ। पिछले साल नवम्बर में लकवा का झटका लगा। चलना व बोलना मुश्किल था। पर जीवटता देखिए। चल नहीं सकते थे, पर चलना नहीं छोड़ा। पैर में फिर चोट लगी। हमलोगों ने मना किया। पर वे मानने वाले कहाँ ? हर बैठक व कार्यक्रम में पहुँचते, सीढ़ियाँ चढ़ते हुए साँस फूलता। बोलते हुए हाफने लगते। आवाज लड़खड़ाने लगती। पर सीढ़ियाँ भी चढ़ते और देर देर तक बतियाते भी। किसी साथी के बीमार होने की खबर मिलते ही तुरन्त पहुँच जाते। अनिलजी के मन में इस बात को लेकर अफसोस जरूर था कि स्वास्थ्य की वजह से वैसी गतिशीलता नहीं बन पा रही है जैसी होनी चाहिए। खासतौर से ‘गोरख स्मृति संकल्प’ समारोह में गोरख पाण्डेय के गाँव ‘पण्डित का मँुडेरवा’ न जा पाने का उन्हें दुख था। फिर भी अप्रैल में सुभाष चन्द्र कुशवाहा के गाँव जोगिया जनूबा पट्टी में आयोजित ‘लोकरंग’ में जाने की उनकी पूरी योजना थी। इस कार्यक्रम में हर साल बिना नागा वे पहुँचते रहे हैं।

अनिलजी के दिमाग में कई योजनाएँ एक साथ चलती रहती थी। शरीर साथ नहीं देता था पर इच्छा शक्ति जबरदस्त थी। 27 फरवरी को लखनऊ में शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह का कार्यक्रम था। इसकी परिकल्पना व योजना अनिलजी ने ही बनाई थी। इस सम्बन्ध में उन्होंने मैनेजर पाण्डेय, राजेन्द्र कुमार व बलराज पाण्डेय से बात कर सब तय किया था। किस विषय पर किसे बोलना है, संचालन से लेकर धन्यवाद ज्ञापन तक की पूरी रूपरेखा तैयार की थी। कौन किस ट्रेन से आयेगा, कहाँ रुकेगा, किस साथी पर किसकी जिम्मेदारी होगी आदि सब उन्होंने तय किया था। पर इस कार्यक्रम के दो दिन पहले ही अनिलजी ने हमारा साथ छोड़ दिया। हमारे लिए इससे बढकर दुख की बात क्या होगी कि जिस सभागार को जन्मशती समारोह के लिए आरक्षित कराया गया था उसमें हमें अनिलजी की स्मृति सभा करनी पड़ी।

अनिल सिन्हा 22 फरवरी को दिल्ली से पटना आ रहे थे। ट्रेन में ही उन्हें मस्तिष्क आघात ;ब्रेन स्ट्रोकद्ध हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझने के बाद 25 फरवरी को सुबह 11.50 बजे उनका निधन हुआ। अनिल सिन्हा की इच्छा मृत्यु उपरान्त देहदान की थी। लेकिन इतना जल्दी वे चल बसेंगे, इसका उन्हें भी आभास नहीं था। इसीलिए देहदान की कानूनी औपचारिकताएँ पूरी नही कर पाये थे। इस हालत में उनका अन्तिम संस्कार पटना के बासघाट विद्युत शवदाह गृह में कर दिया गया और क्रान्तिकारी वाम राजनीति व संस्कृतिकर्म का यह योद्धा ‘अनिल सिन्हा अमर रहे’ की गूँज के साथ हमारे बीच से चला गया। उनको अन्तिम विदाई देने वालों में मेरे साथ आलोक धन्वा, अजय सिंह, भगवान स्वरूप कटियार, भाकपा ;मालेद्ध के कार्यकर्ताओं के साथ उनके परिवार के लोग थे। इस खबर से सब सदमें में थे। आलोक धन्वा ने कहा कि मैं हँसना चाहता हूँ ताकि अपनीे रुलाई और अन्दर के आँसू को रोक सकूँ। कमोबेश यही हालत हमसब की थी।

अनिल सिन्हा के असमय अपने बीच से चले जाने से जो सूनापन पैदा हुआ है, उसे महसूस किया जा सकता है क्योंकि वे ऐसे मजबूत और ऊर्जावान साथी थे जिनसे जन सांस्कृतिक आंदोलन को अभी बहुत कुछ मिलना था। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से नई पीढ़ी को बहुत कुछ सीखना था। अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार, कलाओं के अर्न्तसम्बन्ध पर जनवादी, प्रगतिशील नजरिये से गहन विचार और समझ विकसित करने वाले विरले समीक्षक और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक थे। सिद्धान्तों के साथ कोई समझौता नहीं, ऐसी दृढ़ता थी। वहीं, व्यवहार के धरातल पर ऐसी आत्मीयता, खुलापन व साथीपन था कि वैचारिक रूप से असहमति रखने वाले भी उनसे प्रभावित हुए बिना, उनका मित्र बने बिना नहीं रह सकते। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से प्रगतिशील रचनाकर्म के बाहर के दायरे में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय थे तथा तमाम रचनाकारों को जन संस्कृति मंच से जोड़ने व उन्हें करीब लाने में सफल हुए थे। कई रचनाकारों के लिए तो जन संस्कृति मंच की मानी अनिलजी थे।

अनिल सिन्हा सŸार के दशक और उसके बाद चले सांस्कृतिक आंदोलन के हर पड़ाव के साक्षी ही नहीं, उसके निर्माताओं में थे। उन्होंने रचना, विचार, संगठन और आंदोलन के क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। इस समय वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उŸार प्रदेश के पहले सचिव के रूप में सांस्कृतिक आंदोलन का नेतृत्व किया था। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी जनवादी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। भाकपा ;मालेद्ध से उनका रिश्ता उस वक्त से था जब पार्टी भूमिगत थी। उनका घर पार्टी साथियों का घर हुआ करता था। अखबारी कर्मचारियों व पत्रकारों के आंदोलन में भी वे लगातार सक्रिय थे। कष्ट साध्य जीवन और जन आंदोलनों में तपकर ही उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था।

अनिल सिन्हा का जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्यालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यावर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से भी वे जुड़े रहे।

1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ, वे यहाँ आ गये। वे अमृत प्रभात की उस सम्पादकीय टीम के सदस्य थे जिसमें मंगलेश डबराल, मोहन थपलियाल, अजय सिंह आदि थे। तब से लखनऊ ही उनका स्थाई निवास था। अमृत प्रभात लखनऊ के बन्द होने के बाद वे नवभारत टाइम्स में आ गये। लेकिन जब नवभारत टाइम्स बन्द हुआ तो जीवन ज्यादा ही कठिनाइयों भरा था। जिम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं और स्वतंत्र लेखन से उनका निर्वाह नहीं हो सकता था। इस हालत में उन्होंने दैनिक जागरण, रीवाँ ज्वाइन किया। यहाँ वेे स्थानीय संपादक रहे। इस अखबार के प्रबन्धकों से तालमेल बिठा पाना उनके लिए संभव नहीं हो रहा था और वैचारिक मतभेद की वजह से वह अखबार छोड़ दिया और लखनऊ वापस आ गये। बाद में ‘राष्टीªय सहारा’ के साहित्य पृष्ठ ‘सृजन’ का भी उन्होंने सम्पादन किया था।

अनिल सिन्हा ने कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण, यात्रा वृतांत आदि कई क्षेत्रों में काम किया। फिल्म, संगीत व नाटक आदि में भी उनकी गहरी रुचि थी। लखनऊ में हुए तीनों फिल्म समारोहों की स्मारिका का उन्होंने सम्पादन किया था। ‘मठ’ नाम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। उनके द्वारा मशहूर लेखक आनन्द तेलतुमड़े की अंग्रेजी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया। अनिल सिन्हा का रचना संसार पिछले पांच दशकों में फैला है, वह भी साहित्य की कई विधाओं में और इतना विविधतापूर्ण है कि उनकी प्रकाशित पुस्तकों को देखते हुए यही लगता है कि उनके लेखन का बहुत छोटा हिस्सा ही पुस्तक रूप में प्रकाशित हो सामने आया है। इसलिए हमारे लिए यह जरूरी है कि उनके रचना संसार को सामने लाया जाय, उसे पाठकों तक पहुँचाया जाय ताकि साहित्य व समाज की नई पीढ़ी उस उथल.प.ुथल व संघर्ष भरे दौर से परिचित हो सके जिसकी उपज अनिल सिन्हा जैसे प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी थे।

एक बात गौरतलब है कि अनिल सिन्हा जिस पारिवारिक व सामाजिक परिवेश से आये थे, वह सामंती व धार्मिक जकड़न भरा था। इस जकड़न से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने को आधुनिक व प्रगतिशील ही नहीं बनाया था बल्कि वामपंथ की क्रान्तिकारी धारा की राजनीति व विचार से अपने को लैस किया था। विचारहीनता के इस दौर में जहाँ तमाम वामपंथी लेखकों व साथियों का मार्क्सवाद व वामपंथ पर से विश्वास डगमगा रहा है, उन्हें मौजूदा धक्के में सबकुछ खत्म होता या डूबता.सा नजर आ रहा है तथा हताशा.निराशा के शिकार हैं, वहीं अनिल सिन्हा के लिए एकमात्र उम्मीद मार्क्सवाद और रेडिकल वामपंथ ही था। बेशक वामपंथ में आ रहे झोल व ढ़ीलाढीलापन उन्हंे स्वीकार नहीं था और इन प्रवृतियों की आलोचना करने से वे कभी नहीं चूकते थे।

अनिल सिन्हा बाहर से जरूर शान्त से दिखते थे लेकिन उनके भीतर कितनी आग धधक रही है, इसका दर्शन उनके विचारों से रु.ब.रु होने पर मिलता है। पिछले दिसम्बर के तीन दिनों के अन्दर उन्होंने तीन वैचारिक लेख लिखे। रामकुमार कृषक की पत्रिका ‘अलाव’ के लिए नागार्जुन के गद्य पर लिखा। एन जी ओ के बढ़ते जाल व वामपंथ के एनजीओकरण पर ‘खौफनाक समय में सतर्कता’ में उन्होंने उन खतरों की तरफ इशारा किया कि किस तरह लेफ्ट पार्टियों के बुद्धिजीवी व एक्टिविस्ट भी एन जी ओ के मायाजाल में फँसते जा रहे हैं और सरकारी उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले अपने अभियान में सफल हो रहे हैं। इस सम्बन्ध में अनिल सिन्हा का कहना था ‘सच को साफ.साफ कहें और विभ्रमों की ऐसी व्याख्या पेश करें जो जनता आसानी से समझे और विचार करे कि क्यों हमें एक नई व्यवस्था व सŸाातंत्र चाहिए। अपनी नाव की पतवार अगर खुद संभाली जाय तो नाव काबू में रहती है वर्ना नाव बहक जाती है, अक्सर भँवर में फँस जाती है। इसलिए आज एन जी ओ और वास्तविक वामपंथी पार्टियों के फर्क को सामने लाना जरूरी है पर दिखाई दे रहा है कि एन जी ओ तो अपने काम को अंजाम दे रहा है पर वामपंथी पार्टियाँ अपने उद्देश्य से चूक रही हैं। समय खैफनाक है। सतर्क रहने और जन गोलबंदी में जाने की जरूरत है।’ ;खैफनाक समय में सतर्कता, 10 दिसम्बर 2010द्ध

‘खौफनाक समय में सतर्कता’ लिखने के दूसरे दिन 11 दिसम्बर को उन्होंने लम्बा लेख लिखा ‘प्रतिरोध व संघर्ष की नायिका से सबक लें’। यह लेख उन्होंने इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल के 11 साल पूरा होने पर लिखा था जिसका अन्त उन्होंने इस तरह किया - ‘शर्मिला जैसे योद्धा की मौत नहीं होती जैसे जूलियस फ्यूचिक जैसे योद्धा की मौत नहीं, पर जिन शारीरिक व मानसिक यातनाओं में शर्मिला के दिन गुजर रहे हैं उनमें उसका भौतिक शरीर कभी भी साथ छोड़ सकता है तो चर्चा में आये संगठनों ;लोकतांत्रिक व वामपंथीद्ध की राजनीतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने एक्शन द्वारा शर्मिला को यह अहसास करा दें कि उसके संघर्ष को बढ़ाने वाले लोग मौजूद हैं।........ उनसे ‘‘चिन्तन का विवेक’’ नष्ट नहीं हुआ है।’

प्रतिरोध व संघर्ष के ऐसे ही जज्बे से भरे थे हमारे साथी अनिल सिन्हा। संघर्ष व सपने कभी नहीं मरते। इसीलिए अनिलजी जैसे सांस्कृतिक योद्धा भी कभी नहीं मरते और अपने काम और विचारों के साथ हमेशा हमारे बीच जिन्दा रहते हैं, प्रकाश स्तम्भ की तरह हमें आगे बढ़ने की राह दिखाते हैं। अपनी इस विरासत पर हमें गर्व है। अनिल सिन्हा को क्रान्तिकारी सलाम।

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शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

‘रेवान्त’ का लोकार्पण:


मूल्यहीनता के इस दौर में
साहित्य जागरण का माध्यम बने

कौशल किशोर

कला और साहित्य दुनिया में सामाजिक
बदलाव के लिए चले राजनीतिक व सामाजिक आंदोलन का न सिर्फ आईना रहा है बल्कि वह बेहतर समाज के निर्माण के संघर्ष में
प्रेरक भी बनता रहा है। इतिहास में उदाहरणों की कमी नहीं है। फ्रांस की राज्य क्रान्ति हो या रूसी क्रान्ति, इस संदर्भ में साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। रूसी क्राति के संदर्भ में हम देखते हैं कि टाॅल्सटाय, गोर्की, चेखव के साहित्य ने जागरण का काम किया। टाॅल्सटाय के साहित्य को स्वयं लेनिन ने रूसी क्रान्ति का दर्पण कहा था। हमारा साहित्य भी राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ा रहा है तथा इस दौर में निकलने वाली ‘हंस’, ‘सरस्वती’, ‘विशाल भारत’, ‘चाँद’, ‘माधुरी’ आदि पत्रिकाओं की राष्ट्रीय जागरण में अग्रणी भूमिका रही है। यह उसकी भूमिका ही थी कि प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे च
लने वाली मशाल कहा था।

यह विचार साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के लोकार्पण के अवसर पर उभर कर आया। उŸार प्रदेश की राजधानी लखनऊ से डाॅ अनीता श्रीवस्तव के सम्पादन में अभी हाल में एक नई पत्रिका ‘रेवान्त’ का प्रकाशन शुरू हुआ हैै जिसके प्रवेशांक का लोकार्पण बीते दिनों यहाँ हिन्दी संस्थान में वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने किया। ‘निष्कर्ष’ के संपादक गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव इस पत्रिका के सलाहकार संपादक हैं। ‘रेवान्त’ की खासियत यह
है कि पत्रिका के सम्पादन से लेकर प्रबन्ध तक में महिलाओं की भूमिका है तथा यह उनके संयुक्त प्रयास का नतीजा है।

वैसे मौका तो लोकार्पण का था लेकिन साहित्य के सरोकार, उसके सामने चुनौतियाँ व संकट, आज के दौर में पत्र पत्रिकाओं की भूमिका - जैसे विषयों पर गंभीर चर्चा हुई। चर्चा में भाग लेने वालों में गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, वीरेन्द्र यादव, चन्द्रेश्वर, डाॅ स्वरूप कुमारी बख्शी, डाॅ शान्तिदेव बाला, शैलेन्द्र सागर और शिवमूर्ति प्रमुख थे।

वक्ताओं का कहना था कि आजादी के बाद सŸार के दशक में हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत हुई थी। सेठाश्रयी पत्रिकाओं के वर्चस्व तथा साहित्य में व्यवसायिकता के विरुद्ध यह आंदोलन था जिसका मुख्य स्वर व्यवस्था विरोध का था। उस दौर में निकलने वाली उŸारार्द्ध, समारम्भ, वाम, पहल, युगपरिबोध, आमुख आदि पत्रिकाओं ने न सिर्फ साहित्य को सोद्देश्य बनाया बल्कि नई रचनाशी
लता को भी सामने लाने का काम किया। ये पत्रिकाएँ आन्दोलन से जुड़ी थीं तथा इनकी वैचारिक दिशा स्पष्ट थी।

इस मौके पर लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं की भी चर्चा हुई। यशपाल जी द्वारा शुरू की गई ‘विप्लव’ को लोगों ने खास तौर से याद किया। सŸार के दशक में शेषमणि पाण्डेय और शरद ने ‘अर्थ’ तथा विनोद भरद्वाज ने ‘आरम्भ’ निकाली थीं। इमरजेन्सी के दौरान ही लखनऊ से ‘परिपत्र’ का प्रकाशन शुरू हुआ था। गोपाल उपाध्याय ने ‘उत्कर्ष’ तथा मुद्राराक्षस ने ‘बेहतर’ निकाल कर कुछ बेहतर करने की कोशिश की थी। वीरेन्द्र यादव ने ‘प्रयोजन’ तथा अजय सिंह व कौशल किशोर ने आठवें दशक में ‘जन संस्कृति’ का प्रकाशन शुरू किया था। इन दोनों पत्रिकाओं ने संगठक का काम भी किया तथा लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ तथा जन संस्कृति मंच को संगठित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

वक्ताओं का कहना था कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में हमारे समाज पर बाजारवाद व उपभोक्तावाद का प्रभाव है। साहित्य को भी इसी नजरिये से देखने की प्रवृति बढ़ी है। वर्तमान में कोई सशक्त आंदोलन भी नहीं है जो साहित्य को प्रेरित कर रहा हो। आज लघुु पत्रिका जैसा आन्दोलन भी नहीं है। इसीलिए आज के दौर में निकल रही साहित्यिक पत्रिकाओं को लघु पत्रिकाओं की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता लेकिन आज की रचनाशीलता तथा उत्कृष्ट साहित्य इन्हीं पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आ रहा है। प्रकाशन व वितरण के ढ़ांचे को इसने ज्यादा व्यवस्थित किया है।
यह बात भी उभर कर आई कि पत्रिका निकालना तथा उसकी निरन्तरता को बनाये रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। पत्रिका के लिए संसाधन जुट जाते हैं तो अगली समस्या अच्छी व बेहतर रचना की आती है। आज राजनीति के क्षेत्र में जिस तरह मूल्यहीनता व अवसरवाद बढ़ा है, उससे समाज में दिशाहीनता व विकल्पहीनता आई हैे। ऐसे में साहित्यिक पत्रकारिता की भूमिका ज्यादा कारगर हो सकती है और वह सांस्कृतिक जागरण का माध्यम बन सकता है।

वक्ताओं का यह भी कहना था कि आज लखनऊ से ‘तदभव’, ‘निष्कर्ष’, ‘लमही’, ‘कथाक्रम’ आदि कई पत्रिकाएँ निकल रही हैं। ‘रेवान्त’ को उस क्षेत्र पर केन्द्रित करना चाहिए जो क्षेत्र इनसे छूट रहे हैं। इस संदर्भ में यह सुझाव भी आया कि इसे मात्र कविता, कहानी व साहित्य के विषयों तक अपने को सीमित न रखकर राष्ट्रीय जीवन और समाज पर असर डालने वाले विषयों पर भी फोकस करना चाहिए जैसे दलित उत्पीड़न, महिलाओं पर बढ़ती हिंसा, भ्रष्टाचार, नागरिक व लोकतांत्रिक अधिकरों पर बढ़ते हमले आदि। वैसे आज महिलाओं की साहित्यिक पत्रिका का अभाव है। ‘रेवान्त’ की सम्पादक इस दिशा में भी सोच सकती हंै।

‘रेवान्त’ की सम्पादक अनीता श्रीवास्तव ने लोकार्पण के अवसर पर पत्रिका के सम्बन्ध में आये सुझाावों का स्वागत किया और कहा कि इसी आलोक में पत्रिका को बेहतर बनाने की वे कोशिश करेंगी। कार्यक्रम का संचालन कवि कौशल किशोर ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन दिया कवयित्री सुशीला पुरी ने।

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शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

सीमा आजाद कब होगी आजाद ?


कौशल किशोर

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन केः जहाँ
चली है रस्म केः कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नजर चुरा के चले वो जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

आज मुल्क की हालत कमोबेश ऐसी ही है, जैसा फैज अपनी इस नज्म में बयान कर रहे हैं। करीब साठ साल पहले हमने संविधान लागू किया था। उसके कुछ मूलभूत आधार तय किये गये थे। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवाद की राह पर चलने का वायदा तथा इसी राह पर चलकर समतामूलक समाज बनाना लक्ष्य था। परन्तु इस संविधान में ऐसे भी कानून मौजूद थे तथा आजादी के बाद के सŸााधारियों ने लगातार ऐसे कानून बनाते चले गये जो हमारे लोकतंत्र की राह को तंग करने वाले थे। हमारा लोकतंत्र और देश आज इसी तंग गली में फँस चुका है। यह गली तानाशाही और फासीवाद की ओर जाती है। यहाँ सर उठाकर चलने की मनाही है। असहमति की जगहें सिमटती जा रही हैं। विरोध को सुनने.समझने की सहिष्णुता खत्म होती जा रही है। बर्दाश्त करिये और चुप रहिए, अपने को बचाकर चलिए और दुम हिलाइये - इसी संस्कृति की वकालत की जा रही है।

हकीकत तो यह है कि हमारे शासकों ने जिन नीतियों पर अमल किया है, उनसे अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। सŸाा और सम्पति से बेदखल गरीबों का कोई पुरसाहाल नहीं है। अपने हक और अधिकार से वंचित ये वो सताये हुए लोग है जिनके श्रम से देश चलता है। पर यदि ये अपने हक की बात करें तो इनके विरुद्ध शासन की बन्दूकें हैं, सŸाा का जुल्मों-सितम है। आज ऐसी व्यवस्था है जहाँ साम्प्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कॉरपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी, बाहुबली व माफिया सŸाा की शोभा बढ़ा रहे हैं, सम्मानित हो रहे हैं, देशभक्ति का तमगा पा रहे हैं, वहीं इनका विरोध करने वाले, सर उठाकर चलने वालों को देशद्रोही कहा जा रहा है, उनके लिए उम्रकैद है, जेल की काल कोठरी है। उŸार प्रदेश की जेल की ऐसी ही काल कोठरी में लेखक, पत्रकार व मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद अपने पति विश्वविजय के साथ कैद हैं। इस साल 6 फरवरी को इनकी कैद का एक साल पूरा हो गया। ये कब आजाद होंगे, इस काल कोठरी से कब बाहर आयेंगे, कोई नहीं बता सकता।

पिछले साल 6 फरवरी के दिन सीमा आजाद को विश्वविजय और उनकी साथी आशा के साथ इलाहाबाद में गिरफ्तार किया गया था। वे दिल्ली पुस्तक मेले से लौट रही थीं। उनके पास मार्क्सवादी व वामपंथी साहित्य था। अभी वे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरी ही थीं कि उन्हें उŸार प्रदेश पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स ने हिरासत में ले लिया। उनकी यह गिरफ्तारी गैरकानूनी गतिविधि ;निरोधकद्ध कानून के तहत की गई। पुलिस का आरोप था कि इनके माओवादियों से सम्बन्ध हैं तथा ‘राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध’ भड़काने जैसी गैरकानूनी गतिविधियों व क्रियाकलाप में लिप्त हैं। इसी आधार पर पुलिस अपनी कार्रवाई को सही ठहराती है। न्यायालय भी कहीं न कही पुलिस के आरोप से सहमत है क्योंकि उसने भी सीमा आजाद की याचिका को नामंजूर कर दिया है।

तब हमारे लिए यह स्वाभाविक सवाल है कि क्या सीमा आजाद की गतिविधियाँं व क्रियाकलाप गैरकानूनी व संविधान विरुद्ध हैं ? पुलिस के जो आरोप हैं तथा न्यायालय भी जिनसे सहमत दिखता है, उनका आधार क्या है ? इनकी सच्चाई क्या है ? पुलिस और न्यायालय द्वारा जो कार्रवाई की गई है, वह कहाँ तक न्यायसंगत है या फिर क्या पुलिस द्वारा मात्र बदले की भावना से की गई कार्रवाई है ?

इस सम्बन्ध में जो तथ्य सामने आये हैं, उनका उल्लेख करना जरूरी है। सीमा आजाद द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ की सम्पादक तथा पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी ;पी यू सी एलद्ध उŸार प्रदेश के संगठन सचिव के बतौर नागरिक अधिकार आंदोलनों से जुड़ी समाजिक कार्यकर्ता रही हैं। सीमा आजाद के पति छात्र आंदोलन और इंकलाबी छात्र मोर्चा के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं। ये लोकतांत्रिक संगठन हैं जिनसे ये जुड़े हैं। सीमा आजाद के लिए लेखन व पत्रकारिता शौकिया न होकर अन्याय व जुल्म के खिलाफ लड़ने का हथियार रहा है। उनकी पत्रिका ‘दस्तक’ का मकसद भी यही रहा है। सीमा आजाद ने जिन विषयों को अपने लेखन, पत्रकारिता, अध्ययन तथा जाँच का आधार बनाया है, वे पूर्वी उŸार प्रदेश में मानवाधिकारों पर हो रहे हमले, दलितों खासतौर से मुसहर जाति की दयनीय स्थिति, पूर्वी उŸार प्रदेश में इन्सेफलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारी से हो रही मौतों व इस सम्बन्ध में प्रदेश सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति, औद्योगिक नगरी कानपुर के कपड़ा मजदूरों की दुर्दशा, प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी योजना गंगा एक्सप्रेस द्वारा लाखों किसान जनता का विस्थापन आदि रहे हैं।

गौरतलब है कि सीमा आजाद और विश्वविजय का कार्यक्षेत्र इलाहाबाद व कौसाम्बी जिले का कछारी क्षेत्र रहा है जहाँ माफिया, राजनेता व पुलिस की मिलीभगत से अवैध तरीके से बालू खनन किया जा रहा है तथा इनके द्वारा काले धन की अच्छी.खासी कमाई की जा रही है। इस गठजोड़ द्वारा खनन कार्यों में लगे मजदूरों का शोषण व दमन यहाँ का यथार्थ है तथा इस गठजोड़ के विरोध में मजदूरों का आन्दोलन इसका स्वाभाविक नतीजा है। मजदूरों के इस आंदोलन को दबाने के लिए उनके नेताओं पर पुलिस.प्रशासन द्वारा ढ़ेर सारे फर्जी मुकदमें कायम किये गये, नेताओं की गिरफ्तारियाँ हुईं और इन पर तरह तरह के दमन ढ़ाये गये। सीमा आजाद इस आन्दोलन से जुड़ी थीं। उन्होंने न सिर्फ इस अवैध खनन का विरोध किया बल्कि यहाँ हो रहे मानवाधिकार के उलंघन पर जोरदार तरीके से आवाज उठाया।

इसी दौरान एक घटना और हुई। नवम्बर 2009 में नक्सली नेता कमलेश चौधरी की पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई थी। सीमा आजाद अपने पति विश्वविजय के साथ मिलकर इस हत्या के खिलाफ विरोध संगठित किया और मानवाधिकार कार्यकर्ता की हैसियत से उन्होंने सरकार से इसकी जाँच की माँग की। पी यू सी एल की उŸार प्रदेश शाखा की संगठन मंत्री की हैसियत से सीमा आजाद ने अपने साथी के0 के0 राय के सहयोग से कौसाम्बी के नन्दा का पुरा गाँव में मानवाधिकार हनन पर रिपोर्ट जारी किया था। इस गाँव में पुलिस व पीएसी द्वारा ग्रामीणों पर बर्बर लाठी चार्ज किया गया था जिसमें सैकड़ों मजदूर घायल हुए थे। सीमा आजाद और विश्वविजय उन लोगों में रहे हैं जिन्होंने सेज से से लेकर ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ का लगातार विरोध किया और वैश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण के खिलाफ मोर्चा खोला। अपनी गिरफ्तारी से कुछ ही दिन पूर्व उन्होंने ‘आपरेशन ग्रीनहंट’ के विरुद्ध एक पुस्तिका प्रकाशित किया था जिसमें अरुंधती राय, गौतम नवलखा, प्रणय प्रसून बाजपेई आदि के लेख संकलित हैं।

ये ही सीमा आजाद और उनके साथी विश्वविजय के क्रियाकलाप और उनकी गतिविधियाँ हैं जिन्हे ‘राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध’ की संज्ञा देते हुए पुलिस.प्रशासन द्वारा इन्हें नक्सली व माओवादी होने के आधार के रूप में पेश किया जा रहा है। यही नहीं, इनके माओवादी होने के लिए पुलिस ने कुछ और तर्क दिये हैं। जैसे, पुलिस का कहना है कि ये ‘कामरेड’ तथा ‘लाल सलाम’ का इस्तेमाल करते हैं जबकि यह सर्वविदित सच्चाई है कि सभी कम्युनिस्ट र्पािर्टयों तथा उनके संगठनों में ‘कामरेड’ संबोधन तथा ‘लाल सलाम’ अभिवादन के रूप में आमतौर पर इस्तेमाल होता है। यदि पुलिस.प्रशासन के इस तर्क को माओवादी होने का आधार बना दिया जाय तो सारे वामपंथी संगठन माओवादियों की परिधि में आ जायेंगे। इसी तरह का तर्क सीमा आजाद के पास से मिले वामपंथी व क्रान्तिकारी साहित्य को लेकर भी दिया गया। उल्लेखनीय है कि ऐसा साहित्य आमतौर पर सारे कम्युनिस्ट नेताओं.कार्यकर्ताओं से लेकर वामपंथी बुद्धिजीवियों के यहाँ मिलेंगे। पुलिस यह बताने में असफल रही है कि वहाँ बरामद साहित्य में कौन सा साहित्य प्रतिबंधित है।

ऐसे ही आरोप पुलिस द्वारा डॉ विनायक सेन पर भी लगाये गये थे तथा इनके पक्ष में पुलिस की ओर से जो तर्क पेश किये गये, वे बहुत मिलते.जुलते हैं। माओवादियों से सम्बन्ध, राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध तथा राजद्रोह जैसे आरोपों के तहत ही विनायक सेन को 14 मई 2007 को गिरफ्तार किया गया था। करीब दो साल तक साधारण कैदियों से भी बदतर हालत में जेल में रखा गया। छŸाीसगढ़ की उच्च न्यायालय तक ने उनकी जमानत को नामंजूर कर दिया था। यह तो सर्वाेच्च न्यायालय है, जिसके हस्तक्षेप से उन्हें जमानत दी गई। उन पर सितम्बर 2008 से मुकदमा चला और बीते साल के 24 दिसम्बर को उस मुकदमें के तहत छŸाीसगढ़ की निचली अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई। सीमा आजाद के सम्बन्ध में भी यही नीति अपनाई जा रही है तथा उनके मुकदमें की दिशा भी यही है। इसीलिए ऐसा लगता नहीं कि सीमा आजाद को न्यायालय से जल्दी कोई राहत मिलने वाली है।

देखा जा रहा है कि सरकारों द्वारा नक्सलवाद व माओवाद लोकतांत्रिक आवाजों को दबाने.कुचलने का हथकण्डा बन गया है तथा जन आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं पर राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध भड़काने, राजद्रोह, देशद्रोह जैसे आरोप आम होते जा रहे है। छŸाीसगढ़ की भाजपा सरकार द्वारा लोकतांत्रिक व मानवाधिकारों को दबाने का जो प्रयोग शुरू किया गया था, उŸार प्रदेश और अन्य राज्यों की सरकारों द्वारा उसी नुस्खे को अमल में लाया जा रहा है।

ऐसे लोगों की एक लम्बी सूची है जो इस प्रयोग के शिकार हैं। अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ के देहरादून संवाददाता प्रशान्त राही को गिरफ्तार तो उनके निवास से किया गया लेकिन पुलिस द्वारा खबर यह दी गई कि उन्हें हंसपुर खŸाा के जंगलों से पकड़ा गया तथा उनके बारे में यह प्रचारित किया गया कि वे माओवादियों के ‘जोनल कमाण्डर’ हैं। प्रशान्त राही आज भी जेल में हैं। इसी तरह मजदूर किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष तथा ‘प्रेरणा संदेश’ के संपादक प्रताप सिंह को भी ऊधमसिंह नगर में गिरफ्तार किया गया। अपने क्षेत्र में मास्टर साहब के नाम से लोकप्रिय प्रताप सिंह के बारे में पुलिस द्वारा यह आरोप गढ़ा गया कि ये माओवादियों को हथियारों की ट्रेनिंग देते हैं। बाद में ठोस सबूत के अभाव में अवैध तरीके से हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने उन्हें रिहा कर दिया। इसी साल महाराष्ट्र के नक्सल विरोधी दस्तें ने मराठी के प्रमुख संस्कृतिकर्मी और मराठी पत्रिका ‘विद्रोही’ के सम्पादक सुधीर ढावले को उस समय गिरफ्तार किया जब वे अम्बेडकर युवा साहित्य सम्मेलन से वापस लौट रहे थे। उनके ऊपर देशद्रोह का आरोप लगाया गया तथा उनकी यह गिरफ्तारी गैर कानूनी गतिविधि निरोधक कानून के तहत की गई।

सीमा आजाद ऐसे ही लागों में शामिल हैं। सीमा आजाद की जिन गतिविधियों और क्रियाकलाप को गैरकानूनी कहा जा रहा है, वे कहीं से भी भारतीय संविधान द्वारा अपने नागरिकों को दिये गये अधिकारों के दायरे से बाहर नहीं जाती हैं बल्कि इनसे सीमा आजाद की जो छवि उभरती है वह आम जनता के दुख.दर्द से गहरे रूप से जुड़ी और उनके हितों के लिए संघर्ष करने वाली लेखक, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता की है। यह ऐसी छवि है जिस पर शोषित.पीड़ित समाज गर्व करता है। बेशक ये गतिविधियाँ सŸाा और समाज के माफिया सरदारों व बाहुबलियों के हितों के विरुद्ध जाती हैं और इनसे निहित स्वार्थी तत्वों के हितों पर चोट पड़ती है। इसीलिए लोकतांत्रिक समाज, मानवाधिकार संगठन, बुद्धिजीवी, लेखक आदि मानते हैं कि सीमा आजाद पर जो आरोप गढ़े गये हैं तथा गैरकानूनी गतिविधि ;निवारकद्ध कानून के तहत जो गिरफ्तारी की गई है, वह दमन के उद्देश्य से तथा बदले की भावना से की गई कार्रवाई है। इस तरह की कार्रवाई के द्वारा सरकार उन लेखकों, बुद्धिजीवियों व मानवाधिकारवादियों को भी नियंत्रित रहने का संदेश देना चाहती है जो सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों का विरोध करते हैं, दमन.उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाते हैं तथा प्रतिपक्ष का निर्माण करते हैं।

लेकिन यह सŸाा का भ्रम है कि दमन से वह विरोध की आवाज को दबा देगी। देखा यही गया है कि दमन ने हमेशा प्रतिरोध का रूप लिया है तथा प्रतिरोध के अत्मबल को बढ़ाया है। ऐसा हम सीमा आजाद के संदर्भ में भी देखते हैं। पिछले दिनों हिन्दी कवि नीलाभ को लिखे अपने पत्र में सीमा आजाद ने अपने बारे में कहा है - ‘मै और विश्वविजय दोनों सकुशल से हैं तथा जेल से बाहर आने का इंतजार करते हुए हमने अच्छा.खासा अनुभव हसिल किया है। एक बात हमने साफतौर महसूस किया है, वह है कि दमन आदमी को मजबूत, अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ तथा और अधिक संघर्षशील व जुझारू बनाता है। इस सम्बन्ध में दुनिया की सरकारें बड़े भ्रम में जीती हैं और हमारी सरकार भी। हमने महसूस किया है कि सामाजिक परिवर्तन की हमारी इच्छा को सरकार दबा नहीं सकती बल्कि सरकार के उत्पीड़न की इस तरह की कार्रवाई कालिदास की उस कथा की तरह है जिसमें सरकार पेड़ की उस डाल को ही काट रही है जिस पर वह बैठी है।’

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गुरुवार, 6 जनवरी 2011

सफदर की याद में ‘चौराहे पर’ नाटक




कौशल किशोर
नये साल का पहला दिन है। चारो तरफ कोहरा फेैला है। हाड़ कंपाती ठंढ़ी हवा हड्डियों को छेद रही है। गोमती नदी के किनारे शहीद स्मारक पर इस ठंढ व कोहरे का असर कुछ ज्यादा ही है। पर इस क्रूर मौसम की तरफ से बेपरवाह नगाड़े की ढम..ढम.. और ढपली पर थाप देते अमुक अर्टिस्ट ग्रुप के कलाकार अनिल मिश्रा ’गुरूजी’ के नेतृत्व में शहीद स्मारक पर जुटे हैं। इनके द्वारा नुक्कड़ नाटक ‘मुखौटे’ का मंचन होना है। कलाकारों के हाथों में जो बैनर है, उस पर लिखा है ‘हम सब सफदर, हमको मारो’। कलाकार अपने नाट्य प्रदर्शन के माध्यम से हमें याद दिलाते हैं कि पहली जनवरी के दिन ही सफदर हाशमी शहीद हुए थे। सफदर आज नहीं हैं, पर वह सांस्कृतिक संघर्ष आज भी जारी है। अपने नाटक ‘मुखौटे’ के द्वारा कलाकार हमें यह आभास देते हैं कि हम जिस संस्कृतिक अंधेरे में जी रहे हैं, वह मौसम के कोहरे से कही ज्यादा घना है। जरूरत तो कला को मशाल बनाने की है जो इस अंधेरे को चीर सके।

ऐसी ही प्रतिबद्धता और विपरीत परिस्थितियों से जूझने का साहस ही नुक्कड़ नाटकों को अन्य कला विधाओं से अलग करता है। रंगमंचीय तामझाम से दूर, थोड़ी-बहुत साज-सज्जा के साथ बिल्कुल छापामार तरीके से कलाकारों का किसी चौराहे, नुक्कड़, मुहल्ले, स्ट्रीट कार्नर या किसी जन संकुल क्षेत्र में इक्ट्ठा होना और अपने अभिनय द्वारा जन जागृति का संदेश देना - नुक्कड़ नाटक की यही पहचान है। आंदोलनों से ऊर्जा लेना तथा अपनी कला द्वारा आंदोलनों को गति देना, यह नुक्कड़़ नाटक की खासियत है। कहा जाय तो नुक्कड़ नाटकों का जन्म जन आंदोलनों से जुड़ी कला विधा के रूप में तथा नाटक को जनता तक पहुँचाने की जरूरत के रूप में हुआ।

सŸाा और मौजूदा व्यवस्था पर प्रहार, चुटीले व्यंग्य के पुट, चुस्त व छोटे संवाद और गतिशील अभिनय के द्वारा नुक्कड़ नाटक दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ता है। 70 के दशक में हम जन आंदोलनों का उभार देखते हैं और यही वह उर्वर जमीन है जिस पर नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन परवान चढ़ा। इस कला विधा ने शोषक सŸाा, तंत्र, भ्रष्ट राजनीति व नेता, पुलिस-प्रशासन को अपना निशाना बनाया। इसीलिए कलाकारों को मालिकों, नेताओं, उनके गुण्डों और पुलिस-प्रशासन के हमले का शिकार होना पड़ा। करीब दो दशक पहले एक जनवरी 1989 को साहिबाबाद ;गाजियाबादद्ध में नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ का मंचन करते समय राजनीतिक गुण्डों द्वारा सफदर हाशमी और उनके एक कलाकार साथी की हत्या कर दी गई। तब से सफदर शहादतों की परम्परा के ऐसे नायक बनकर उभरे है जिनसे नुक्कड़ नाटक करने वाले कलाकार आज भी प्रेरणा लेते हैं और हर साल की पहली तारीख को नाटक कर यह अहसास दिलाते है कि उनकी याद आज भी हमारे दिलों में जिन्दा है। इसी तरह के हमलों का शिकार नुक्कड़ नाटक के कलाकारों को जगह.जगह होना पड़ा है।

जहाँ तक लखनऊ की बात है, यहाँ नुक्कड़ नाटकों की शुरूआत इमरजेन्सी के ठीक बाद हो गई थी। शहर में कई संस्थाएँ थीं जो नुक्कड़ नाटक करती थीं। कलम, साऊनाप, नवचेतना, जन संस्कृति मंच, इप्टा, मशाल आदि नाट्य संस्थाएँ अस्तित्व में आईं और ‘मशीन’, ‘औरत’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘जनता पागल हो गई है’, ‘रंगा सियार’, ‘हल्ला बोल’, ‘समरथ को नहिं दोष गोंसाई’ जैसे दर्जनों नाटक यहाँ मंचित हुए। शहर का शायद ही कोई चौराहा, मजदूर बस्ती, फैक्ट्री गेट या मोहल्ला बचा हो जहाँ नुक्कड़ नाटक न हुए हों।



लखनऊ में भी कलाकारों को भी दमन का सामना करना पड़ा। भगत सिंह शहादत दिवस की 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर 1981 में ‘नवचेतना’ के कलाकारों - आदियोग, कुमार सौवीर, सुप्रिय लखनपाल आदि के सीने पर निशातगंज में पुलिस के सिपाही ने भरी बन्दूक की नाल रख दी थी। ‘नवचेतना’ के कलाकार गुरुशरण सिंह द्वारा शहीद भगत सिंह के जीवन और विचारधारा पर लिखा नाटक ‘इंकलाब जिंदाबाद’ खेलना चाहते थे। निशातगंज पुलिस की जिद थी कि बिना जिला प्रशासन की अनुमति के वे नाटक नहीं होने देंगे। लेकिन जनता के भारी विरोध के आगे पुलिस को पीछे हटना पड़ा और बड़ी संख्या में लोगों ने उस नाटक को देखा।

इसी तरह की एक घटना लखनऊ महोत्सव के दौरान हुई। महिफल संस्था द्वारा आयोजित लघु नाटक समारोह में जब जन संस्कृति मंच के कलाकार ‘जनता पागल हो गई है’ का मंचन कर रहे थे, तत्कालीन लखनऊ पुलिस अधीक्षक ब्रज लाल ने कलाकारों को गिरफ्फ्तार कर लिया। उन्हे रातभर हजरतगंज कोतवाली में रखा गया। उन्हीं दिनों एक घटना स्कूटर्स इण्डिया गेट पर हुई थी। वहाँ के मजदूर आंदोलन के समर्थन में ‘मशाल’ के कलाकार ‘रंगा सियार’ नाटक कर रहे थे। उसी दौरान कुछ विरोधी व अराजक तत्वों द्वारा कलाकारों व दर्शकों पर पथराव किया गया जिसमें कई कलाकार व दर्शक घायल हो गये।

यहाँ इन चन्द घटनाओं का उल्लेख करने के पीछे मकसद मात्र यही बताना है कि लखनऊ जैसे शहर में भी नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन ने आंदोलन का रूप ले लिया था और 80 से लेकर 90 के बीच यह अत्यन्त लोकप्रिय कला माध्यम था जिसे जनता के बीच अच्छी.खासी लोकप्रियता हासिल थी। इसे नुक्कड़ नाट्य आंदोलन का असर ही कहा जायेगा कि रंगमंच से जुड़े कई कलाकार व निर्देशक भी उन दिनों नुक्कड़ नाटक से जुड़ गये जिनमें आतमजीत सिंह प्रमुख थे।
पर आज नुक्कड़ नाटकों की हालत वैसी नहीं है। कोई आंदोलन नहीं है। यहाँ सन्नाटा जैसी स्थिति दिखाई पड़ती है। आमतौर पर नुक्कड़ों पर नाटक के नाम पर जो प्रदर्शन हो रहा है, उसका नुक्कड़ नाटक से कुछ भी लेना देना है। इस लोकप्रिय कला माध्यम का उपयोग आज सरकारी-गैरसरकारी कम्पनियों व संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है जिनका मकसद अपने उत्पाद व कार्यक्रम का प्रचार करना है। जहाँ तक सŸाा व व्यवस्था के चरित्र की बात है, वह कहीं से भी जन पक्षधर नहीं हुई है। बल्कि उसका चरित्र और भी जन विरोधी हुआ है। फिर नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में पसरा ऐसा सन्नाटा क्यों ? यह प्रतिबद्ध कलाकारों के समक्ष सवाल भी है और चुनौती भी।

अनिल मिश्रा ‘गुरूजी’ ऐसे ही कलाकार हैं जो इस चुनौती को साहस पूर्वक स्वीकार करते हैं। जहाँ कई कलाकार नुक्कड़ नाटक की जगह रंगमंच की ओर मुड़ गये या अपनी आजीविका के लिए सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं में चले गये, वहाँ गुरूजी मजबूती के साथ नुक्कड़ नाटक से जुड़े हैं। नुक्कड़ नाटक क्षेत्र में नये नाट्यालेख के अभाव ने उन्हें स्वयं नाट्य लेखन की ओर उन्मुख किया। गुरुशरण सिंह की तरह मंचन के साथ ही नाट्य लेखन का काम भी शुरू कर दिया। उन्होंने कई नाटक लिखे और उसका मंचन किया। उनके इन नाटकों का संग्रह ‘चौराहे पर’ शीर्षक से अभी हाल में प्रकाशित होकर आया है। इसमें उनके लिखे बारह नुक्कड़ नाटक संकलित हैं। इन नाटकों के मुख्य विषय पुलिस जुल्म, भ्रष्टाचार, मंहगाई, बलात्कार, राजनीतिक नेताओं का जनविरोधी चरित्र, संसदीय व्यवस्था का खोखलापन, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, बेरोजगारी आदि हैं। ये नाटक दर्शकों को मात्र समस्याओं से ही रु-ब-रु नहीं कराते बल्कि उन्हंे इनसे संघर्ष करने और इस व्यवस्था को बदलने के लिए भी प्रेरित करते हैं।

अनिल मिश्रा ‘गुरूजी’ के नुक्कड़ नाटकों के इस संग्रह का पिछले सप्ताह लखनऊ के हिन्दी संस्थान में वरिष्ठ कथाकार व नाटककार मुद्राराक्षस ने लोकार्पण किया। इस मौके पर ‘नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन’ विषय पर सेमिनार भी हुआ जिसे सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, आतमजीत सिंह, राजेश कुमार, आदियोग, मृदुला भरद्वाज, अनिल यादव, प्रतुल जोशी, कौशल किशोर आदि ने संबोधित किया। बड़ी संख्या में यहाँ नौजवान कलाकार जुटे थे। इस सेमिनार में नुक्कड़ नाटक को लेकर गंभीर चर्चा हुई और सभी ने माना कि यह विचार का आंदोलन है। यह न तो सरकारी-गैर सरकारी योजनाओं का प्रचार है और न राजनीतिक प्रचार का माध्यम है। यह नुक्कड़ की नई संस्कृति के निर्माण की कोशिश है जहाँ आदमी वर्ग, वर्ण, जाति, संप्रदाय के घेरे से बाहर निकलता है। यह उस जनता की आवाज है जो शोषित-उत्पीड़ित है तथा हाशिए पर डाल दी गई है।

आज का दौर ऐसा है जब दुनिया को युद्धों में झोंका जा रहा है, किसान आत्म हत्या कर रहे हैं, आम आदमी मंहगाई व बेरोजगारी से परेशान है, मानवाधिकारों पर हमले हो रहे हैं और शोषण व अन्याय पर आधारित इस पूँजीवादी व सम्राज्यवादी व्यवस्था को विकल्पहीन बताया जा रहा है तब नये विकल्पों की तलाश संस्कृति की अनिवार्यता बन गई है। नुक्कड़ नाटक जैसी विधा इन्ही विकल्पों को पेश करती है। भले ही यह आंदोलन आज ठहराव का शिकार हो लेकिन आज के हालात ने इस विधा के पुनर्जीवन के लिए फिर से जमीन तैयार कर दी है। अनिल मिश्रा ‘गुरूजी’ द्वारा लिखित नुक्कड़ नाटकों के संग्रह ‘चौराहे पर’ को एक नई शुरुआत माना जा सकता है। संभव है हमें आने वाले दिनों में न सिर्फ रंगमंच पर बल्कि नुक्कड़ों और चौराहों पर भी विचार और आंदोलन के ऐसे नाटक देखने को मिले जो आम आदमी की समस्याओं व संघर्ष की कहानी कहते हांे तथा उन्हें जागरूक बनाने वाले हों।

एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ.226017
मो0: 09807519227

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

इरोम शर्मिला का संघर्ष : अंधियारे का उजाला

कौशल किशोर

इस साल नवम्बर में मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला की भूख हड़ताल के दस साल पूरे हो गये। तमाम अवरोधों और मुश्किलों के बावजूद उनकी भूख हड़ताल आज भी जारी है। इन दस वर्षों में उनका कृषकाय शरीर और जर्जर व कमजोर हुआ है। लेकिन कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करने वाली उनकी आन्तरिक ताकत और इच्छा-शक्ति बढ़ी है। यह अदम्य साहस से लबरेज मौत को धता बता देने वाली ताकत है। इसीलिए आज वे इस्पात की तरह न झुकने व न टूटने वाली मणिपुर की ‘लौह महिला’ के रूप में जानी जाती हैं।

इरोम शर्मिला सामाजिक कार्यकर्ता और कवयित्री हैं, भावनाओं व संवेदनाओं से भरी। उनके अन्दर खुले गगन में परिन्दों के विचरण जैसी भावना है। यह मात्र भावुकता नहीं है बल्कि यथार्थ की ठोस जमीन पर पका उनका विचार है जिसके मूल में दमन और परतंत्रता के विरुद्ध दमितो-उत्पीड़ितों द्वारा स्वतंत्रता की दावेदारी है: ‘कैदखाने के कपाट पूरे खोल दो/मैं और किसी राह पर नहीं जाऊँगी/ कांटो की बेड़ियाँ खोल दो’। यही वजह है कि आज वह सत्ता के दमन के विरुद्ध सृजन और संघर्ष की ही नहीं बल्कि हमारे जिन्दा समाज की पहचान बन गई हैं।

बात नवम्बर 2000 की है। इरोम शर्मिला मणिपुर की राजधानी इम्फाल से सटे मलोम में शान्ति रैली के आयोजन के सिलसिले में एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैण्ड पर सैनिक बलों द्वारा ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाई गई जिसमें करीब दस निरपराध लोग मारे गये। यह सब इरोम शर्मिला की आँखों के सामने हुआ। यह उनको आहत व व्यथित कर देने वाली घटना थी। वैसे यह कोई पहली घटना नहीं थी जिसमें सुरक्षा बलों ने नागरिकों पर गोलियाँ चलाई हो, दमन ढ़ाया हो पर इरोम शर्मिला के लिए यह दमन का चरम था। इस घटना के बाद इरोम के लिए शान्ति रैली निकाल कर सत्ता की कार्रवाइयों का विरोध अपर्याप्त या अप्रासंगिक लगने लगा। लिहाजा उन्होंने एलान किया कि अब यह सब बर्दाश्त के बाहर है। यह तो निहत्त्थी जनता के विरुद्ध सत्ता का युद्ध है। उन्होंने माँग की कि मणिपुर में लागू कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ्सपा) हटाया जाय। इस एक सूत्री माँग को लेकर उन्होंने नैतिक युद्ध छेड़ दिया और मलोम बस स्टैण्ड पर भूख हड़ताल शुरू कर दी जो आज दस साल बाद भी जारी है।

वैसे इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल का पिछला दस साल अत्यन्त जद्दोजहद से भरा रहा है। आरम्भ में मणिपुर सरकार ने उनकी भूख हड़ताल को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन उनकी भूख हड़ताल की खबर पूरे मणिपुर में जंगल की आग की तरह फैल गई। सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता उनके समर्थन में जुटने लगे। इस भूख हड़ताल की वजह से इरोम शर्मिला की हालत खराब होने लगी। उनकी जान बचाने का सरकार पर दबाव बढ़ने लगा। सरकार ने इरोम शर्मिला को गिरफ्तार कर लिया। उन पर आत्महत्या
करने का आरोप लगाते हुए धारा 309 के तहत कार्रवाई की गई और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। तब से वह लगातार न्यायिक हिरासत में हैं। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल का वह वार्ड जहाँ उन्हें रखा गया है, उसे जेल का रूप दे दिया गया है। वहीं उनकी नाक से जबरन द्रव्य पदार्थ दिया जा रहा है। इस तरह इरोम शर्मिला को जिन्दा रखने का ‘लोकतांत्रिक’ नाटक पिछले दस वर्षों से चल रहा है।

उल्लेखनीय है कि धारा 309 के तहत इरोम शर्मिला को एक साल से ज्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता। इसलिए एक साल पूरा होते ही उन्हे रिहा करने का नाटक किया जाता है। फिर उन्हें गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत के नाम पर उसी सीलन भरे वार्ड में भेज दिया जाता है और जीवन बचाने के नाम पर नाक से द्रव्य देने का सिलसिला चलाया जाता है। यह हमारे लोकतंत्र की विडम्बना ही है कि एक तरफ इरोम शर्मिला की जान बचाने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर उनके नाक से द्रव्य पदार्थ पहुँचाया जा रहा है, वहीं इरोम शर्मिला की माँग कि मणिपुर से आफ्सपा को हटाया जाय, इस कानून की वजह से जो पीड़ित हैं, उन्हें न्याय दिया जाय तथा जिम्मेदार सैनिक अधिकारियों को दण्डित किया जाय - जैसे मुद्दों पर विचार करने तक को सरकार तैयार नहीं।

दरअसल, इरोम शर्मिला जिस ‘आफ्सपा’ को हटाये जाने की माँग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं, उस कानून के प्रावधानों के तहत सेना को ऐसा विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके अन्तर्गत वह सन्देह के आधार पर बगैर वारण्ट कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है, किसी को गिरफ्तार कर सकती है तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकती है। यही नहीं, यह कानून सशस्त्र बलों को किसी भी दण्डात्मक कार्रवाई से बचाती है जब तक कि केन्द्र सरकार उसके लिए मंजूरी न दे। देखा गया है कि जिन राज्यों में ‘आफ्सपा’ लागू है, वहाँ नागरिक प्रशासन दूसरे पायदान पर पहुँच गया है तथा सरकारों का सेना व अर्द्धसैनिक बलों पर निर्भरता बढ़ी है। इन राज्यों में लोकतंत्र सीमित हुआ है, जन आन्दोलनों को दमन का सामना करना पड़ा है तथा सामान्य विरोध को भी विद्रोह के रूप में देखा गया है।

गौरतलब है कि जिन समस्याओं से निबटने के लिए सरकार द्वारा ‘आफ्सपा’ लागू किया गया है, देखने मे यही आया है कि उन राज्यों में इससे समस्याएँ तो हल नहीं हुई, बेशक उनका विस्तार जरूर हुआ है। पूर्वोतर राज्यों से लेकर कश्मीर, जहाँ यह कानून पिछले कई दशकों से लागू है, की कहानी यही सच्चाई बयान कर रही है। 1956 में नगा विद्रोहियों से निबटने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पहली बार सेना भेजी गई थी। तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित नेहरू ने संसद में बयान दिया था कि सेना का इस्तेमाल अस्थाई है तथा छ महीने के अन्दर सेना वहाँ से वापस बुला ली जायेगी। पर वास्तविकता इसके ठीक उलट है। सेना समूचे पूर्वोŸार भारत के चप्पे.चप्पे में पहुँच गई। 1958 में ‘आफ्सपा’ लागू हुआ और 1972 में पूरे पूर्वोŸार राज्यों में इसका विस्तार कर दिया गया। 1990 में जम्मू और कश्मीर भी इस कानून के दायरे में आ गया। आज हालत यह है कि देश के छठे या 16 प्रतिशत हिस्से में यह कानून लागू है।

लोकतांत्रिक और मानवाधिकार संगठनों ने जो तथ्य पेश किया है, उसके अनुसार जिन प्रदेशों में ‘आफ्सपा’ लागू है, वहाँ लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन हुआ है, राज्य का चरित्र ज्यादा दमनकारी होता गया है, जनता का सरकार और व्यवस्था से अलगाव बढ़ा है तथा लोगों में विरोध व स्वतंत्रता की चेतना ने आकार लिया है। द्वन्द्ववाद का नियम है कि जब जनता के अधिकारों का हनन होता है और दमन चरम की ओर बढ़ता है तो प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध की शक्तियाँ भी गोलबन्द होती हैं तथा संघर्ष की चेतना का प्रस्फुटन होता है। एक तरफ अपमान, बलात्कार, गिरफ्तारी व हत्या तो दूसरी तरफ तीव्र घृणा, आत्मदाह, आत्महत्या, असन्तोष व आक्रोश का विस्फोट - मणिपुर के पिछले पाच दशक का यथार्थ यही है। इरोम शर्मिला इसी यथार्थ की मुखर अभिव्यक्ति हैं।

मणिपुर की खासियत यह है कि इस राज्य की महिलाएँ सामाजिक व राजनीतिक संघर्षों में बढ़.चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। इनके अन्दर लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति काफी सजगता है। अतीत में अंग्रेजी साम्राज्य से लोहा लेना हो या सामाजिक अपराध, नशाबन्दी व मंहगाई के खिलाफ संघर्ष हो, मणिपुर की महिलाओं का अपना इतिहास है। आज के दौर में ये मानव अधिकारों की रक्षा के संघर्ष की अगली कतार में हैं। इस संदर्भ में 2004 में उनके द्वारा किये संघर्ष की चर्चा करना प्रासंगिक होगा। उनके आक्रोश और चेतना का विस्फोट हमें देखने को मिला जब असम राइफल्स के जवानों द्वारा थंगजम मनोरमा के साथ किये बलात्कार और हत्या के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने कांगला फोर्ट के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया। उन्होंने जो बैनर ले रखा था, उसमें लिखा था ‘भारतीय सेना आओ, हमारा बलात्कार करो’।

महिलाओं का यह विरोध मणिपुर ही नहीं देश के महिला आंदोलन के इतिहास में अनोखा है जो उनके अन्दर की आग से हमें परिचित कराता है। ये महिलाएँ ‘मीरा पेबिस आन्दोलन’ से जुड़ी थीं। ‘मीरा पेबिस’ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘मशाल थामें औरतें’। इरोम शर्मिला मणिपुर के इसी इतिहास और संघर्ष की परम्परा की कड़ी हैं। दस साल से जारी उनकी भूख हड़ताल वास्तव में जनता के प्रतिरोध की मशालें हैं जो एक तरफ सŸाा की क्रूरता और संवेदनहीनता को सामने लाती है तो दूसरी तरफ प्रतिरोध की उस क्षमता से हमें रु.ब.रु कराती है जो रक्त का एक बून्द भी नहीं बहाती परन्तु जिसकी मारक क्षमता असीमित है। इरोम शर्मिला के शब्दों में कहें तो यह ‘अंधियारे का उजाला’ है क्योंकि ‘इन्सानी जिन्दगी बेशकीमती है/इसके पहले कि मेरा जीवन खत्म हो/ होने दो मुझे अंधियारे का उजाला’।

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